श्रीमद्भगवद्गीता में ॐ कारमूलक श्लोकों की चर्चा.
एक होता है पदार्थ(matter)और दूसरी होती है क्रिया (action).
पदार्थ नाशवान है उसी तरह जिस क्रिया का आदि होता है उसका अंत भी निश्चित है.
पदार्थ और क्रिया की इस नाशवान सत्ता के इतर जो कुछ अनुभव, ज्ञान अथवा विवेक से प्राप्य मालूम देता हो उसे अविनाशी अक्षर ब्रह्म (ॐ) का एक अंश मानना चाहिए.
यद्यपि ऐसा कहने में भी चक्रक दोष है क्योंकि 'मानना', 'जानना' आदि भी क्रिया के हीं विविध रूप है.
कदाचित इसीलिए ब्रह्म को अचिंत्य अरुप अपुरूषेय आदि से समझाने का ऋषि मुनियों ने प्रयत्न किया है.
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सनातन धर्म में ॐ को ब्रह्म का पर्याय माना गया है. इसे ओंकार या प्रणव भी कहा गया है.
मनुष्य अपनी सभी पारमार्थिक चेष्टाएं चाहे वह यज्ञ हो,दान हो,तप हो,जप,मंत्र हो जो हो; ॐ से जोड़ कर आरंभ करना चाहता है.
यह उचित ही है.
यही कारण है कि सभी मंत्र आदि का जप यदि अन्यथा निर्दिष्ट नहीं किया गया हो तो ॐ के साथ हीं आरंभ होता है. परमात्मा का नाम भी लोग ॐ के साथ लेते हैं यथा ॐ परमात्मने नमः आदि.
तथा यह भी कि यज्ञ, दान, तपरूपी समस्त कल्याणकारी क्रियाओं की समाप्ति भी हरि के ॐ,तत्, सत् इन तीन नामों से हीं की जाती है.
यथा-हरि: ॐ तत् सत् हरि: ॐ तत् सत् हरिः ॐ तत् सत्
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अन्य शास्त्रों में इसकी चर्चा किस तरह एवं कितनी की गई है इसके बारे में पता नहीं, किंतु श्रीमद्भगवद्गीता में इसका उल्लेख अनेक श्लोकों में किया गया है जिससे इसके महत्व का दर्शन अपनी-अपनी इस अक्षर के प्रति साधक की श्रद्धा के अनुसार एवं अनुरूप हो सकती है.
गीताजी के उन्हीं श्लोकों को मूल में रखकर यहां ओंकार के विषय में कुछ कहने का साहस किया जा रहा है.
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इस ओम शब्द का महत्व गीता के इस श्लोक से भी पता चलता है कि अंतकाल में यदि मनुष्य के मुख से इसका उच्चारण भगवत्कृपा से हो जाए तो वह व्यक्ति परमगति को प्राप्त होता है. अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता है.
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।
(‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थ स्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है,वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है)
[श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ८श्लोक १३)]
अंतकाल में यह उच्चारण कितना कठिन है इसके बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं।।
मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्म में) अनेक प्रकार का साधन करते रहते हैं. जीवन पर्यन्त राम नाम का जप करते रहने पर भी अन्त काल में वे राम नाम का उच्चारण नहीं कर पाते हैं. जो भाग्यशाली ऐसा कर पाते हैं उनका अगला निवास राम का धाम होता है.इसमें कोई संदेह नहीं है.
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भगवान अपने बारे में घोषणा करते हैं
१.प्रणव: सर्ववेदेषु
{सम्पूर्ण वेदों में मैं प्रणव (ॐ कार) हूॅं.}
[श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोकांश ८)]
२. ब्रह्म के तीन नाम ॐ, तत्, सत् जो गीता में बताए गए हैं,में ॐ का स्थान पहला है.
निम्न श्लोकांश को देखा जा सकता है.
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।
(ॐ, तत् सत् -ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा गया है.)
[श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १७ श्लोकांश २३)]
३. तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप: क्रिया:।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता सततं ब्रह्मवादिनाम।।
इसलिए वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरूषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ दान और तपरुप क्रियाएं सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ की जाती है.
[श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १७ श्लोक २४)]
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स्वयं गीता के योगरूपी प्रत्येक अध्याय की समाप्ति
‘ॐ तत्सदिति’ के साथ होती है.
यह भी ध्यान देने योग्य है.अस्तु.
हरि:ॐ तत् सत् .
राजीव रंजन प्रभाकर
२१.०४.२०२४.
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