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Oh Indian Railway! You Are Uniquely Great.

Oh Indian Railway! You Are Uniquely Great. **************************************************** I suppose myself to be perfunctory religious whose concern for religion is more theoretical than practical. It is so because my religiosity in popular terms is mostly limited to reading books of religion. The fact is that I read more and more to follow less and less. But my wife is exactly the opposite. Contrary to my disposition;she reads less but is inclined to do more such things as could make anyone truly religious.  **************************************************** Anyway, my wife said to me that it has been a long time since she went to Devghar-Baidyanath Dham.Towards fulfilment of this joint wish of ours I got tickets booked to journey by train.  **************************************************** Heigh ho! Train after train was being set on fire by the youth(?) of India. Violence,arson,incendiary were at their demoniac display on platforms as if theft,creating filth and...

एक पिता की दुविधा

एक पिता की दुविधा. **************************************************** यह एक कहानी है जिसे मुझे एक महानुभाव ने सुनाया है.उसी को मैंने लिखा है; पढ़िए,शायद अच्छी लगे. **************************************************** पुराने जमाने की बात है.एक आदमी था; बहुत सीधा-साधा. ठाकुरजी में गहरी आस्था. पत्नी का देहांत हो चुका था.अब उसके सिर्फ दो बेटियां हीं थीं.दोनों को वह बहुत प्यार करता था. दोनों को उसने कुछ ज्यादा तो नहीं पढ़ाया बाॅंकि अच्छे संस्कार देने की कोशिश जरूर की.  बेटियों के बड़े होने पर उसने उनकी शादी कर दी.एक की शादी उसने मिट्टी के बरतन बनाने वाले से की तो दूसरे की खेती करने वाले से.       दोनों बेटियां ससुराल में अपने-अपने घर बहुत खुश थीं. दोनों के पति काफ़ी मेहनती तो थे हीं; वे दोनों अपनी पत्नी को भी अपनेतया बहुत खुश रखते थे और पत्नी अपने पति को खुश रखते हुए अपनी-अपनी गृहस्थी को अच्छे से सम्हाल रही थीं.  वह आदमी जब बेटियों के ससुराल के गाॅंववालों से अपने दोनों बेटियों और दामाद की ता'रीफ़ सुनता तो उसे मन हीं मन बहुत ख़ुशी मिलती. वह आदमी बहुत हीं संतुष्...

मनुष्य का भाग्य.

आस्ते भग आसीनस्य ऊर्ध्वं तिष्ठति तिष्ठत: । शेते निपद्यमानस्य चरति चरतो भग: ॥                                                        (ऐतरेय ब्राह्मण) *********************************************** The fortune or luck of a person is closely related to his action. *********************************************** The above shloka seeks to emphasize the above proposition by saying that your fortune literally happens to sit so long as you sit idle.              It rises the moment you stand up to proceed. A man sleeping has his fortune also sleeping along with him.            The luck of a man moving also moves accordingly.             In other words God helps one who helps oneself. *********************************************** जो मनुष्य (कुछ काम किए बिना) बै...

गंगापुत्र भीष्म की स्वीकारोक्ति.

गंगापुत्र भीष्म की स्वीकारोक्ति **************************************************** कतिपय हेरफेर अर्थात् तथ्यगत त्रुटि के साथ नीचे कुछ लिखने का साहस कर रहा हूं. **************************************************** पितामह भीष्म शरशैय्या पर पड़े थे. पांडवों के विरुद्ध लड़ने के बावजूद पांडवों को उनके प्रति तनिक भी क्लेश नहीं था. उनके लिए वह वही पितामह थे जिनके गोद में खेल-कूद कर वे बड़े हुए थे. पितामह भीष्म भी भले हीं युद्ध में कौरवों के तरफ से लड़े थे किन्तु युद्धभूमि से इतर पांडवों के लिए भी वही प्यारे पितामह थे.  यह तो हम सभी जानते हैं कि भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था. युद्ध में धराशायी पितामह के लिए महाभारत का युद्ध देखने की उनकी इच्छा के निमित्त उनके लिए आरामदायक शैय्या के प्रबंध हेतु दुर्योधन जब मखमली गद्दे का शीघ्रता से प्रबंध करने हेतु डांट-डांट कर अपने भृत्यों को हलकान किए जा रहा था तो पितामह ने अर्जुन को पास आने का इशारा किया.  अर्जुन तत्काल उनकी भावना को समझ ग‌ए और तत्क्षण उन्होंने पितामह के शरीर को बाणों से बेधकर उनके लिए शरशैय्या का निर्माण कर दिया. अर्ज...

चल गई-चल गई.

चल गई- चल गई. *********************************************** प्रसंग बहुत हीं रोचक है तथा संदेश से भरपूर. इस प्रसंग का वर्णन "कल्याण" पत्रिका के आदि सम्पादक स्वनामधन्य हनुमान प्रसादजी पोद्दार द्वारा किया गया है. उनके एक प्रवचन जो कभी किसी सज्जन द्वारा सर्वजनहिताय रिकार्ड कर लिया गया था, में जब मैंने सुना तो अपने शब्दों में इसे लिखे बिना नहीं रहा गया.         स्नेही एवं सुह्रद जन उन्हें "भाईजी" के नाम से सम्बोधित करते थे.बहुसंख्य हिंदू को उनके बारे में जानकारी पर्याप्त नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि बहुसंख्य हिंदू हीं नहीं बल्कि अन्य धर्मावलंबी भी उनके नाम से अनभिज्ञ नहीं हैं. उनके बारे में वर्तमान जनमानस में अपर्याप्त जानकारी का हेतु क्या है यह शोध का विषय है. ********************************************** सचमुच संत की वाणी जिस किसी भी रूप में प्राप्त होती है अपने समीपस्थ को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती. उनकी वाणी के श्रवणमात्र से लाभ होता है; चिंतन और अनुशीलन करने पर तो बात हीं क्या है. ********************************************** भाईजी कहते हैं कि- कहानी मेर...

हनुमान प्रसादजी पोद्दार-भाईजी.

कल्याण पत्रिका के आदि सम्पादक हनुमान प्रसाद जी पोद्दार *********************************************  हनुमान प्रसाद पोद्दार कल्याण पत्रिका के आदि सम्पादक थे. मेरी ऐसी धारणा है शायद हीं कोई ऐसा भारतीय होगा जो इस कल्याण पत्रिका के नाम से परिचित न हो. सनातन धर्म प्रेमियों के बीच यह पत्रिका देश से लेकर विदेशों तक में अपनी अमिट पहचान कायम किए है. यही एकमात्र ऐसी पत्रिका है जिसमें किसी तरह का कोई विज्ञापन कोई नहीं छपवा सकता है चाहे इसके लिए वह कितना भी मूल्य भुगतान करने को तैयार हो. ऐसा अमल इस पत्रिका के प्रकाशन के समय वर्ष १९२६ ईस्वी से हीं चल रहा है जो महात्मा गांधी के सुझाव से उद्भूत था.         स्नेही एवं सुह्रद जन हनुमानप्रसादजी को  "भाईजी" के नाम से सम्बोधित करते थे.बहुसंख्य हिंदू की उनके बारे में जानकारी पर्याप्त नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि बहुसंख्य हिंदू हीं नहीं बल्कि अन्य धर्मावलंबी भी उनके नाम से अनभिज्ञ नहीं हैं. उनके बारे में वर्तमान जनमानस में अपर्याप्त जानकारी का हेतु क्या है यह शोध का विषय है किन्तु इतना सत्य है कि सनातन धर्म,संस्कृति की जिस प...

An Individual Amidst The Vortex of Relationships

         An Individual Amidst The Vortex of Relationships **************************************************** Relations in the world are as old as the civilization itself.  A number of relationships are formed just by simply taking birth.            One thereby instantly becomes either son or daughter or the father- mother-aunt-uncle of the child so born. As one grows up this relationship also goes on multiplying.  That is why Rousseau said- Man is born free but everywhere he is in chains. ****************************************************                During the period spent as student by an individual yet a new relation comes to exist in the form of teacher- student relationship. Side by side develops yet another relationship called that of friendship.  ****************************************************        When the study of an individual comes t...

ईमानदारी की समीक्षा.

स्थल- केन्द्रीय सचिवालय का केंटीन समय- लंच टाइम. *********************************************** एक ओडरली(अपने साहब का बखान अपने सहकर्मियों के बीच)- हमर साहब बहुतै ईमानदार हैं. घूस-घास से कोसों दूर. हम तो क‌ई बार देखे हैं उ जौन फाइल में कोनो प‌इसा कौड़ी वाला मामला रहता है उनको तुरंतै पता चल जाता है;उ न तुरंत अपने स्टेनो को कह देते हैं-जो देखो जी कोई लालच में नहीं आना है; नहीं तो फिर समझ लेना कोई शिक़ायत अगर मिला तो तुम्हारी खैर नहीं होगी.  दूसरा ओडरली- छोड़िए-छोड़िए ज्यादा बोलिए मत. हम न जानते हैं का आपके साहब को? अरे हम उनके साथ भी रहे हैं जब उ फलनवां डिपाट में थे. हुंए से न उ आपके विभाग में आये हैं. माने कि पैसा कौड़ी लेने का शिकायत नहीं है; बांकि हैं पक्का जातिवादी. खोज-खोज के अपन जाति के लोगन के मदद पहुंचाते हैं. एकरे आप ईमानदारी कहते हैं. एक बार तो कौन दो परचेज के ठेका भी उ अपन जाते भाई के दे दिहिन थे जे पर एल वन वाला ढ़ेर हल्ला-गुल्ला मचैले था विभाग में; बोल रहा था टेंडर मैनेज कर अपन जात के ठीका को दे दिया गया.  एकरे आप ईमानदारी कहते हैं जी? पहला- लीजिए इ कोनो बात हुआ. अ...

भारतीय संस्कृति और संस्कार

  हमारी सभ्यता,संस्कृति और संस्कार किसी महासागर से कम नहीं. कोई भी इसका वर्णन नहीं कर सकता न हीं इसका थाह पा सकता है बल्कि युक्ति के सहारे मात्र इसकी झांकी प्राप्त की जा सकती है. *********************************************** इसी झांकी के साक्षी बने महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोबिंद के पैत्रिक गांव परौंख(जिला -कानपुर देहात; उ.प्र.)के लोग और उनके साथ-साथ प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से समस्त भारतीय सहित सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय जब उन्होंने देखा कि राष्ट्र के प्रथम नागरिक श्री रामनाथ कोबिंद ने मानवनिर्मित प्रोटोकॉल को तोड़ सनातन संस्कृति निर्मित प्रोटोकॉल के वशीभूत होकर अपने गांव परौंख पहुंचे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की खुद अगवानी की.  ये है भारतीय सनातन संस्कृति और संस्कार! यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय संस्कार और संस्कृति को नियमों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. वरना एक राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की अगवानी भला क्यों करें? भगवद्गीता में भगवान ने कहा है- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचर...

हनुमान चालीसा

हनुमान चालीसा **************************************************** भारत वर्ष में ऐसा कौन अभागा होगा जो हनुमान चालीसा के बारे में नहीं सुना हो? बल्कि मेरी तो ऐसी धारणा है कि प्रत्येक हिन्दू ने कभी न कभी अपने जीवन में इसे अवश्य पढ़ा है और अधिकांश को तो यह चालीसा पूर्णरूपेण नहीं तो कम से कम अधिकांश मे याद अवश्य है; और इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है.            आज के इस घोर भोगपरायण वातावरण में भी हनुमानजी के प्रति आस्था में रंचमात्र कमी नहीं देखी जा रही है और यह हनुमानचालीसा हीं है जो इस आस्था के प्रकटीकरण का अपरिहार्य एवं प्रायः एकमेव साधन है.             क्या स्त्री क्या पुरुष, क्या बालक क्या बालिका;क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा; क्या मूर्ख क्या पंडित;क्या आस्तिक क्या नास्तिक; क्या आसक्त क्या विरक्त; क्या भोगी क्या योगी; क्या अभक्त क्या भक्त;क्या आर्त क्या अर्थार्थी क्या जिज्ञासु क्या ज्ञानी ; क्या वैष्णव क्या शैव क्या शाक्त; क्या नैष्ठिक क्या उपकुर्वाण; क्या गृहस्थ क्या संन्यासी सभी ने कभी न कभी हनुमान चालीसा अवश्य सुन...

Is Mind Matter of Investment? Oh! Yes.

तस्मात् केनाप्युपायेन मन: कृष्णे निवेशयेत्. (The Srimadbhagwat 7/1/31) *********************************************** इसलिए चाहे कोई सा भी उपाय से हो, हम अपने मन का निवेश श्रीकृष्ण में हीं करें. *********************************************** Therefore, by any means whatsoever; let our mind remain invested only in remembering  Lord SriKrishna- THE ONE WHO DOES EVERYTHING WITHOUT DOING ANYTHING. *********************************************** भावानुवाद: राजीव रंजन प्रभाकर २८.०५.२०२२.

मैं भी केवट तूं भी केवट.(जिद----खेवैया केवट का श्रीराम से)

मैं भी केवट तूॅं भी केवट.                               (जिद---खेवैया केवट का श्रीराम से) ***************************************************          कुछ अपनी ओर से लगा-बझा कर लिखने का प्रयत्न किया हूं; अरूचिकर या अतार्किक लगे तो क्षमा कर दीजीएगा. ***************************************************  श्रीराम- भाई केवट! हमें पिता की आज्ञा पालन में वन को जाना है; तुम्हारा सहयोग चाहिए. अपनी नाव से हमलोगों को देवसरि के उस पार उतार दो भाई. केवट- वो तो सब ठीक है, किंतु हे सर्वप्रिय राम! मैंने एक बात जो आपके बारे सुन रखी है उससे मुझे घबराहट हो रही है और आप कहते हो कि अपनी नाव से पार उतार दो.     (श्रीराम के मुखमंडल पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान का आगमन होता है) श्रीराम- क्या बात सुनी है मेरे बारे में मेरे भाई? मैं कुछ समझ नहीं पाया जरा बुझाकर कहो. केवट- बात ये है कि मैं ठहरा एक गरीब नाविक. कुल मिलाकर एक यही नाव मेरी सम्पत्ति है. इसी नाव से मेरे समूचे परिवार का गुजर बसर होता है. ...

एकटा रहय इलबा.

एकटा रहय इलबा *********************************************** आय भोरे में रोशन के फोन आयल छल. बहुतो साल सऽ ओ आब बम्ब‌ई में रहैत ये. दू तीन मास पर कखनो कऽ ओ फोन हमरा अवश्य करैत ये. बम्ब‌ई में ओटो रिक्शा चलाबै ये. ओकर बिवाह सेहो भऽ गेल छै. जखन ओ फोन हमरा करैत ये ओ कहैत जे सर! एक बेर बम्ब‌ई आबू. सौंसे बम्बई हम अहां आउर दीदी के अपन टेम्पू पर बैसा कऽ घूमा देब. हम कहैत छी-हंऽ-हंऽ अवश्य. हम एक दिन जरूर बम्बई जेबौ तोरा संऽ भेंट करै के हमरो बड़ मोन करैत ये आ तोहर दीदी के तूं प्रायः याद अबैत रहैत छी. **************************************************** रोशन!-आय से प्रायः बाइस बरस पहिने एक दस-बारह बरिसऽक बालक. ओकर गाम आ घर ओतेह जतऽ हमर पत्नीक जन्मस्थली. बलाॅक'क पोस्टिंग बुझिते छी तखन केहन-केहन बन खंड में होयत छल. हमरा पोस्टिंग सेहो तेहने सन जगह में होयत रहै जतऽ हम बुझैत छी जे केओ आबैय ले नै चाहैत. कहै ले तऽ ब्लाॅक किंतु न ढंग के आवागमन'क साधन नै बिजली; बूझू जे घोर असुविधा. हमर पत्नी के तहिया बड़ खौंझ होय; प्रायः कहथिन एते टा कम्पीटीशन पास कऽ के लोक के अहि सब तरहक जगह पर नोकरी करै आबय पड़ै...

The Ramcharitmanas and the Bhagwadgita.

The Ramcharitmanas and the Bhagwadgita- The two together constitutes the treasury of knowledge, wisdom, devotion and many more that I can't even visualise. Imbibing the two provides one with a valid ticket to the journey of THIS WORLD which is full of trials and tribulations. Not only that; If life after death is a fact not fiction, it serves as a passport to the safe  travel to THAT WORLD also. I unmistakeably believe that so long as the Ramcharitmanas and the Bhagwadgita will continue to inform our lives we shall always be able to navigate ourselves to emerge out of the quagmire which, generally speaking, is more or less creation of our own. ***********************************************Whether it is knowledge or wisdom or devotion or understanding or whatever you seek out of it; both are equally great.  However some hold that while The Ramcharitmanas suits those very well who are less accomplished academically.  The Manas equips them with the "Bhakti" which needs no q...

The Bhagwadgita -- Explaining Relationship Amongst Body & Its Organs; Mind & Intellect.

Let's take refuge in the following verse that is in Chapter III of the this Text.  इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।।  Bodily Organs( इन्द्रियाणि ) [Action Organs (कर्मेन्द्रिय) +Sense Organs( ज्ञानेन्द्रिय )] > Body itself (स्थूल शरीर) [Body = A lump of Mass having no value in/by itself.]                             ***** Mind (मन) > Any or all Organs of the Body (कोई सा भी कर्मेंद्रिय या ज्ञानेन्द्रिय या फिर उसका कोई सा भी समुच्चय)                            ***** Intellect ( बुद्धि ) > Mind( मन ) Mind doesn't care for means & result whereas Intellect always takes into account what are the means and what may be the result of giving honour to what the mind says.                            ***** ...

प्रतियोगिता परीक्षाएं:तब और अब.

प्रतियोगिता परीक्षाएं: तब और अब. ************************************************ मुझे याद है कि जब हमारे समय में कोई परीक्षा होती थीं तो ये इतने तामझाम से आयोजित न होने के बावजूद स्वच्छता से सम्पन्न होती थीं.  सिविल सेवा परीक्षाओं में पर्चा लीक होना तब कोई सोच भी नहीं सकता था. आज स्थिति इसके ठीक उलट है. आज जब भी कोई परीक्षा होती है तो पहला सवाल जेहन में यही आता है कि पहले पता करो कि कहीं किसी जगह से पेपर तो नहीं "आउट" या वायरल हुआ है!                        परीक्षा पूर्व दंडाधिकारी एवं केंद्राधीक्षकों की लम्बी ब्रीफिंग-गो कि परीक्षार्थी को क्या लेकर परीक्षा भवन में जाना है, क्या नहीं ले जाना है; यहां तक कि परीक्षार्थी को क्या पहन कर परीक्षा भवन में पर्चा लिखना है, के मुतल्लिक विशेष हिदायत मिलती है.  मैंने तो ये भी देखा है कि बाज इम्तिहान में केंडिडेट को नंगे पांव एवं बिना आस्तीन के कमीज/कुर्ती पहन कर आने की हीं हिदायत रहती है. अलावे इसके बायोमेट्रिक, परीक्षा केंद्रों पर जैमर का अधिष्ठान, प्रश्नपत्रों के क‌ई-क‌ई सेट, ...

Where the mind is without fear.

Where the mind is without fear *********************************************** आज ०७. म‌ई है. कविन्द्र रविन्द्र की जन्मतिथि.  उनकी एक लोकप्रसिद्ध कविता है " Where the mind is without fear.." जो काफी लोकप्रिय है.  ये कविता मेरी इंटरमीडिएट की अंग्रेजी वाली एक पतली-सी किताब में थी जिसे उस समय मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए पढ़ना जरूरी था.  उस समय तो समझ उतनी नहीं थी जितनी कदाचित आज है किन्तु ये कविता बताने के लिए पर्याप्त है कि गुरूदेव के लिए स्वतंत्रता के क्या मायने हैं.  निश्चित रूप से "स्वतंत्रता" उनके लिए राष्ट्र संसीमित न थी बल्कि यह ज्ञान और तर्क सिंचित एक ऐसी वैश्विक भूमि पर वास करना था जिसके वासी आपस की हर एक ऐसी दीवार को ध्वस्त कर सकें जो भौगौलिक एवं अन्य संकुचित संकीर्णताओं की ईंट से निर्मित हों. *********************************************** कविता इस तरह है- Where the mind is without fear And the head is held high; Where knowledge is free;  Where the world has not been broken up Into fragments by narrow domestic walls; Where words come out from t...

Doing a Thing?

To do a Thing:                  for self-satisfaction - It's ideal.                  for remuneration - it's good.                  for appreciation - it's still not bad.                                 But Doing a thing for mere validation/approval ? It is like knowingly belittling our true worth.                 It's the worst of all choices that are before us. ***********************************************                                 And  Doing an act  subject to  Adjudicatation  by others in the system is nothing but losing control over oneself, I feel. R.R.Prabhakar. 07.05.2022.

Human Intelligence expressed as a function of FINITE KNOWN & INFINITE UNKNOWN.

Human Intelligence ~ f(Finite Known/Infinite Unknown) ************************************************* Expansion in the domain of finite known gives an impression of greater human intelligence. But the other aspect is human intelligence has also to do with infinite unknown. Taking help of Science the more you expand the domain of Numerator the more becomes the size of the Denominator.  **Because the Denominator, in result, also expands;not only automatically but exponentially also.  **Because the "PART" can't see the "FULL". ** Because the reality is comparable to a serpent with the tail in its mouth as if it were swallowing itself in its efforts to grasp the "ALL". DENOMINATOR is THAT "FULL" which is SIMPLY UNDECAYABLE,UNFATHOMABLE AND IMMEASURABLE.                                  (अक्षय.) ************************************************* We forget that unlike simple mathematics here the Nu...

The Events That Will Never Fail Me To Forget.

The Events That Will Never Fail Me to Forget *********************************************** At my native place Saharsa my eldest brother died a fortnight ago.Courses of events prior to His death were such as if He had chosen to breath his last at his native place. As to why I am led to suppose this is because until a few hours ago He was with us at Patna.  Notwithstanding some health issues he became subject to accidentally,His sudden demise was a thought I could not have imagined. Upon hearing the news that he is no more I had to rush from Patna to Saharsa. I was fortunate enough to shoulder the mortal remains of "His" throughout the way to the place where it was to be consigned to flame. **************************************************** But the events after His death were no less interesting. Rather I will call it Self-Instructing in the least if not enlightening.For no one is or can never be- A Buddha:An Enlightened One.  ***********************************************...