एक पिता की दुविधा

एक पिता की दुविधा.
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यह एक कहानी है जिसे मुझे एक महानुभाव ने सुनाया है.उसी को मैंने लिखा है; पढ़िए,शायद अच्छी लगे.
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पुराने जमाने की बात है.एक आदमी था; बहुत सीधा-साधा. ठाकुरजी में गहरी आस्था. पत्नी का देहांत हो चुका था.अब उसके सिर्फ दो बेटियां हीं थीं.दोनों को वह बहुत प्यार करता था. दोनों को उसने कुछ ज्यादा तो नहीं पढ़ाया बाॅंकि अच्छे संस्कार देने की कोशिश जरूर की.
 बेटियों के बड़े होने पर उसने उनकी शादी कर दी.एक की शादी उसने मिट्टी के बरतन बनाने वाले से की तो दूसरे की खेती करने वाले से. 
     दोनों बेटियां ससुराल में अपने-अपने घर बहुत खुश थीं. दोनों के पति काफ़ी मेहनती तो थे हीं; वे दोनों अपनी पत्नी को भी अपनेतया बहुत खुश रखते थे और पत्नी अपने पति को खुश रखते हुए अपनी-अपनी गृहस्थी को अच्छे से सम्हाल रही थीं.
 वह आदमी जब बेटियों के ससुराल के गाॅंववालों से अपने दोनों बेटियों और दामाद की ता'रीफ़ सुनता तो उसे मन हीं मन बहुत ख़ुशी मिलती. वह आदमी बहुत हीं संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहा था. साथ में ठाकुरजी की सेवा भी चल रही थी.
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एक बार की बात है; उस आदमी के मन में हुआ कि क्यों न अपनी बेटियों से ससुराल जाकर उनसे मिला जाय.अब तक तो सिर्फ उसने लोगों के मार्फत हीं अपने बेटियों का खैर- खबर जाना था.अब मन में हुआ कि चल कर अपने बेटी और दामाद से मिला भी जाय ताकि अपनी ऑंखों से उन्हें देख सकें कि वे कैसे रह रही हैं और इस तरह उनका कुशल मंगल भी ज्ञात हो जाएगा.
        उस व्यक्ति का अपने बच्चों से मिलने की इच्छा तो हर तरह से जायज़ थी भले हीं उस जमाने में पिता अक्सर अपने बेटियों के यहाॅं कम हीं जाते और उनके यहाॅं ठहरना तो बिल्कुल भी नहीं चाहते थे.
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जब वह व्यक्ति अपनी बड़ी बेटी के यहां गया तो उसने देखा उसकी बच्ची वाकि'ई बहुत ख़ुशी से रह रही थी. 
उसने अपने दामाद के बारे में बेटी से पूछा तो पता चला कि वह सुबह हीं चाक चलाने निकल जाता है और सूरज के उगते-उगते उसका दामाद ढ़ेर सारे मिट्टी के बर्तनों को तैयार कर उसे धूप में सुखाने के लिए उन बर्तनों को मैदान में फैला देता है.
       जाते समय उसने अपनी बेटी से पूछा-बेटा! तुम्हें किसी चीज़ की कोई दिक्क़त तो नहीं?
बेटी ने कहा-नहीं बापू! मुझे किसी चीज की कोई दिक्क़त नहीं है. ये बहुत हीं मेहनती हैं और बर्तनों के बाजार में बिक जाने से अच्छी खासी आमदनी हो जाती है और मज़े में गृहस्थी चल रही है.आप बस अपना ख्याल रखना. 
 लेकिन वो क्या है न बापू! पिछली बार बरसात काफ़ी होने की वजह से हमारे मिट्टी के बरतन ठीक से पक नहीं पाए; सूरज क‌ई-क‌ई दिनों तक मूसलाधार बारिश की वजह से निकलता हीं नहीं था. इसके चलते काफ़ी नुकसान हम लोगों को उठाना पड़ा.
सो बापू तूॅं इस बार भगवान से मनाओ कि इस बार बारिश हो हीं नहीं यदि हो तो बहुत मामूली;और बापू तूॅं यदि भगवान जी को कहोगे तो वे तेरी ज़रूर सुनेंगे. तुम उनके भक्त जो ठहरे!
उस आदमी ने कहा -ठीक है बेटी! यदि तूॅं ऐसा सोचती है तो मैं ठाकुर जी से तेरे लिए जरूर बिनती करूंगा.
यह कह वह अपनी छोटी बेटी से मिलने उसके गाॅंव चला.
संयोग देखिए कि छोटी बेटी के घर पहुंचने पर भी घर पर उसे सिर्फ़ उसकी बेटी हीं मिली.उसका दामाद खेतों में बोरिंग से पानी पटाने दोपहर जो गया सो अभी तक लौट कर नहीं आया था.
उसने अपनी छोटी बेटी से भी वही प्रश्न किया- बेटी! तुम सुखी तो हो न? किसी चीज की कोई दिक्क़त तो नहीं? हमसे कुछ छुपाओ नहीं. अभी तुम्हारा बाप जिंदा है. जो चीज़ की जरूरत हो हमसे नि: संकोच कहना.
 मेरे पास अब तुम दोनों के 'अलावा है कौन?
छोटी बेटी ने कहा- दद्दा! हमें कुछ नहीं चाहिए सिर्फ़ तुम अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखा करो. 
बाकि तुम्हारे आशीर्वाद से हमें कोई चीज की कमी नहीं है. खेती से अच्छा अनाज पानी हो जाता है,पास में हीं मंडी खुल जाने से उसे बेचने कहीं जाना भी नहीं पड़ता है. आमदनी भी अच्छी ख़ासी हो जा रही है.
             बस पिछली दफ़ा' बरसात देर से गिरने और बारिश कम होने से फसल कुछ कम आई; सो इस बार यदि बारिश यदि थोड़ी पहले आ जाती तो बापू म्हारो काम बन जाए.
            दद्दा! तुम तो ठाकुरजी के भक्त हो. ठाकुरजी से कहो न कि वे इस बार थोड़ी जल्दी और ज्यादा बारिश करें!
ऐसा हो तो बहुत ही अच्छा हो. 
आदमी ने कहा -ठीक है बेटी! मैं अपने ठाकुरजी से कहूंगा कि वे ऐसा कर दें.
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घर पहुॅंचने पर व्यक्ति सोच में पड़ गया.वह बड़ी बेटी के कहे मुताबिक ठाकुरजी से बारिश नहीं होने की प्रार्थना करे या फिर छोटी के लिए ईश्वर से घनघोर वर्षा की गुहार लगाए.
उसके लिए बड़ी दुविधा खड़ी हो गई. मन द्वंद्व से पीड़ित रहने लगा.
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यही है वह द्वंद्व जिससे हम सभी को भी विभिन्न रूपों में और समय-समय पर दो-चार होना होता है. 
जैसे हीं आप संकल्प लेंगे विकल्प पहले से खड़ा मिलेगा. जैसे हीं हम कामना में फंसते हैं, द्वंद्व उपस्थित हो जाता है. 
परिणाम भ्रम, मोह और अशांति.
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बस सूक्ष्मता से आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. हम ईश्वर से यह भी चाहते हैं, वह भी चाहते हैं; इतना चाहते हैं उतना चाहते हैं, ऐसी स्थिति चाहते हैं,वैसी स्थिति चाहते हैं.
          नित्य नये-नये भोग के लिए मन बेचैन रहे;फॅंसा रहे,उलझा रहे;ये बात तो समझ में आती है क्योंकि मन का स्वभाव हीं है मनोनुकूल रोजगार खोजना किंतु हद तो तब हो जाती है जब हमारा मन दो परस्पर विरोधी चीजों को एक साथ चाहने लगता हैं.
         हम भोग भी चाहते हैं और शांति भी.
तब मन क्यों न द्वंद्व से पीड़ित रहे?ये स्थिति भोगज्वर से पीड़ित हम जैसे अधकचरे शांतिकामी की है जो चित्त को सदैव अस्थिर किए रखती है. जहाॅं तक मेरी समझ है ये स्थिति नये-नये भोग में उलझे रहने से भी खराब है.  
        इस "द्वंद्वरोग" का उपचार किसी के पास नहीं. यदि हो तो बताइएगा. 
मैं समझता हूं कि इसका समाधान भी हरि के शरण में जाने से हीं मिल सकता है.
क्योंकि "द्वंद्वरूप" भी स्वयं हरि हीं हैं.
  भगवान कहते हैं-
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्व: सामासिकस्य च।
**********************************************वैसे कहानी को सुखांत बनाने के लिए जरूरी है कि यह कहा जाय कि उसने ठाकुरजी से निर्मल भाव से दोनों हीं तरह की प्रार्थनाएं की और उस साल बड़ी बेटी के मिट्टी के बर्तन भी खूब पके और बिके तथा छोटी को खेती से फसल की पैदावार भी जबरदस्त हु‌ई.
                बाॅंकि उस साल बारिश का क्या हाल रहा यह ठीक-ठीक को‌ई नहीं कह सका कि बारिश कम हुई या ज़्यादा या यही कि मौनसून सवेरे आया या देर से.
प्रभु सब कुछ कर सकते हैं;वे सर्वसमर्थ हैं.
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राजीव रंजन प्रभाकर.
२३.०६.२०२२.


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