गंगापुत्र भीष्म की स्वीकारोक्ति.
गंगापुत्र भीष्म की स्वीकारोक्ति
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कतिपय हेरफेर अर्थात् तथ्यगत त्रुटि के साथ नीचे कुछ लिखने का साहस कर रहा हूं.
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पितामह भीष्म शरशैय्या पर पड़े थे. पांडवों के विरुद्ध लड़ने के बावजूद पांडवों को उनके प्रति तनिक भी क्लेश नहीं था. उनके लिए वह वही पितामह थे जिनके गोद में खेल-कूद कर वे बड़े हुए थे. पितामह भीष्म भी भले हीं युद्ध में कौरवों के तरफ से लड़े थे किन्तु युद्धभूमि से इतर पांडवों के लिए भी वही प्यारे पितामह थे.
यह तो हम सभी जानते हैं कि भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था. युद्ध में धराशायी पितामह के लिए महाभारत का युद्ध देखने की उनकी इच्छा के निमित्त उनके लिए आरामदायक शैय्या के प्रबंध हेतु दुर्योधन जब मखमली गद्दे का शीघ्रता से प्रबंध करने हेतु डांट-डांट कर अपने भृत्यों को हलकान किए जा रहा था तो पितामह ने अर्जुन को पास आने का इशारा किया.
अर्जुन तत्काल उनकी भावना को समझ गए और तत्क्षण उन्होंने पितामह के शरीर को बाणों से बेधकर उनके लिए शरशैय्या का निर्माण कर दिया. अर्जुन ने गलती यह कर दी कि उसने जो बाणरूपी बिस्तर तैयार किया उसमें पितामह के सिर को बाणों से बचाकर हीं उक्त शैय्या को तैयार किया.
ऐसा कदाचित यह सोच कर अर्जुन ने किया कि सिर को बाणों से बेधना ठीक नहीं है,लोग या फिर पितामह हीं कहीं इसका बुरा न मान जाएं.
फिर दुर्योधन सहित कौरव पक्ष के सभी योद्धा भी इस कौतुक को देख रहे थे किन्तु पितामह की इसमें सम्मति देख वे चुप थे. पितामह लड़ भले कौरव की तरफ से थे किन्तु यह कहां असत्य था कि वे पितामह तो कौरवों और पांडवों दोनों के हीं थे?
इस नाते पितामह की सेवा करने का दोनों को समान अधिकार था.
मस्तक को छोड़ मात्र शरीर के शेष भाग को बाणों से बेधकर तैयार किए इस बिछावन पर पितामह के लेटने का परिणाम यह हुआ कि पितामह का सिर नीचे की तरफ लटक गया.
यह देख दुर्योधन ने पुनः अपने इर्द-गिर्द खड़े सेवकों को डांटते हुए कहा- मूर्खों! देखते नहीं पितामह की गर्दन नीचे की ओर लटक गई है. फौरन मोटा मखमली मसनद महल से दौड़ कर ले आओ.
सेवक आदेश के पालन में बेतहाशा दौड़े. यह देख पितामह मुस्कुराये और फिर अर्जुन को उन्होंने इशारे से अपने पास बुलाया और उनकी तरफ अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा.
अर्जुन समझ गए. उन्होंने पितामह के मस्तक को हीं बाणों से बिंध उस बाणरूपी तकिए पर पितामह के मस्तक को उच्चस्थ कर दिया.
फिर पितामह को प्यास का अनुभव हुआ तो उन्होंने "जल" पीने की इच्छा जताई. इतना सुनते हीं दुर्योधन ने अपने सेवकों को फिर दुत्कारा-अब खड़े-खड़े देख क्या रहे हो;जा हमारे रथ में रखा जल का कलश तो लेता आ.देखते नहीं पितामह को प्यास लगी है?
कौरव पक्षीय सैनिक एक बार फिर जल के लिए दौड़ पड़े.
पितामह ने फिर अर्जुन को देखा- अर्जुन ने वहीं जहां पितामह का सिर था,के पार्श्व में धरती में ऐसा बाण चलाया कि देवनदी की धार कुरूक्षेत्र की धरती से फूट पड़ी जो सीधा गांगेय भीष्म के तृषित मुख में अनायास हीं प्रवेश कर रहीं थी.
**************************************************** ये सब लिखने का उद्देश्य वह नहीं है जो मैंने उपर लिखा है. लिखने की बात ये है कि प्रतिदिन युद्ध समाप्त होने पर पांडव पांचों भाई द्रोपदी सहित शरशैय्या पर पड़े पितामह की सेवा में प्रस्तुत होकर उनसे जीवनोपयोगी शिक्षा ग्रहण करते थे. तब पांडवों के साथ कृष्ण भी रहते थे जो युद्ध में कहने के लिए तो सारथी थे लेकिन यथार्थ में सबकुछ वही थे. पांडव और कौरव तो उस युद्ध के पात्र मात्र थे. यह बात भीष्म जानते थे कि कृष्ण यथार्थ में भगवान हैं किंतु केशव इसे अपने मुख से स्वीकारते हीं नहीं थे. ये अलग बात है कि समय- समय पर उन्होंने इसका अहसास जरूर कराना चाहा किन्तु मदान्ध और दम्भी कौरव अपने अतिरिक्त किसी और को क्यों तरजीह दे!
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एक दिन की बात है शरशैय्या पर पड़े पितामह पांडवों को दिव्य उपदेश दे रहे थे. पांडव पांचों भाई नीचे भूमि पर बैठ पितामह की शिक्षाप्रद बातें सुनते थे.द्रोपदी भी उनके साथ भूमि पर बैठ सिर आदर के साथ नीचे कर पितामह की ज्ञान की बातें सुनतीं थीं.
अचानक द्रोपदी को पितामह की कोई बात सुन कर हल्की सी हंसी आ गई.
द्रोपदी की यह हंसी पितामह से छुपी न रह सकी.
उन्होंने द्रोपदी से पूछा- बेटी! तुम क्यों हंसी? मैं कुछ समझ नहीं पाया.
द्रोपदी ने कहा- नहीं दादा जी; बस ऐसे हीं, कोई बात नहीं थी.
पितामह ने कहा- जहां तक मेरी मान्यता है भले घर की कुलीन स्त्री कभी अकारण नहीं हंसती है. तुम जरूर मुझसे कुछ छिपाना चाहती हो.इसलिए तुम ऐसा कह रही हो कि "कोई बात नहीं". बेटी मैं तुम्हारे हंसने का कारण जानना चाहता हूं.
तब द्रौपदी ने कहा- दादाजी! हो सकता है आपको कारण जानकर बुरा लगे. इसलिए मैं कहना नहीं चाहती.
भीष्म बोले- ऐसी कोई बात का मुझे अब क्या बुरा लग सकता है जब कि मैं अपने जीवन की अंतिम घड़ी गिन रहा हूं. बेटी! तुम नि:संकोच बताओ.
द्रोपदी ने कहा- पितामह! अभी जो आप ज्ञान और नीति की इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह रहे हैं सो उस समय आपका ज्ञान और विवेक कहां लुप्त हो गया था जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने को ये कौरव उतारू थे. क्या आप भूल गए कि मैं आपके पैरों पर गिर कर रो-रोकर अपनी लज्जा की रक्षा हेतु भीख मांगती रही और आप चुपचाप निरपेक्ष भाव से बैठे रहे. मेरी तरफ देख भी नहीं रहे थे. क्या उस समय आपको नीति का ज्ञान नहीं था?
पांडवों ने देखा कि पितामह के आंखों से टप-टप आंसू बह रहे थे.
यह देख युधिष्ठिर ने द्रोपदी को सरोष कहा- कृष्णे! इस समय तुम्हें ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए. तुम ये सब प्रसंग उठा कर पितामह से शिक्षा प्राप्ति में हीं स्वयं हीं बाधक बन रही हो. तुम्हें यह भी ख्याल करना चाहिए कि यह समय पितामह के प्रयाण काल का है और ऐसे समय में भी वे अपने शिक्षारूपी आशीर्वचन से हमें कृतार्थ हीं कर रहे हैं.
भीष्म बोले- बेटा युधिष्ठिर! तुम द्रोपदी को मत रोको. वह ठीक कह रही है. मैं इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में था.अभी जो मैं इसका कारण बताउंगा वह रंचमात्र भी असत्य नहीं है क्योंकि व्यक्ति अपने मृत्युकाल में झूठ बोल हीं नहीं सकता.
भीष्म भींगे नेत्रों से द्रोपदी को लक्ष्य कर कहने लगे- बेटी! तुमने जो कहा,वह बिल्कुल सही है.ऐसी बात नहीं थी कि यह ज्ञान मुझे उस समय नहीं था. लेकिन मेरा यह ज्ञान दुर्योधन के अधीन होकर निस्तेज हो चुका था क्योंकि मैं दुर्योधन का अन्न खा रहा था. आज दुर्योधन का अन्न से पोषित मेरे शरीर का वह खून महाभारत के इस युद्ध और अर्जुन द्वारा तैयार इस शरशैय्या के बाणों से निकल चुका है. अब मेरा वह ज्ञान अपने वास्तविक स्वरूपरूप को प्राप्त कर चुका है.
इसी का परिणाम है कि मैं आज उसी ज्ञान को तुमलोगों के समक्ष निर्लेप होकर प्रस्तुत कर पा रहा हूं.
इसे समझाओ केशव!जो तुमने युद्ध के आरंभ में अर्जुन को कहा था-
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।
बेटी द्रोपदी! भले हीं मैं पितामह के रूप में हस्तिनापुर में प्रतिष्ठित था किन्तु सत्य यह है कि मैं हस्तिनापुर के अधीन दुर्योधन का प्रतिपाल्य हो चुका था जिसकी वीरता और विवेक दुर्योधन के संकेत से संचालित थी.
बेटी!मेरा ज्ञान दुर्योधन ने अपने अन्न से ढंक दिया था.
बेटी! क्या तुम नहीं जानती कि खाता है मुंह और लजाती है आंखें. यही कारण है कि मैं उस समय तुमसे आंख मिलाने का भी साहस नहीं कर पा रहा था. और तुम कहती हो कि पितामह आप उस समय मेरी करूण क्रंदन की उपेक्षा कर मेरी ओर देख भी नहीं रहे थे.
बेटी! व्यक्ति जैसा और जिसका अन्न खाता है उसकी बुद्धि भी तद्रूप हो जाती है चाहे वह ज्ञानी हो, मूर्ख हो, पंडित हो,वीर हो,धीर हो जो हो.
युधिष्ठिर! आज की शिक्षा यही है कि
व्यक्ति को यह जरूर देखना चाहिए कि यथाशक्य वह ऐसे व्यक्ति की रोटी (आतिथ्य) भी स्वीकार न करे जिसने उस रोटी को अन्याय, बेईमानी और हकमारी वाले चूल्हे पर तैयार किया हो. इसके दूरगामी नतीजे भोगने होते हैं.
व्यक्ति जैसा अन्न खाता है उसका स्वभाव भी वैसा ही हो जाता है. अन्यायोपार्जित दूषित अन्न खाने से व्यक्ति का स्वयं का तेज और शौर्य जाता रहता है.उसके आत्मबल का नाश हो जाता है. मेरे विरोध करने की शक्ति को हस्तिनापुर के अन्न ने क्षीण कर दिया था.
युधिष्ठिर! महाभारत के युद्ध का दोषी दुनिया चाहे जिसे कहे किंतु इस युद्ध का ultimate दोषी मैं स्वयं को मानता हूं जिसके सामने अन्याय होता रहा और वह इसे देखता हीं नहीं रहा बल्कि युद्ध में कौरवों के पक्ष में शामिल होकर उस अन्याय का साथ भी दिया.
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ऐसा कह महाबलशाली,महाप्रतापी भीष्म का मुखमंडल प्रसन्न और परमशांति को प्राप्त हो गया.उनके प्राणों की ज्योति केशव के मुख में समा गई.
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अगर कोई महात्मा भी दूषित अन्न खा ले तो जब तक वह अन्न उसके पेट में रहता है उसकी बुद्धि दूषित रहती है एवं मन अहैतुकी विकार से भर जाता है-ऐसा किसी महात्मा ने अपने अनुभव में मुझे बताया.
महात्मा जी ने आगे यह बताया कि उस "रोटी" को दूषित मानना चाहिए जिसके बारे में पता चल गया हो या विश्वास हो गया हो कि वह ऐसे धन से उद्भूत है जो धन किसी से छीनकर, किसी को ठगकर, किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर या बेईमानी से या हकमारी से या जबरदस्ती से या किसी प्रपंच से अर्जित किया गया हो.
यथासंभव ऐसी रोटी खाने और खिलाने से बचना चाहिए.
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अपने अनुभव से भी मैंने जाना है कि यदि आप पर किसी का अहसान है तो आप उस व्यक्ति की प्रायः हर सही-गलत बात में हां में हां मिलाने को मजबूर हो जाते हैं या नहीं तो कम से कम मौन हीं धारण कर उसके कार्यों में अपनी सम्मति देते रहते हैं. यही तो पितामह भीष्म ने किया था.
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वास्तव में पंच परमेश्वर के "अलगू चौधरी" बनने का साहस वही कर सकते हैं जो किसी के अहसान तले दबे नहीं हैं.
राजीव रंजन प्रभाकर
२०.०६.२०२२.
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