ईश्वर से मांगें तो क्या मांगे?
बड़ा हीं गम्भीर प्रश्न है। हमने अपने जीवन में इतनी आकांक्षाएं पाल रखी है कि हम भगवान् से सदैव कुछ न कुछ मांगते हीं रहते हैं। किसी को धन चाहिये तो किसी को आलीशान मकान तो कोई पुत्र के लिये हीं बीता जा रहा है। कोई भगवान् से परीक्षा में उत्तीर्ण होने की कामना लिये भगवान् के मंदिर में प्रवेश करता है तो कोई अपने शत्रु पर विजय पाने के लिए यज्ञ अनुष्ठान में लिप्त है। किसी को कुर्सी चाहिये तो किसी को व्यापार में मुनाफा। कोई नौकरी पाने के लिए ईश्वर के सामने झोली फैलाये हुआ है तो कोई बीमारी से आक्रांत हो भगवान् से उसे ठीक कर देने की प्रार्थना करता है। मतलब कि दाता के दरबार में सभी याचक हैं, किन्तु सभी की याचना भिन्न भिन्न है।
किसी भी इच्छा से - अनिच्छा से, लौकिक या पारलौकिक किसी भी लाभ के लिए एकमात्र भगवान् को हीं पुकारना चाहिए। क्योंकि एकमात्र श्रीभगवान हीं सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ सर्वैश्वर्यसम्पन्न होने के साथ स्वभाव से ही परम उदार और सबके परम सुह्रृद भी हैं।
परिपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - इन छः प्रकार की महान शक्तियों का नाम भग है। हेय गुण अर्थात प्राकृत गुणों के लेश से रहित परिपूर्ण ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज - ये भगवत्-शब्दवाच्य हैं। ऐश्वर्यादि छः प्रकार की महाशक्तियों से सम्पन्न सच्चिदानंदघनविग्रह हीं श्रीभगवान हैं। यही हैं जो किसी भी तरह की कामना की पूर्ति में अनायास हीं समर्थ हैं। इस जगत में एकमात्र भगवान् हीं हैं जो मांगने पर जो चाहें सो दे दें। देने में उनका कोई नुकसान भी नहीं होता, दूसरे का तो घट जाता है। किन्तु भगवान् की पूर्णता हीं ऐसी है कि जो सब कुछ दे देने पर उतनी हीं बनी रहती है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् ने कहा है, "अर्जुन! मनुष्यों में मुझे भजने की प्रवृत्ति के कारण चार हीं हैं। कोई मुझे अर्थ के लिये भजता है तो कोई कष्ट की निवृत्ति के लिये आर्त होकर तो कोई मुझे जानने की इच्छा से प्रेरित हो जिज्ञासु बन और कोई तो मुझे शुद्ध प्रेम के वशीभूत होकर। ये सभी मेरे हीं भक्त हैं जो क्रम से इस लोक में अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात प्रेमी कहलाते हैं।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ७/१६)
मेरा इसमें कोई विशेष आग्रह नहीं है कि भगवान् से हम क्या मांगे। जिसका हमें अभाव महसूस हो उसे कोई सर्वसमर्थ से मांगें तो इसमें आश्चर्य हीं क्या है? आश्चर्य या खेद इस बात का हो सकता है कि जब हम भगवान् के विग्रह के सम्मुख भी रहते हैं तो हम विभिन्न प्रकार की याचनाओं में हीं ध्यानमग्न रहते हैं। श्लोकों और मंत्रों को हीं आंखें मूंद बुदबुदाने में स्वयं को धन्य समझते हैं। हम उन कृपालु की छवि को पूजा-अर्चना-याचनाजन्य विभिन्न उद्योग में व्यस्त रह ठीक से निहारते भी नहीं है और समझते हैं कि हमने पूजा कर लिया। यही हमारी भूल है।
हमारा आग्रह मात्र इतना है कि मंगलमूर्ति के सम्मुख जाकर हम उन्हें निहारें, उनके मुखारविन्द को बार बार प्रसन्नता से देखें और आंखें खोलकर उन्हें प्रसन्न होने के लिये मनावें। बस इतना हीं पर्याप्त है। उनकी प्रसन्नता अगर प्राप्त हो गयी तो याचना की कोई गुंजाइश हीं कहां रह जाती है।वे तो अंतर्यामी हैं अर्थात यदि मांगना हो तो खुली आंखों से उनकी प्रसन्नता को मांगे।
किसी भी इच्छा से - अनिच्छा से, लौकिक या पारलौकिक किसी भी लाभ के लिए एकमात्र भगवान् को हीं पुकारना चाहिए। क्योंकि एकमात्र श्रीभगवान हीं सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ सर्वैश्वर्यसम्पन्न होने के साथ स्वभाव से ही परम उदार और सबके परम सुह्रृद भी हैं।
परिपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - इन छः प्रकार की महान शक्तियों का नाम भग है। हेय गुण अर्थात प्राकृत गुणों के लेश से रहित परिपूर्ण ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज - ये भगवत्-शब्दवाच्य हैं। ऐश्वर्यादि छः प्रकार की महाशक्तियों से सम्पन्न सच्चिदानंदघनविग्रह हीं श्रीभगवान हैं। यही हैं जो किसी भी तरह की कामना की पूर्ति में अनायास हीं समर्थ हैं। इस जगत में एकमात्र भगवान् हीं हैं जो मांगने पर जो चाहें सो दे दें। देने में उनका कोई नुकसान भी नहीं होता, दूसरे का तो घट जाता है। किन्तु भगवान् की पूर्णता हीं ऐसी है कि जो सब कुछ दे देने पर उतनी हीं बनी रहती है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् ने कहा है, "अर्जुन! मनुष्यों में मुझे भजने की प्रवृत्ति के कारण चार हीं हैं। कोई मुझे अर्थ के लिये भजता है तो कोई कष्ट की निवृत्ति के लिये आर्त होकर तो कोई मुझे जानने की इच्छा से प्रेरित हो जिज्ञासु बन और कोई तो मुझे शुद्ध प्रेम के वशीभूत होकर। ये सभी मेरे हीं भक्त हैं जो क्रम से इस लोक में अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात प्रेमी कहलाते हैं।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ७/१६)
मेरा इसमें कोई विशेष आग्रह नहीं है कि भगवान् से हम क्या मांगे। जिसका हमें अभाव महसूस हो उसे कोई सर्वसमर्थ से मांगें तो इसमें आश्चर्य हीं क्या है? आश्चर्य या खेद इस बात का हो सकता है कि जब हम भगवान् के विग्रह के सम्मुख भी रहते हैं तो हम विभिन्न प्रकार की याचनाओं में हीं ध्यानमग्न रहते हैं। श्लोकों और मंत्रों को हीं आंखें मूंद बुदबुदाने में स्वयं को धन्य समझते हैं। हम उन कृपालु की छवि को पूजा-अर्चना-याचनाजन्य विभिन्न उद्योग में व्यस्त रह ठीक से निहारते भी नहीं है और समझते हैं कि हमने पूजा कर लिया। यही हमारी भूल है।
हमारा आग्रह मात्र इतना है कि मंगलमूर्ति के सम्मुख जाकर हम उन्हें निहारें, उनके मुखारविन्द को बार बार प्रसन्नता से देखें और आंखें खोलकर उन्हें प्रसन्न होने के लिये मनावें। बस इतना हीं पर्याप्त है। उनकी प्रसन्नता अगर प्राप्त हो गयी तो याचना की कोई गुंजाइश हीं कहां रह जाती है।वे तो अंतर्यामी हैं अर्थात यदि मांगना हो तो खुली आंखों से उनकी प्रसन्नता को मांगे।
दूसरी बात यदि कोई मांगने की हो सकती है तो मेरे विचार से यह जरूर मांगा जा सकता है कि हे भगवन्! तूं मुझे ऐसा बना दे कि जब मेरे मन मस्तिष्क पर काम, क्रोध और लोभ-द्वेष का पहरा हो तो मेरे चाहने पर भी किसी का बुरा या नुकसान न हो सके. इससे मेरा अहंकार गलित होगा.
ये तो मेरा अपना मत है किन्तु भगवान् से क्या मांगा जाय इस सम्बंध में एक श्लोक को देखिये, सम्भव है इससे भगवान् के अतिरिक्त किसी दूसरे के समक्ष हाथ फैलाने का स्वभाव हीं नष्ट हो जाय।
अनायासेन मरणम विना दैन्येन जीवनम।
अंतकाले तव सान्निध्यं देहि मे परमेश्वरः।।
अर्थ स्पष्ट है - हे प्रभु! मृत्यु तो तय है किन्तु कृपा करके मुझे वही मृत्यु देना जो अनायास हो, जीवन मुझे वही देना जिससे मुझे अपने हीं जैसे हाड़ मांस वाले मनुष्य के सम्मुख दीन न होना पड़े और जब सांसे उखड़ रही हो तो तुम हीं मेरे समीप होना। बस इतना हीं।
राजीव रंजन प्रभाकर
१०.११.२०१९.
ये तो मेरा अपना मत है किन्तु भगवान् से क्या मांगा जाय इस सम्बंध में एक श्लोक को देखिये, सम्भव है इससे भगवान् के अतिरिक्त किसी दूसरे के समक्ष हाथ फैलाने का स्वभाव हीं नष्ट हो जाय।
अनायासेन मरणम विना दैन्येन जीवनम।
अंतकाले तव सान्निध्यं देहि मे परमेश्वरः।।
अर्थ स्पष्ट है - हे प्रभु! मृत्यु तो तय है किन्तु कृपा करके मुझे वही मृत्यु देना जो अनायास हो, जीवन मुझे वही देना जिससे मुझे अपने हीं जैसे हाड़ मांस वाले मनुष्य के सम्मुख दीन न होना पड़े और जब सांसे उखड़ रही हो तो तुम हीं मेरे समीप होना। बस इतना हीं।
राजीव रंजन प्रभाकर
१०.११.२०१९.
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