भगवन्नाम की महिमा
आज के भौतिकतावादी युग में भी शायद हीं ऐसा कोई चेतन हिन्दू होगा जो कि ब्रह्मलोकवासी स्वनामधन्य पंडित मदनमोहन मालवीयजी एवं हनुमानप्रसादजी पोद्दार के नाम से कम से कम परिचित न हो।
हनुमानप्रसादजी ने स्वयं के महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी से भगवन्नाम की महिमा के बारे जो ग्रहण किया उसी प्रसंग की यहाँ चर्चा करते हैं। इस प्रसंग का उल्लेख 'कल्याण' पत्रिका के बोधकथा-अंक जो सद्यः प्रकाशित है, में किया गया है। हनुमानप्रसादजी कल्याण पत्रिका के आदि सम्पादक रहे हैं।
हनुमानप्रसादजी कहते हैं -
"महामना से मेरा सम्पर्क १९०६ से जो आरम्भ हुआ वह उत्तरोत्तर इतना प्रगाढ़ होता चला गया कि महामना मालवीयजी मुझे पुत्रवत देखते और मैं भी उन्हें पंडितजी के बदले बाबूजी कह कर हीं पुकारता। सम्बंध अब पूरी तरह पिता पुत्र का हीं था।
एक दिन मालवीयजी गोरखपुर किसी कार्य से आये। उनका मेरे प्रति यह स्नेह हीं था जो वे गोरखपुर प्रवास के दो तीन दिन मेरे घर रहे। जिस दिन वे मेरे घर से प्रस्थान करनेवाले थे, की सुबह वे कुर्सी पर बैठे थे और मैं उनके चरणों में नीचे बैठा था। कोई कुछ नहीं बोल रहा था।
अचानक उन्होंने मुझसे कहा, 'हनुमानप्रसाद! मैं तुम्हें एक दुर्लभ एवं बहुमूल्य वस्तु देना चाहता हूँ। मैंने इसको अपनी माता से वरदान के रूप में प्राप्त किया था। बड़ी अद्भुत वस्तु है। किसी को आजतक नहीं दी तुझे देना चाहता हूँ। देखने में चीज छोटी दीखेगी पर है महान, विलक्षण और चमत्कारिक।'
वे इस तरह लगभग आधे घंटे तक उस वस्तु की महिमा पर बोले जा रहे थे और इधर मेरी जिज्ञासा अधीरता में परिवर्तित होती जा रही थी।
मैंने और निकट आकर कहा-बाबूजी! जल्दी कीजिए कोई आ जायेगा।
वे बोले-हनुमानप्रसाद! कोई पैंतालीस वर्ष पहले की बात है जब मैं एक छोटा बालक था। मैंने अपनी माता से कहा था-मां! मुझे कुछ ऐसा बताओ कि मैं अपने किसी काम में असफल न होने पाऊं! मेरी माँ कुछ क्षण के लिए मौन हो गयी और मुझे निहारते हुए मेरे सिर पर हाथ फेरते बोली, 'बेटा! मैं तुम्हें एक मंत्र देती हूँ। तूं जब भी कोई कार्य शुरू कर तो मन हीं मन दो बार नारायण-नारायण का उच्चारण करते हुए उस कार्य को हाथ में ले। बेटा! मेरी बात तूं यदि मानकर श्रद्धापूर्वक ऐसा करेगा तो तू जो भी कार्य करेगा उसमें तुझे निश्चित हीं सफलता प्राप्त होगी।
मालवीयजी पुनः गद्गदवाणी से बोले- हनुमानप्रसाद! मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ मैं तब हीं किसी कार्य में असफल रहा जब-जब मैने देखा कि मेरे से प्रमादवश इस नारायण महामंत्र की कार्यारंभ में भूलवश उपेक्षा हो गई।"
हनुमानप्रसादजी आगे कहते हैं- मालवीयजी द्वारा बताए इस प्रसंग का मेरे जीवन में इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि तब से मैने भी उनसे वरदानरुप में प्राप्त उस दुर्लभ वस्तु को गांठ बांध इससे बेशुमार लाभ उठाया है जिसे वर्णन करना मेरे वश की बात नहीं है।
ये है भगवन्नाम की महिमा जिसकी झलक बहुत थोड़े में इस प्रसंग से मिलती है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
१०.०२.२०२०.
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