न्याय के रूप में ख्यात कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्य
आम बोलचाल में तो नहीं किन्तु विद्वतमंडली में शास्त्रचर्चा के समय अपने तर्क के समर्थन में अथवा किसी विषय विशेष पर अपना आग्रह, समानता, दृष्टांत या निदर्शना हेतु कतिपय लोकरूढ़ नीतिवाक्य की सहायता ली जाती है।
ऐसे हीं कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्यों को पाठकों के प्रसंगानुकूल उपयोग के लिए संग्रह करके नीचे रखा गया है।
१. अंधचटकन्याय: जब अपात्र व्यक्ति को कुछ कीमती वस्तु अनायास प्राप्त हो जाता है तो हम सहसा हीं कह बैठते हैं - अंधे के हाथ बटेर लग गया। अंधचटकन्याय यही है।
२. अंधपरम्परान्याय:- जब लोग बिना विचारे दूसरों का अंधानुकरण करने लगते हैं।
३. अरूंधती दर्शनन्याय- ज्ञात से अज्ञात का पता लगाना।
४. अशोकवनिकान्याय- रावण ने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, परन्तु उसने और स्थानों को छोड़ इसी वाटिका में क्यों रक्खा, इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया जा सकता। अर्थात सारांश यह कि जब मनुष्य के पास किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं दिया जा सकता।
५. अश्मलोष्टन्याय- पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय - मिट्टी का ढेला रुई की अपेक्षा कठोर है परन्तु वही कठोरता मृदुता बदल जाती है जब हम उसकी तुलना पत्थर से करते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्ति बड़ा महत्वपूर्ण समझा जाता है जब उसकी तुलना उसकी अपेक्षा निचले दर्जे के व्यक्तियों से की जाती है, परन्तु यदि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर व्यक्तियों से तुलना की जाए तो वही महत्वपूर्ण व्यक्ति नगण्य बन जाता है।
६. कदंबकोरक(गोलक)न्याय - कदंब वृक्ष की कलियाँ साथ हीं खिल जाती है, अतः जहाँ उदय के साथ ही कार्य भी होने लगे, वहां इस न्याय का उपयोग करते हैं।
७. काकतालीयन्याय - कोई कौआ किसी वृक्ष की शाखा पर बैठा हीं हो तभी दुर्योगवश उपर से कुछ गिरे और कौआ अपने प्राणों से हाथ धो बैठे;ऐसी हठात उत्पन्न अनिष्टोत्पादक स्थिति की तुलना काकतालीयन्याय कहकर की जाती है। अर्थात जब कभी कोई घटना अप्रत्याशित रुप से अकस्मात् घटती है तब इसका उपयोग होता है।
८. काकदंतगवेषणन्याय - अर्थात कौवे के दांत ढूँढना - यह न्याय उस समय दृष्टांत के रुप में व्यवह्रृत होता है जब कोई व्यक्ति व्यर्थ, अलाभकारी अथवा असम्भव उद्योग कर रहा हो जिसका कोई फलाफल हीं न हो।
९. काकाक्षिगोलकन्याय - कौवे के सम्बंध में यह कहा गया है कि उसके एक हीं आंख होती है जिसे वह आवश्यकतानुसार एक गोलक से दूसरे गोलक में जा सकता है। इसका उपयोग उस समय होता है जब वाक्य में किसी शब्द या पदोच्चय का जो केवल एक ही बार प्रयोग होता हो।
१०. कूपयंत्रघटिकान्याय - इसका उपयोग सांसारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है जैसे रहट के चलते समय कुछ टिंडर तो पानी से भरे हुए ऊपर को जाते हैं, कुछ खाली हो रहे हैं, और कुछ बिल्कुल खाली होकर नीचे को जा रहे हैं।
११. घट्टकुटीप्रभातन्याय - एक गाड़ीवान चुंगी देना नहीं चाहता था, अतः वह ऊबड़-खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया, परन्तु दुर्भाग्यवश रात भर इधर-उधर घूमता रहा, जब पौ फटी तो देखता क्या है कि वह ठीक चुंगीघर के पास ही खड़ा है, विवश हो उसे चुंगी देनी पड़ी इसलिये जब कोई किसी को जानबूझकर टालना चाहता है, परन्तु उसी को करने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय इस न्याय का प्रयोग होता है।
१२. घुणाक्षरन्याय - किसी लकड़ी में घुन लग जाने से अथवा किसी पुस्तक में दीमक लग जाने से कुछ अक्षरों की आकृति से मिलते-जुलते चिन्ह अपने आप बन जाते हैं, अतः जब कोई कार्य अनायास या अकस्मात् हो जाता है तब इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
१३. दंडापूपन्याय - मान लीजिये एक हीं जगह डंडा और सुस्वादु पूप रक्खे हों और यदि कोई कहे डंडे को तो चूहे घसीट कर ले गये तो यह स्वतः मान लिया जाता है कि पुए को भी उन चूहों ने नहीं छोड़ा होगा। इसी तर्कसादृश्य को दंडापूपन्याय कहते हैं जब कोई वस्तु किसी अन्य के साथ इस सीमा तक संसक्त रहे कि एक के साथ कुछ घटित हुआ हो तो वही बात दूसरे पर भी स्वभावतः लागू मान लिया जाता है। यदि दूसरा इससे अप्रभावित रहे तो इसे आश्चर्य से हीं देखा जाता है।
१४. देहलीदीपन्याय - यह न्याय उस स्थिति में प्रयुक्त होता है जब जब एक वस्तु स्वयं की स्थितिमात्र से दो स्थलों पर समानरूप से उपयोगी पाया जाय जैसे कि दीपक के देहरी पर जलने मात्र से घर और बाहर दोनों ओर यह प्रकाश बिखेरता है।
१५. नृपनापितपुत्रन्याय - कहते हैं किसी राजा ने एक बार अपने सेवक नाई को कहा कि राज्यभर में जो सबसे सुंदर बालक हो उसे लेकर वह दरबार में उपस्थित हो। बेचारा नाई को सर्वत्र घूमने पर भी कोई सुंदर बालक नजर नहीं आया जिसे वह राजा के सम्मुख ला सके। थका हारा नाई जब अपने घर लौटा तो उसे अपना काला कलूटा पुत्र हीं दुनिया का सबसे सुंदर बालक लगा। उसने तत्काल अपने पुत्र को हीं लाकर राजा के दरबार में उपस्थित हुआ। राजा को उसे देख अत्यंत क्रोध आया परन्तु बुद्धिसम्पन्न नरेश ने पीछे महसूस किया कि कोई भी व्यक्ति को अपना हीं सन्तान सर्वप्रिय होता है, नाई के साथ भी यही हुआ। इसमें उसका कोई दोष नहीं। उसने उसे माफ कर दिया। इसे हीं नृपनापितन्याय के रूप में जाना जाता है।
१६. पंकप्रक्षालनन्याय - इस न्याय का दृष्टांत के लिए तब उपयोग किया जाता है जब व्यक्ति ऐसा सोचे कि कीचड़ में जाकर तब जो पैर धोना पड़े उससे तो अच्छा है कि भरसक कोशिश की जाय कि हम कीचड़ में प्रवेश हीं न करें। यही पंकप्रक्षालनन्याय हुआ जिसे अंग्रेज़ी में prevention is better than cure या सौ दुःखों की एक दवा परहेज कहकर अधिक समझ सकते हैं।
१७. पिष्टपेशनन्याय- एक हीं तथ्य या कथ्य को बार बार निरर्थक मथना या व्यर्थ का घुमा-फिराकर कहते रहना हीं पिष्टपेशनन्याय कहलाता है।
१८. बीजांकुरन्याय- जब एक की उत्पत्ति दूसरे से हो और दूसरे की उत्पत्ति भी विचारने पर पहले में भासे तो इस विचारधारा को बीजांकुरन्याय से निरूपित करते हैं। यह सही ही है कि अंकुर बीज से हीं उत्पन्न होते हैं और फिर अंकुर हीं बड़ा होकर पेड़ होता है जिसके फल से ही पुनः बीज निकलता है।
१९. लौहचुम्बकन्याय- जैसे लोहा अपनी प्रकृति के चलते स्वाभाविक रुप से चुम्बक से आकर्षित होता है ठीक उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से प्राकृतिक गुणों अथवा रुचि की समानता के कारण एक दूसरे के समीप आता है अन्यथा नहीं। अर्थात हमारी प्रकृति हीं हमें एक दूसरे के समीप लाती है। यही लौहचुम्बकन्याय है।
२०. वह्निधूमन्याय - अगर कहीं धुंआ नजर आये तो यह निष्कर्ष निकालना कि इसका हेतुरूप अग्नि भी समीप हीं होगा भले हीं वह तत्काल दृष्टिगोचर न हो। यही वह्निधूमन्याय कहलाता है।
२१. वृद्धकुमारीवाक्यन्याय- सामर्थ्यवान से इस प्रकार से बुद्धि से कुछ मांग लेना जिसमें एक हीं साथ विभिन्न इच्छित वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की मंशा दिखे, को वृद्धकुमारीवाक्यन्याय कहते हैं। याद कीजिए कैसे सती सावित्री ने यम से वरदान मांगने की आज्ञा पाकर अपने बुद्धिपूर्ण ढ़ंग से एक वाक्य में हीं अपने पति की आयु की प्राण रक्षा के साथ धन धान्य और पुत्र को भी वरदानस्वरुप प्राप्त कर लिया।
२२. शाखाचंद्रन्याय - जब बहुत दूर की चीज जो पास की किसी वस्तु से संसक्त प्रतीत हो तो उस पास की उस वस्तु की सहायता से उक्त दूर की चीज का निदर्शन कराने को शाखाचंद्रन्याय कहते हैं। जब हम गोद में लिये बच्चे को चांद दिखाने की कोशिश करते हैं तो कहते हैं वो देखो पेड़ की उस डाली पर! देखो उसके उपर चांद बैठा है! अर्थात, दूर चांद का दर्शन हम पास स्थित पेड़ की सहायता से करते हैं। यही शाखाचंद्रन्याय है।
२३. सिंहावलोकनन्याय - सिंह शिकार के क्रम में जब आगे बढ़ता जाता है तो वह समय समय पर पलट कर पीछे मुड़कर देखता है। इसे सिंहावलोकनन्याय कहते हैं जिसमें किसी कार्य को करने के क्रम में अब तक के किये गये कार्य पर हम दृष्टिपात करते हैं ताकि हम अपनी स्थिति को बेहतर आंक सकें। यह सिंहावलोकनन्याय है।
२४. सूचीकटाहन्याय - यदि किसी लुहार को सुई और कराही दोनों बनाने हो तो स्वाभाविक रूप से वह पहले सुई बनायेगा उसके बाद हीं कराही बनना शुरू करेगा। यह निष्कर्ष सूचीकटाहन्याय से निर्देशित है। हम पहले वही कार्य करते हैं जो अपेक्षाकृत सरल हो तथा जिसे करने में समय कम लगता हो। उसके बाद हीं अधिक श्रमसाध्य कार्य को हाथ में लेते हैं। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति है। सूचीकटाहन्याय यही कहता है।
२५. स्थूणानिखननन्याय - जब हम नींव डालते हैं तो भावी निर्माण को भरसक मजबूत बनाने के लिए खोदे गये नींव में गिट्टी, गारा, बालू कूटकर डालकर उसे पुख्ता करते हैं। उसी प्रकार अपने पक्ष को न्यायालय में मजबूती से रखने हेतु जब हम नाना साक्ष्य रुपी गवाह और दस्तावेज, तर्क वितर्क का आश्रय ले अपनी बात को साबित करने की चेष्टा करते हैं और अपने तरफ से कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते हैं। यह स्थूणानिखननन्याय है जिससे उपरोक्त वर्णित परिस्थिति परिभाषित या निरूपित होती है।
आशा है एक स्थल पर संग्रहित न्यायरूप में ख्यात उपरोक्त लोकनीतिवाक्य पाठकों को रुचि प्रदान कर सकेगा; हो सकता है वे इसे ज्ञानवर्धक भी पायें।
राजीव रंजन प्रभाकर.
०१.११.२०१९.
ऐसे हीं कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्यों को पाठकों के प्रसंगानुकूल उपयोग के लिए संग्रह करके नीचे रखा गया है।
१. अंधचटकन्याय: जब अपात्र व्यक्ति को कुछ कीमती वस्तु अनायास प्राप्त हो जाता है तो हम सहसा हीं कह बैठते हैं - अंधे के हाथ बटेर लग गया। अंधचटकन्याय यही है।
२. अंधपरम्परान्याय:- जब लोग बिना विचारे दूसरों का अंधानुकरण करने लगते हैं।
३. अरूंधती दर्शनन्याय- ज्ञात से अज्ञात का पता लगाना।
४. अशोकवनिकान्याय- रावण ने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, परन्तु उसने और स्थानों को छोड़ इसी वाटिका में क्यों रक्खा, इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया जा सकता। अर्थात सारांश यह कि जब मनुष्य के पास किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं दिया जा सकता।
५. अश्मलोष्टन्याय- पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय - मिट्टी का ढेला रुई की अपेक्षा कठोर है परन्तु वही कठोरता मृदुता बदल जाती है जब हम उसकी तुलना पत्थर से करते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्ति बड़ा महत्वपूर्ण समझा जाता है जब उसकी तुलना उसकी अपेक्षा निचले दर्जे के व्यक्तियों से की जाती है, परन्तु यदि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर व्यक्तियों से तुलना की जाए तो वही महत्वपूर्ण व्यक्ति नगण्य बन जाता है।
६. कदंबकोरक(गोलक)न्याय - कदंब वृक्ष की कलियाँ साथ हीं खिल जाती है, अतः जहाँ उदय के साथ ही कार्य भी होने लगे, वहां इस न्याय का उपयोग करते हैं।
७. काकतालीयन्याय - कोई कौआ किसी वृक्ष की शाखा पर बैठा हीं हो तभी दुर्योगवश उपर से कुछ गिरे और कौआ अपने प्राणों से हाथ धो बैठे;ऐसी हठात उत्पन्न अनिष्टोत्पादक स्थिति की तुलना काकतालीयन्याय कहकर की जाती है। अर्थात जब कभी कोई घटना अप्रत्याशित रुप से अकस्मात् घटती है तब इसका उपयोग होता है।
८. काकदंतगवेषणन्याय - अर्थात कौवे के दांत ढूँढना - यह न्याय उस समय दृष्टांत के रुप में व्यवह्रृत होता है जब कोई व्यक्ति व्यर्थ, अलाभकारी अथवा असम्भव उद्योग कर रहा हो जिसका कोई फलाफल हीं न हो।
९. काकाक्षिगोलकन्याय - कौवे के सम्बंध में यह कहा गया है कि उसके एक हीं आंख होती है जिसे वह आवश्यकतानुसार एक गोलक से दूसरे गोलक में जा सकता है। इसका उपयोग उस समय होता है जब वाक्य में किसी शब्द या पदोच्चय का जो केवल एक ही बार प्रयोग होता हो।
१०. कूपयंत्रघटिकान्याय - इसका उपयोग सांसारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है जैसे रहट के चलते समय कुछ टिंडर तो पानी से भरे हुए ऊपर को जाते हैं, कुछ खाली हो रहे हैं, और कुछ बिल्कुल खाली होकर नीचे को जा रहे हैं।
११. घट्टकुटीप्रभातन्याय - एक गाड़ीवान चुंगी देना नहीं चाहता था, अतः वह ऊबड़-खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया, परन्तु दुर्भाग्यवश रात भर इधर-उधर घूमता रहा, जब पौ फटी तो देखता क्या है कि वह ठीक चुंगीघर के पास ही खड़ा है, विवश हो उसे चुंगी देनी पड़ी इसलिये जब कोई किसी को जानबूझकर टालना चाहता है, परन्तु उसी को करने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय इस न्याय का प्रयोग होता है।
१२. घुणाक्षरन्याय - किसी लकड़ी में घुन लग जाने से अथवा किसी पुस्तक में दीमक लग जाने से कुछ अक्षरों की आकृति से मिलते-जुलते चिन्ह अपने आप बन जाते हैं, अतः जब कोई कार्य अनायास या अकस्मात् हो जाता है तब इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
१३. दंडापूपन्याय - मान लीजिये एक हीं जगह डंडा और सुस्वादु पूप रक्खे हों और यदि कोई कहे डंडे को तो चूहे घसीट कर ले गये तो यह स्वतः मान लिया जाता है कि पुए को भी उन चूहों ने नहीं छोड़ा होगा। इसी तर्कसादृश्य को दंडापूपन्याय कहते हैं जब कोई वस्तु किसी अन्य के साथ इस सीमा तक संसक्त रहे कि एक के साथ कुछ घटित हुआ हो तो वही बात दूसरे पर भी स्वभावतः लागू मान लिया जाता है। यदि दूसरा इससे अप्रभावित रहे तो इसे आश्चर्य से हीं देखा जाता है।
१४. देहलीदीपन्याय - यह न्याय उस स्थिति में प्रयुक्त होता है जब जब एक वस्तु स्वयं की स्थितिमात्र से दो स्थलों पर समानरूप से उपयोगी पाया जाय जैसे कि दीपक के देहरी पर जलने मात्र से घर और बाहर दोनों ओर यह प्रकाश बिखेरता है।
१५. नृपनापितपुत्रन्याय - कहते हैं किसी राजा ने एक बार अपने सेवक नाई को कहा कि राज्यभर में जो सबसे सुंदर बालक हो उसे लेकर वह दरबार में उपस्थित हो। बेचारा नाई को सर्वत्र घूमने पर भी कोई सुंदर बालक नजर नहीं आया जिसे वह राजा के सम्मुख ला सके। थका हारा नाई जब अपने घर लौटा तो उसे अपना काला कलूटा पुत्र हीं दुनिया का सबसे सुंदर बालक लगा। उसने तत्काल अपने पुत्र को हीं लाकर राजा के दरबार में उपस्थित हुआ। राजा को उसे देख अत्यंत क्रोध आया परन्तु बुद्धिसम्पन्न नरेश ने पीछे महसूस किया कि कोई भी व्यक्ति को अपना हीं सन्तान सर्वप्रिय होता है, नाई के साथ भी यही हुआ। इसमें उसका कोई दोष नहीं। उसने उसे माफ कर दिया। इसे हीं नृपनापितन्याय के रूप में जाना जाता है।
१६. पंकप्रक्षालनन्याय - इस न्याय का दृष्टांत के लिए तब उपयोग किया जाता है जब व्यक्ति ऐसा सोचे कि कीचड़ में जाकर तब जो पैर धोना पड़े उससे तो अच्छा है कि भरसक कोशिश की जाय कि हम कीचड़ में प्रवेश हीं न करें। यही पंकप्रक्षालनन्याय हुआ जिसे अंग्रेज़ी में prevention is better than cure या सौ दुःखों की एक दवा परहेज कहकर अधिक समझ सकते हैं।
१७. पिष्टपेशनन्याय- एक हीं तथ्य या कथ्य को बार बार निरर्थक मथना या व्यर्थ का घुमा-फिराकर कहते रहना हीं पिष्टपेशनन्याय कहलाता है।
१८. बीजांकुरन्याय- जब एक की उत्पत्ति दूसरे से हो और दूसरे की उत्पत्ति भी विचारने पर पहले में भासे तो इस विचारधारा को बीजांकुरन्याय से निरूपित करते हैं। यह सही ही है कि अंकुर बीज से हीं उत्पन्न होते हैं और फिर अंकुर हीं बड़ा होकर पेड़ होता है जिसके फल से ही पुनः बीज निकलता है।
१९. लौहचुम्बकन्याय- जैसे लोहा अपनी प्रकृति के चलते स्वाभाविक रुप से चुम्बक से आकर्षित होता है ठीक उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से प्राकृतिक गुणों अथवा रुचि की समानता के कारण एक दूसरे के समीप आता है अन्यथा नहीं। अर्थात हमारी प्रकृति हीं हमें एक दूसरे के समीप लाती है। यही लौहचुम्बकन्याय है।
२०. वह्निधूमन्याय - अगर कहीं धुंआ नजर आये तो यह निष्कर्ष निकालना कि इसका हेतुरूप अग्नि भी समीप हीं होगा भले हीं वह तत्काल दृष्टिगोचर न हो। यही वह्निधूमन्याय कहलाता है।
२१. वृद्धकुमारीवाक्यन्याय- सामर्थ्यवान से इस प्रकार से बुद्धि से कुछ मांग लेना जिसमें एक हीं साथ विभिन्न इच्छित वस्तुओं को प्राप्त कर लेने की मंशा दिखे, को वृद्धकुमारीवाक्यन्याय कहते हैं। याद कीजिए कैसे सती सावित्री ने यम से वरदान मांगने की आज्ञा पाकर अपने बुद्धिपूर्ण ढ़ंग से एक वाक्य में हीं अपने पति की आयु की प्राण रक्षा के साथ धन धान्य और पुत्र को भी वरदानस्वरुप प्राप्त कर लिया।
२२. शाखाचंद्रन्याय - जब बहुत दूर की चीज जो पास की किसी वस्तु से संसक्त प्रतीत हो तो उस पास की उस वस्तु की सहायता से उक्त दूर की चीज का निदर्शन कराने को शाखाचंद्रन्याय कहते हैं। जब हम गोद में लिये बच्चे को चांद दिखाने की कोशिश करते हैं तो कहते हैं वो देखो पेड़ की उस डाली पर! देखो उसके उपर चांद बैठा है! अर्थात, दूर चांद का दर्शन हम पास स्थित पेड़ की सहायता से करते हैं। यही शाखाचंद्रन्याय है।
२३. सिंहावलोकनन्याय - सिंह शिकार के क्रम में जब आगे बढ़ता जाता है तो वह समय समय पर पलट कर पीछे मुड़कर देखता है। इसे सिंहावलोकनन्याय कहते हैं जिसमें किसी कार्य को करने के क्रम में अब तक के किये गये कार्य पर हम दृष्टिपात करते हैं ताकि हम अपनी स्थिति को बेहतर आंक सकें। यह सिंहावलोकनन्याय है।
२४. सूचीकटाहन्याय - यदि किसी लुहार को सुई और कराही दोनों बनाने हो तो स्वाभाविक रूप से वह पहले सुई बनायेगा उसके बाद हीं कराही बनना शुरू करेगा। यह निष्कर्ष सूचीकटाहन्याय से निर्देशित है। हम पहले वही कार्य करते हैं जो अपेक्षाकृत सरल हो तथा जिसे करने में समय कम लगता हो। उसके बाद हीं अधिक श्रमसाध्य कार्य को हाथ में लेते हैं। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति है। सूचीकटाहन्याय यही कहता है।
२५. स्थूणानिखननन्याय - जब हम नींव डालते हैं तो भावी निर्माण को भरसक मजबूत बनाने के लिए खोदे गये नींव में गिट्टी, गारा, बालू कूटकर डालकर उसे पुख्ता करते हैं। उसी प्रकार अपने पक्ष को न्यायालय में मजबूती से रखने हेतु जब हम नाना साक्ष्य रुपी गवाह और दस्तावेज, तर्क वितर्क का आश्रय ले अपनी बात को साबित करने की चेष्टा करते हैं और अपने तरफ से कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते हैं। यह स्थूणानिखननन्याय है जिससे उपरोक्त वर्णित परिस्थिति परिभाषित या निरूपित होती है।
आशा है एक स्थल पर संग्रहित न्यायरूप में ख्यात उपरोक्त लोकनीतिवाक्य पाठकों को रुचि प्रदान कर सकेगा; हो सकता है वे इसे ज्ञानवर्धक भी पायें।
राजीव रंजन प्रभाकर.
०१.११.२०१९.
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