चल गई-चल गई.
चल गई- चल गई.
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प्रसंग बहुत हीं रोचक है तथा संदेश से भरपूर.
इस प्रसंग का वर्णन "कल्याण" पत्रिका के आदि सम्पादक स्वनामधन्य हनुमान प्रसादजी पोद्दार द्वारा किया गया है. उनके एक प्रवचन जो कभी किसी सज्जन द्वारा सर्वजनहिताय रिकार्ड कर लिया गया था, में जब मैंने सुना तो अपने शब्दों में इसे लिखे बिना नहीं रहा गया.
स्नेही एवं सुह्रद जन उन्हें "भाईजी" के नाम से सम्बोधित करते थे.बहुसंख्य हिंदू को उनके बारे में जानकारी पर्याप्त नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि बहुसंख्य हिंदू हीं नहीं बल्कि अन्य धर्मावलंबी भी उनके नाम से अनभिज्ञ नहीं हैं. उनके बारे में वर्तमान जनमानस में अपर्याप्त जानकारी का हेतु क्या है यह शोध का विषय है.
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सचमुच संत की वाणी जिस किसी भी रूप में प्राप्त होती है अपने समीपस्थ को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती. उनकी वाणी के श्रवणमात्र से लाभ होता है; चिंतन और अनुशीलन करने पर तो बात हीं क्या है.
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भाईजी कहते हैं कि-
कहानी मेरठ की है.प्रसंग यों है कि एक लड़के के पास कहीं से एक चवन्नी मिल गई थी. लेकिन वो जो चवन्नी थी वह खोटी थी. जब भी लड़का उस चवन्नी से कुछ खरीदने की कोशिश करता दुकानदार उसे खोटे चवन्नी को देख कुछ देने से मना कर देता; नतीजतन लड़के को खरीदी गई मिठाई या कुछ और, उसे दुकानदार को वापस कर देना पड़ता. लड़का मन मसोस कर रह जाता.
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एक बार की बात है. शहर का माहौल पहले से ही कुछ तनावपूर्ण था; वजह दो समुदायों के बीच किसी बात को लेकर झगड़ा रहा होगा.
किन्तु लड़के को उससे क्या! लड़के ने फिर उस चवन्नी को चलाना चाहा और बाजार की ओर निकल पड़ा. शाम होने के चलते बाजार में अच्छी खासी भीड़ थी.लड़के ने मिठाई की दुकान से एक सेर जलेबी खरीदी और बदले में वही चवन्नी दुकानदार को दिया. दुकान में भीड़ रहने के चलते दुकानदार ने चवन्नी के खोटे होने की ओर ध्यान हीं नहीं दिया और झटपट उसे गल्ले में डाल दूसरे ग्राहक के लिए मिठाई तौलने में व्यस्त हो गया.
चवन्नी के इस तरह चल जाने से लड़का इतना खुश हुआ कि वह बाजार में खुशी के मारे दौड़ता हुआ जोर-जोर से चिल्लाने लगा- "चल गई-चल गई-चल गई."
उसके इस तरह चिल्लाने से लोगों को कुछ समझ नहीं आया. लड़का था कि बेतहाशा दौड़ और चिल्ला दोनों रहा था.
किसी ने पूछा-क्याऽऽ! क्या चल गई;लाठी?
लड़का उसकी बात सुने बिना आगे दौड़ पड़ा.
जिसने सुना "लाठी" वह समझ बैठा कहीं "लाठी" चल गई है. बाजार में शायद बलवा हो गया है.
ये समझ सभी अपने अपने घर को दौड़ पड़े.कुछ "अमनपसंद" जो "लाठी" से अमन कायम करना चाहते थे, अपने घर से लाठी लेकर दौड़ पड़े.
अब सब के मुंह से यही सुना जा रहा था-"लाठी चल गई-लाठी चल गई".
पल भर में मेरठ के बाजार में दो गुट एक दूसरे के सामने लाठी लेकर एक दूसरे पर भांजते नजर आए.
देखते ही देखते सारी दुकानें बंद. कर्फ्यू नाफिज.
किन्तु दंगा का असली कारण किसी से पूछो तो कुछ पता नहीं.
सभी यही कह रहे थे "लाठी चल गई" और पहले उधर से चली.
और लड़का घर में बैठा जलेबी खा रहा था.
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पता नहीं आपने इस प्रसंग से क्या निष्कर्ष निकाला.
अगर मन करे तो बताइएगा.
हमारे विचार से खोटी चवन्नी हमारा अधूरा या खोटा ज्ञान है जिसे हम जैसे भी हो,चलाना चाहते हैं.इसके चल जाने से ऐसी-ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं जो भीड़ भरे बाजार में भगदड़ पैदा करने के लिए काफी है.
और यह भी कि कुछ बोलने से पहले शब्दों पर ध्यान देना भी उतना हीं जरूरी है चाहे आपकी मंशा कुछ भी हो क्योंकि लोग मनमाना मतलब निकाल हीं लेते हैं.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१३.०६.२०२२.
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