हनुमान प्रसादजी पोद्दार-भाईजी.

कल्याण पत्रिका के आदि सम्पादक हनुमान प्रसाद जी पोद्दार
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 हनुमान प्रसाद पोद्दार कल्याण पत्रिका के आदि सम्पादक थे. मेरी ऐसी धारणा है शायद हीं कोई ऐसा भारतीय होगा जो इस कल्याण पत्रिका के नाम से परिचित न हो. सनातन धर्म प्रेमियों के बीच यह पत्रिका देश से लेकर विदेशों तक में अपनी अमिट पहचान कायम किए है. यही एकमात्र ऐसी पत्रिका है जिसमें किसी तरह का कोई विज्ञापन कोई नहीं छपवा सकता है चाहे इसके लिए वह कितना भी मूल्य भुगतान करने को तैयार हो. ऐसा अमल इस पत्रिका के प्रकाशन के समय वर्ष १९२६ ईस्वी से हीं चल रहा है जो महात्मा गांधी के सुझाव से उद्भूत था.
        स्नेही एवं सुह्रद जन हनुमानप्रसादजी को  "भाईजी" के नाम से सम्बोधित करते थे.बहुसंख्य हिंदू की उनके बारे में जानकारी पर्याप्त नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि बहुसंख्य हिंदू हीं नहीं बल्कि अन्य धर्मावलंबी भी उनके नाम से अनभिज्ञ नहीं हैं. उनके बारे में वर्तमान जनमानस में अपर्याप्त जानकारी का हेतु क्या है यह शोध का विषय है किन्तु इतना सत्य है कि सनातन धर्म,संस्कृति की जिस प्रकार और जितनी सेवा उन्होंने अपने वास्तविक धर्माचरण, अभिमानरहित ज्ञान एवं निष्काम भाव से की है, ऐसा कोई विरला हीं होगा.
यह एक दुखद आश्चर्य है कि जहां पाठ्यपुस्तकों में अनेक छुटभैये नेताओं तक की जीवनी को जब-तब शामिल कर उसके बारे में छात्रों को पढ़ने के लिए बाध्य किया गया वहीं भारत के इस वास्तविक रत्न के बारे में न्यूनतम जानकारी देने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई. आजकल तो छूटभैये नौकरशाह का नाम भी प्रतियोगिता परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न में शामिल किया जाता है.
       उनके जीवन काल में भी उन्हें भारत रत्न देने की बात चली थी जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था. फिर बाद में भी जब-तब उन्हें भारत-रत्न से विभूषित करने पर विचार हुआ किन्तु यह मात्र विचार तक हीं सीमित रहा. वैसे वे भारत रत्न से उपर के रत्न के रत्न थे जिससे आज भी धार्मिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत प्रकाशमान है.
      १९७१ ई० में ब्रह्मलीन होने के पश्चात भी उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सनातन धर्म एवं संस्कृति के पथ को आलोकित कर रहा है जिस पथ पर चलने का प्रयत्न आज भी अधिसंख्य भारतीय हीं नहीं भारत के बाहर निवास करनेवाले भी कर रहे हैं.अस्तु.
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भाईजी शास्त्रज्ञ,लेखक,कर्मवीर,समाजसेवी,स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ भगवान के अनन्य भक्त थे. 
आज रामायण, रामचरितमानस, भगवद्गीता, श्रीमदभागवत आदि ग्रंथों पर जो सरल एवं सुग्राह्य टीका उपलब्ध है वह भाईजी के अमूल्य योगदान का हीं परिणाम है. वे न केवल उन ग्रंथों जो प्रायः संस्कृत में हैं, पर अपनी सहज एवं सरल भाषा-टीका के माध्यम से आम जनमानस को धर्मपथ-सत्पथ पर चलने में सहायक बने बल्कि उन ग्रंथों को गीता प्रेस द्वारा अल्पमूल्य में प्रकाशित एवं प्रसारित करा जो उन्होंने सनातन धर्म एवं संस्कृति की रक्षा की है, उसका शब्दों में वर्णन असम्भव है. उल्लेखनीय है कि भाईजी गीता प्रेस के संस्थापकों में एक थे; कल्याण पत्रिका के तो पहले संपादक वे थे हीं. गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना सेठ जयदयालजी गोयन्दका के धन और भाईजी के श्रम एवं समर्पण का हीं परिणाम था. वैसे सेठजी स्वयं एक धर्मपरायण पुरुष, विद्वान लेखक, कर्मयोगी एवं वक्ता थे. भाईजी और सेठजी दोनों आपस में मौसेरे भाई थे.
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भाईजी की साधना मात्र सारस्वत-भगवत नहीं थी.वे देशप्रेम की भावना से प्रेरित थे. समाजसेवा भगवद्सेवा का स्वरूप था.उनका जीवन कल्याण पत्रिका के सम्पादन दायित्व से पूर्व जेल यात्राओं से भी परिपूर्ण था जो कि उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न रूपों में भाग लेने के कारण करना पड़ा था. 

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 संत की वाणी जिस किसी भी रूप में प्राप्त होती है अपने समीपस्थ को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती. उनकी वाणी के श्रवणमात्र से लाभ होता है; चिंतन और अनुशीलन करने पर तो बात हीं क्या है.
राजीव रंजन प्रभाकर
१३.०६.२०२२.


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