भावग्राही जनार्दनः
जीवनपर्यंत हम कुछ न कुछ करते हीं रहते हैं. यह भी सच है कि कुछ किये बिना रह भी नहीं सकते. प्राणयात्रा से लेकर शारीरिक यात्रा भी बिना कर्म किये असम्भव है. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि स्वार्थ से लेकर परमार्थ तक हमारी सारी गतिविधियां प्रायः स्वयं को केन्द्र में रखकर ही होती है.
किन्तु ईश्वर को हमारे इन कर्मों से कोई मतलब नहीं है. उनको यदि सरोकार है तो हमारी उन क्रियाओं के पीछे छुपे भाव से. वे ये भी नहीं देखते कि उन्हें भजने वाला मूरख है या विद्वान. वे तो केवल प्रेम देखते हैं, भावना देखते हैं,समर्पण देखते हैं.
तभी एक श्लोक है कि व्याकरणज्ञान से रहित कोई मूर्ख शुद्धश्रद्धाभावेन 'विष्णवे नमः' के बदले 'विष्णाय नमः' का भी पाठ करे तो फल की दृष्टि से कोई अंतर नहीं होगा; कारण भगवान् क्रियाग्राही हैं ही नहीं, वे तो भावग्राही ठहरे.
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयोः फलं तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः।।
वे तो इतने भावग्राही हैं कि प्रेमपूर्वक अर्पित पत्र, पुष्प, फल वा जल को खा तक लेते है. इसे देखने का न तो हममें सामर्थ्य है न हीं सारग्राहिणी-सूक्ष्मदर्शिणी बुद्धि.
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपह्रृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९/२६)
यदि हमारे कर्मों में लोकसंग्रह की दृष्टि में कोई दोष भी हो परन्तु भाव शुद्ध हो तो भगवान् उसे ग्रहण करने में क्षणमात्र भी देरी नहीं करते. जहाँ तक अशुद्धभाव से यदि कोई कर्म हो रहा है तो उसका फल भी व्यक्ति स्वयं ही भोगता है.
भूलवश वा अज्ञानतावश उत्पन्न कर्तव्यकर्म की त्रुटि से प्रभु को कोई मतलब नहीं. त्रुटिग्राही तो हम जैसे पामर हैं जिन्होंने अपने जीवन का ध्येय हीं परदोषदर्शन को बना रखा है. कोई कितना भी अच्छा काम करे हम तुरंत यह अन्वेषण करना शुरू कर देते हैं कि इसमें दोष कहां से ढूंढा जाय. अगर मन में पांडित्य का दम्भ है तो पहले ध्यान उच्चारण वा व्याकरण पर हीं जायेगा.
भाव की शुद्धि का अचूक उपाय भक्ति है. भक्ति को जीवन में उतारने के बहुत से साधन हैं. वैसे-वैसे साधन भी हैं जो अर्थसाध्य हैं, श्रमसाध्य हैं जो व्यक्ति को भगवान् की ओर उन्मुख करने की बजाय विमुख हीं करे! यदि अल्पआय एवं सीमित साधन के सहारे जीवनयापन करनेवाले को कहा जाय कि आप यज्ञ करो, दान करो, तीर्थ करो, ये करो, वो करो इत्यादि तो वह कदाचित् पशोपेश में पड़ जाय. इस अर्थाधारित भक्ति से भाव की शुद्धि हो जाय इसकी कोई गारंटी भी नहीं है. हाँ; कभी कभी दम्भ होने का अंदेशा जरूर है. भगवान् अर्जुन से कहते हैं
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशोमया।
दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६/१५)
हम धनवान हैं, जनवान हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान करेंगे, मौज करेंगे इत्यादि. हम सभी प्रायः कुछ इसी अज्ञान से मोहित हो आसुरीसम्पत्ति के अर्जन में मस्त होकर सत्कर्म(?) कर रहे हैं.
इस अज्ञानोत्पन्न मोह से दम्भ हो जाय तो क्या आश्चर्य? लेकिन कहने का यह मतलब भी नहीं लगाना चाहिये कि ऐसे वृहद्साधनसम्भव करण एवं उपादान से लैस पूजा- यज्ञ-यागयुक्त भक्ति निःश्रेय है. यह उनके लिये श्रेयस्कर जरूर है जो साधनसम्पन्न होने के साथ-साथ दम्भशून्य भी हैं.अस्तु.
इन उपरोक्त साधनों को यदि कोई बादकर भाव की शुद्धि जिनका अभीष्ट हो उनके लिये भगवान् स्वयं कहते हैं- तूं अपने सारे कर्मों को मेरे लिये हीं कर! मुझे अर्पित कर दे.
भगवान् कहते हैं- हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है,जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूष्व मदर्पणम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९/२७)
अब बताइए जब हम चलें या बैठें, जागें या सोयें, खायें या भूखे रहें, पूजा करें या पुस्तक पढ़ें, कमाये या खर्च करें आदि आदि हमारे सभी उद्योग जब उन्हीं सर्वेश्वर्यसम्पन्न, सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिमान को प्रसन्न करने के लिए हो फिर तो हमारा सम्पूर्ण जीवन हीं इस प्रकार भक्तिमय होकर भगवन्मय हो जायेगा. परन्तु विडम्बना देखिये कि इतना सस्ता और सुलभ साधन के रहते हुए भी हम वैसा न कर नानाविध साधनों के पीछे या तो दौड़ रहे हैं या अपने आप को आत्मानुसंधान में खपाये जा रहे हैं.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१६.०२.२०२०.
किन्तु ईश्वर को हमारे इन कर्मों से कोई मतलब नहीं है. उनको यदि सरोकार है तो हमारी उन क्रियाओं के पीछे छुपे भाव से. वे ये भी नहीं देखते कि उन्हें भजने वाला मूरख है या विद्वान. वे तो केवल प्रेम देखते हैं, भावना देखते हैं,समर्पण देखते हैं.
तभी एक श्लोक है कि व्याकरणज्ञान से रहित कोई मूर्ख शुद्धश्रद्धाभावेन 'विष्णवे नमः' के बदले 'विष्णाय नमः' का भी पाठ करे तो फल की दृष्टि से कोई अंतर नहीं होगा; कारण भगवान् क्रियाग्राही हैं ही नहीं, वे तो भावग्राही ठहरे.
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयोः फलं तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः।।
वे तो इतने भावग्राही हैं कि प्रेमपूर्वक अर्पित पत्र, पुष्प, फल वा जल को खा तक लेते है. इसे देखने का न तो हममें सामर्थ्य है न हीं सारग्राहिणी-सूक्ष्मदर्शिणी बुद्धि.
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपह्रृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९/२६)
यदि हमारे कर्मों में लोकसंग्रह की दृष्टि में कोई दोष भी हो परन्तु भाव शुद्ध हो तो भगवान् उसे ग्रहण करने में क्षणमात्र भी देरी नहीं करते. जहाँ तक अशुद्धभाव से यदि कोई कर्म हो रहा है तो उसका फल भी व्यक्ति स्वयं ही भोगता है.
भूलवश वा अज्ञानतावश उत्पन्न कर्तव्यकर्म की त्रुटि से प्रभु को कोई मतलब नहीं. त्रुटिग्राही तो हम जैसे पामर हैं जिन्होंने अपने जीवन का ध्येय हीं परदोषदर्शन को बना रखा है. कोई कितना भी अच्छा काम करे हम तुरंत यह अन्वेषण करना शुरू कर देते हैं कि इसमें दोष कहां से ढूंढा जाय. अगर मन में पांडित्य का दम्भ है तो पहले ध्यान उच्चारण वा व्याकरण पर हीं जायेगा.
भाव की शुद्धि का अचूक उपाय भक्ति है. भक्ति को जीवन में उतारने के बहुत से साधन हैं. वैसे-वैसे साधन भी हैं जो अर्थसाध्य हैं, श्रमसाध्य हैं जो व्यक्ति को भगवान् की ओर उन्मुख करने की बजाय विमुख हीं करे! यदि अल्पआय एवं सीमित साधन के सहारे जीवनयापन करनेवाले को कहा जाय कि आप यज्ञ करो, दान करो, तीर्थ करो, ये करो, वो करो इत्यादि तो वह कदाचित् पशोपेश में पड़ जाय. इस अर्थाधारित भक्ति से भाव की शुद्धि हो जाय इसकी कोई गारंटी भी नहीं है. हाँ; कभी कभी दम्भ होने का अंदेशा जरूर है. भगवान् अर्जुन से कहते हैं
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशोमया।
दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६/१५)
हम धनवान हैं, जनवान हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान करेंगे, मौज करेंगे इत्यादि. हम सभी प्रायः कुछ इसी अज्ञान से मोहित हो आसुरीसम्पत्ति के अर्जन में मस्त होकर सत्कर्म(?) कर रहे हैं.
इस अज्ञानोत्पन्न मोह से दम्भ हो जाय तो क्या आश्चर्य? लेकिन कहने का यह मतलब भी नहीं लगाना चाहिये कि ऐसे वृहद्साधनसम्भव करण एवं उपादान से लैस पूजा- यज्ञ-यागयुक्त भक्ति निःश्रेय है. यह उनके लिये श्रेयस्कर जरूर है जो साधनसम्पन्न होने के साथ-साथ दम्भशून्य भी हैं.अस्तु.
इन उपरोक्त साधनों को यदि कोई बादकर भाव की शुद्धि जिनका अभीष्ट हो उनके लिये भगवान् स्वयं कहते हैं- तूं अपने सारे कर्मों को मेरे लिये हीं कर! मुझे अर्पित कर दे.
भगवान् कहते हैं- हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है,जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूष्व मदर्पणम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९/२७)
अब बताइए जब हम चलें या बैठें, जागें या सोयें, खायें या भूखे रहें, पूजा करें या पुस्तक पढ़ें, कमाये या खर्च करें आदि आदि हमारे सभी उद्योग जब उन्हीं सर्वेश्वर्यसम्पन्न, सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिमान को प्रसन्न करने के लिए हो फिर तो हमारा सम्पूर्ण जीवन हीं इस प्रकार भक्तिमय होकर भगवन्मय हो जायेगा. परन्तु विडम्बना देखिये कि इतना सस्ता और सुलभ साधन के रहते हुए भी हम वैसा न कर नानाविध साधनों के पीछे या तो दौड़ रहे हैं या अपने आप को आत्मानुसंधान में खपाये जा रहे हैं.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१६.०२.२०२०.
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