साधन चतुष्टय

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, उपरोक्त का आशय चार साधनों के समूह से है. ये कौन से साधन हैं जो मनुष्य को बन्धन से मुक्त करते हैं-इसे आचार्य शंकर ने स्वरचित ग्रंथ 'विवेक-चूड़ामणि' में बताया है.
ऐसे आत्मचिंतक जो स्वयं को बंधन से मुक्त करने का प्रयत्न कर रहे हों, के लिए ये लाभदायक हो सकता है.
   ये सबों का अनुभव है कि कोई बन्धन पसंद नहीं करता. कुछ बंधन ऐसे होते हैं जो सहज हीं दीख जाते हैं तो कुछ चिंतन करने पर मालूम पड़ते हैं कि अरे ये बंधन तो जबरदस्त है जो छूटे न छूट रहा है. ऐसे तो व्यक्ति जन्म लेने के साथ ही नाना प्रकार के बन्धनों से बंध जाता है किन्तु जब जानबूझकर ऐसे कर्म में लिप्त हो जाय जो काम, क्रोध और लोभ से प्रेरित हो तो उस बन्धन का कहना हीं क्या! उसका अनुभव प्रायः तुरंत हीं होने लगता है और विकलता बढ़ती जाती है. अस्तु.
1. पहला साधन
     स्वयं को बन्धन से मुक्त करने का पहला साधन है-
                        "नित्यानित्यवस्तुविवेक"
आचार्य ने इसे इस तरह परिभाषित किया है-' ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही नित्यानित्यवस्तुविवेक कहलाता है.
साधारण शब्दों में हमें उस वस्तु में ही अपना आश्रय या विश्राम की खोज करना चाहिये जो 'कल' भी था 'आज' भी है और 'कल' भी रहेगा. अर्थात् जो "नित्य" है उसी से अपनी एकता जोड़नी चाहिये. क्या कोई बता सकता है जो संसार में ऐसा क्या है जो नित्य है; जब स्वयं संसार ही नित्य नहीं है तो संसार की वस्तुओं के नित्य होने का गुमान कैसा! एक सर्वशक्तिमान ईश्वर को छोड़ किसे नित्य माना जाय, इसे हीं तो ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं जो अनिर्वचनीय है.
2. दूसरा साधन
दूसरा साधन है वैराग्य. वैराग्य किसे कहेंगे? अनित्य पदार्थों के प्रति भोगाकर्षण की समाप्ति हीं वैराग्य है. आचार्य शंकर कहते हैं-
दर्शन और श्रवणादि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोकपर्यंत सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थों में जो घृणाबुद्धि है वही 'वैराग्य'है.
3. तीसरा साधन
तीसरा साधन है षट्सम्पत्ति का अर्जन.
आचार्य ने शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान को छः सम्पत्ति बताया है. जो स्वयं को बन्धन से मुक्त करना चाहता हो वह इन सम्पत्ति का अर्जन करे.
                      (१) शम-विषय समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना हीं ''शम'' है.
                      (२) ''दम''- कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने गोलकों में स्थित करना 'दम' कहलाता है.
                      (३) 'उपरति'-वृत्ति का बाह्य विषयों  का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है.
                       (४)''तितिक्षा''-चिंता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों का सहन करना '' तितिक्षा'' कहलाती है.
                       (५) '' श्रद्धा''-शास्त्र और गुरूवाक्यों में सत्यत्व बुद्धि करना - इसी को सज्जनों ने 'श्रद्धा' कहा है, जिससे कि वस्तु की प्राप्ति होती है.
                       (६) '' समाधान ''-अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को 'समाधान' कहा है. चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है.
4. चौथा साधन
चौथा साधन है  "मुमुक्षता" अर्थात् बन्धन से मुक्त होने की इच्छा. जब तक बंधन से मुक्त होने की इच्छा का उदय नहीं होता उपरोक्त तीनों साधन अपने आप में मोक्ष दिलाने में असमर्थ होते हैं.
आचार्य शंकर के अनुसार
अहंकार से लेकर देहपर्यंत जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा हीं "मुमुक्षता" है.
यही "साधन चतुष्टय"है जिसे आचार्य शंकर ने मोक्षार्थी के लिए आवश्यक बताया है.
इत्यलम्.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१६.०८.२०२०.

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