एक होता है पदार्थ(matter)और दूसरी होती है क्रिया (action). पदार्थ नाशवान है उसी तरह जिस क्रिया का आदि होता है उसका अंत भी निश्चित है. पदार्थ और क्रिया की इस नाशवान सत्ता के इतर जो कुछ अनुभव, ज्ञान अथवा विवेक से प्राप्य मालूम देता हो उसे अविनाशी अक्षर ब्रह्म (ॐ) का एक अंश मानना चाहिए. यद्यपि ऐसा कहने में भी चक्रक दोष है क्योंकि 'मानना', 'जानना' आदि भी क्रिया के हीं विविध रूप है. कदाचित इसीलिए ब्रह्म को अचिंत्य अरुप अपुरूषेय आदि से समझाने का ऋषि मुनियों ने प्रयत्न किया है. ******************************************************** सनातन धर्म में ॐ को ब्रह्म का पर्याय माना गया है. इसे ओंकार या प्रणव भी कहा गया है. मनुष्य अपनी सभी पारमार्थिक चेष्टाएं चाहे वह यज्ञ हो,दान हो,तप हो,जप,मंत्र हो जो हो; ॐ से जोड़ कर आरंभ करना चाहता है. यह उचित ही है. यही कारण है कि सभी मंत्र आदि का जप यदि अन्यथा निर्दिष्ट नहीं किया गया हो तो ॐ के साथ हीं आरंभ होता है. परमात्मा का नाम भी लोग ॐ के साथ लेते हैं यथा ॐ परमात्मने नमः आदि. तथा यह भी कि यज्ञ, दान, तपरूपी समस्त कल्याणकारी क्रियाओं की...