हनुमत् चर्चा
आज हनुमान जयंती है. इसलिए आज हनुमत् चर्चा हीं प्रस्तुत लेखन का अभीष्ट है.
*******************************************************
आज जिसके पास जो गुण है या जो कुछ अच्छा है,वह उसी को प्रदर्शित करने में-दिखाने में बीता जा रहा है.
देखने में यही आ रहा है कि
A۔जिसके पास power है वह बात-बात में अपने power का अहसास कराने हेतु अधीर रहता है.
आफिसर के श्रीमुख से बात-बात पर यही निकलता है –मैं तुम्हें बरबाद कर दूंगा, तुरंत सस्पेंड कर दूंगा, एफआइआर लाॅज करवा दूंगा आदि आदि.
B-ज्ञान का दंभ भरने वाले दूसरे को अल्पबुद्धि इशारे से या अपने हाव-भाव से कहते नहीं थकता है कि देखो तुम कितने बेअक्ल हो या तुम चीजों को ठीक से नहीं जानते इत्यादि.
C۔किसी के पास कोई कला है तो उसे प्रदर्शित किए बिना नहीं रह सकता.
मतलब कि जिसके पास जो है वह उसी को भजाने-भुनाने की युक्ति में लगा हुआ है. हद तो तब है जब इसे भुनाने-भजाने में वह दम्भ,कपट और पाखंड का सहारा लेकर उसे हासिल करना चाहता है जिसका कि वह पात्र नहीं है.
अस्तु.
*******************************************************
लेकिन हनूमान का चरित्र इसके सर्वथा विपरीत है.
गुणनिधि होते हुए भी उन्होंने कभी अपने बल एवं बुद्धि एवं अन्य सद्गुणों का प्रदर्शन नहीं किया.
उन्होंने वही किया जिसकी उस समय आवश्यकता थी.
जो भी हनुमत चरित्र में दंभ,कपट और पाखंड को खोजेंगे उन्हें घोर निराशा हाथ लगेगी.
*******************************************************
१.जब सिंधु तट पर सभी वानर समुद्रोल्लंघन की अक्षमता का परिचय देते हुए विलाप कर रहे थे उस समय भी धीर हनुमान चुप साधे एक तरफ बैठे हुए थे.
उन्होंने अपने मन से कभी नहीं उछल कर कहा कि मैं तो इसे अनायास हीं लांघ सकता हूॅं.
तभी जामवंतजी को कहना पड़ा-
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
सभी जानते हैं कि सीता के खोजने के लिए सुग्रीव प्रेषित दल में हनूमान को हीं प्रभु श्रीराम ने अपनी अंगूठी सौंपीं थी.
इससे पता चलता है कि वह हनूमान हीं थे जिनपर श्रीराम को भरोसा था कि वे कार्य सिद्ध करके हीं आएंगे.
परिणाम सबके सामने था.
पर्वत मैनाक कहता रह गया कि हनुमान मेरे उपर बैठ कर थोड़ा विश्राम कर लो किंतु हनुमान ने ‘राम काज किन्हें बिनु मोहि कहाॅं विश्राम’ कह मैनाक के उस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया तथा समुद्र को एक हीं कूद (single leap) में लांघ लंका पहुंच स्वर्णपुरी लंका को उलट-पलट कर जला डाला और सीता का पता लगा कर प्रभु श्रीराम को सीता के जीवित होने का शुभ संवाद सुनाया.
तभी तो प्रभु श्रीराम को हनुमान के लिए कहना पड़ा-
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।देखेउॅं करि बिचार मन माहीं।।
भगवान श्रीराम ने स्वयं को हनुमान का ऋणी बताया है; लेकिन हनुमान का चरित्र देखिए कि प्रभु श्रीराम के ये वचन सुनकर प्रेमाकुल हो त्राहि त्राहि कर रोने लगे.
‘चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत’
२. हनुमान से मिलन का अर्थ है सम्पूर्ण समस्या का समाधान.
(i)ये हनुमान हीं थे जिसने सुग्रीव को राम से मित्रता कराई. हनुमान का संग पाकर वह सुग्रीव जो राजा होते हुए बालि के भय से पर्वत-पर्वत मारा-मारा फिरता था,अपने खोए राज्य को पुनः प्राप्त करने में सफल हो सका.
इतने के बावजूद हनुमान को कोई अहंकार नहीं; न हीं इस एवज में सुग्रीव से कोई अपेक्षा.
(ii)ये हनुमान हीं थे जिन्होंने सुग्रीव से श्रीराम की मैत्री कराकर सुग्रीव की वानरी सेना लंका विजय हेतु प्रभु श्रीराम के लिए उपलब्ध कराया.
(iii) ये हनुमान हीं थे जिन्होंने विभीषण को राम के शरणागत होने में मौन होकर मदद की वरना जामवंत एवं सुग्रीव सहित राम सेना के सभी वीर तो विभीषण का विरोध हीं कर रहे थे जब रावणपदलुंठित विभीषण प्रभु श्रीराम का आश्रय पाने के लिए प्रार्थी मुद्रा में सिंधु तट पर पहुॅंचा था.
परिणाम सामने था —वह विभीषण जो कभी रावण से आंख से आंख मिलाकर बात तक नहीं कर सकता था, उसे राम ने 'लंकेश' संबोधित करते हुए सिंधुनीर से राज्याभिषेक कर विभीषण को वास्तव में लंकेश बना दिया.
(iv) ये हनुमान हीं थे जिन्होंने युद्ध में वीरघातिनी शक्ति से अचेत हुए लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लाकर दिया चाहे इसके लिए उन्हें पहाड़ हीं उखाड़ कर क्यों न लाना पड़े और मार्ग में कालनेमी जैसे कपटी-मायावी से दो चार हाथ क्यों न करना पड़े.
राम सहित सभी बानर प्रशंसा में हनुमान-हनुमान कर रहे हैं लेकिन हनुमान चुपचाप अपने प्रभु के स्मरण में लीन.
(v)जिसने भी हनुमान से छल करने का प्रयास किया वह असफल रहा चाहे वह कालनेमी हो,लंकिनी हो सुरसा हो,जो हो.
हनुमान न प्रपंची थे,न हीं कपटी. जो सच्चे अर्थों में वीर होता है वह न तो कपटी हो सकता है न हीं प्रपंची. बल्कि सभी प्रपंच हनुमान की छाया मात्र के संसर्ग में विलीन हो जाता है.
४. हनुमान राम से संवाद का माध्यम भी हैं-
प्रभु श्रीराम का आशीर्वाद पाने के लिए हनुमान एक अमोघ माध्यम हैं. चूॅंकि राम रसायन हनुमान के पास हीं है और किसी के पास नहीं इसलिए राम बिना हनुमान की सिफारिश के प्रसन्न नहीं होते क्योंकि प्रभु श्रीराम के अनन्य सेवक हनुमान हीं हैं और कोई नहीं.
राम दुआरे तुम रखवाले
होत न आज्ञा बिनु पैसारे
अयोध्या लौट जब राम राजा बने तो सभी भाई हनुमान को हीं माध्यम बना कर कुछ प्रभु से पूछते थे.
क्योंकि वे जानते थे कि हनुमान से भगवान का प्रेम सभी भाईयों से बढ़ कर था. सभी भाईयों में भरत से प्रभु श्रीराम का प्रेम अधिक था.
एक समय फुलवारी में भाईयों सहित श्रीराम जब बैठे थे तो श्रीराम के मुख से संत-असंत सम्बंधी भेद को जानने की जिज्ञासा की शांति हेतु भरत ने हनुमान का हीं निहोरा किया.
तब हनुमान ने श्री राम से कहा-
नाथ भरत कछु पूॅंछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।
हनुमान के प्रति अपने प्रेम का वर्णन श्रीराम इस प्रकार करते हैं-
तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई
पुनः दूसरी जगह एक प्रसंग में हनुमान के प्रति यह चौपाई है-
सुनु कपि जियॅं मानसि जनि ऊना।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना।।
प्रभु श्रीराम इसकी घोषणा स्वयं कर चुके थे-
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतेहुॅं ते मोहि अधिक पिआरे।।
५. हनुमान से मिलन का अर्थ है -शुभ संवाद की प्राप्ति
(अ ) ये हनुमान हीं थे जिन्होंने अयोध्या के नंदीग्राम में तपस्या कर रहे भरत को लंका विजय के पश्चात प्रभु श्रीराम के अयोध्या आगमन का शुभ समाचार सुनाया.
हनुमान ने न केवल प्रभु श्रीराम को अपना ऋणी बनाया बल्कि प्रभु श्रीराम के अयोध्या आगमन का भरत को शुभ समाचार सुनाकर भरत को भी ऋणी बना दिया.
अपने प्रभु के अयोध्या आगमन का शुभ समाचार सुन विह्वल भरत बोलते हैं-
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि विचार देखेउॅं कछु ना हीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तो ही।अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।
(आ) ये हनुमान हीं थे जिन्होंने माता सीता को अशोक वाटिका में मिलकर न केवल प्रभु श्रीराम की कुशलता का संवाद सुनाया बल्कि संकट की उस घड़ी में माता सीता को धीरज और ढ़ाढस बंधाया.
इस पर माता सीता इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने हनुमान अजर अमर होने का वरदान दे दिया.
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुॅं बहुत रघुनायक छोहू।।
यह माता सीता का हीं वरदान है जिससे हनुमान सभी युगों के एक जीवित देवता माने जाते हैं.
बुढ़ापा और मृत्यु दोनों हीं हनुमान को नहीं छू सकता. ये माता सीता का उन्हें मिले वरदान का हीं प्रभाव है.
यही नहीं माता सीता को रावण वध कर लंका विजय का शुभ समाचार भी पहली बार हनुमान ने हीं सुनाया.
इस पर माता सीता पुनः इतनी प्रसन्न हुई कि उन्होंने हनुमान से कहा - हे पुत्र! तुम्हारे इस शुभ संवाद के समान मेरे लिए तीनों लोकों में और कुछ नहीं है. हे पुत्र! समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और लक्ष्मण सहित कोसलपति प्रभु सदा तुम पर प्रसन्न रहें.
सुनु सुत सद्गुण सकल तव हृदयॅं बसहुॅं हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुॅं समेत अनंत।।
अब बताइए जिन्हें माता सीता अपना पुत्र माने और अजर-अमर-गुणनिधि और समस्त सद्गुणों के स्वामी होने का दो-दो बार आशीर्वाद प्रदान की हों, वे हनुमान यदि ऐसे हैं तो इसमें क्या आश्चर्य!
अनेक दृष्टांत हैं, सभी का वर्णन असम्भव है.
यह उसी तरह है जैसे रात्रि में तारों को गिनने का प्रयास.
हनुमान को स्वयं के लिए कुछ भी नहीं चाहिए था.
उनका समस्त बल,बुद्धि,शील,चातुर्य,वीरता,वीरता दूसरों को सुख पहुंचाने या संकट से उबारने के लिए था.
कभी उन्होंने अपने गुणनिधि होने का कोई प्रदर्शन नहीं किया.
उन गुणों का उन्होंने उपयोग तभी किया गया जब इसकी आवश्यकता उपस्थित हुई.
आइए हनुमान जी से प्रार्थना करें कि वे अपने गुणों का सूक्ष्मांश हीं,सही हमें भी प्रदान करें.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२३.०४.२०२४
(हनुमत् जयंती)
Comments