प्रतियोगिता परीक्षाएं:तब और अब.

प्रतियोगिता परीक्षाएं: तब और अब.
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मुझे याद है कि जब हमारे समय में कोई परीक्षा होती थीं तो ये इतने तामझाम से आयोजित न होने के बावजूद स्वच्छता से सम्पन्न होती थीं. 
सिविल सेवा परीक्षाओं में पर्चा लीक होना तब कोई सोच भी नहीं सकता था.
आज स्थिति इसके ठीक उलट है. आज जब भी कोई परीक्षा होती है तो पहला सवाल जेहन में यही आता है कि पहले पता करो कि कहीं किसी जगह से पेपर तो नहीं "आउट" या वायरल हुआ है! 
                      परीक्षा पूर्व दंडाधिकारी एवं केंद्राधीक्षकों की लम्बी ब्रीफिंग-गो कि परीक्षार्थी को क्या लेकर परीक्षा भवन में जाना है, क्या नहीं ले जाना है; यहां तक कि परीक्षार्थी को क्या पहन कर परीक्षा भवन में पर्चा लिखना है, के मुतल्लिक विशेष हिदायत मिलती है. 
मैंने तो ये भी देखा है कि बाज इम्तिहान में केंडिडेट को नंगे पांव एवं बिना आस्तीन के कमीज/कुर्ती पहन कर आने की हीं हिदायत रहती है.
अलावे इसके बायोमेट्रिक, परीक्षा केंद्रों पर जैमर का अधिष्ठान, प्रश्नपत्रों के क‌ई-क‌ई सेट, परीक्षा केंद्रों पर फ्रिस्किंग की व्यवस्था, लाउडस्पीकर का उपयोग,प्रश्नपत्रों को परीक्षा शुरू होने से ठीक पहले दंडाधिकारी के समक्ष खोला जाना, पुलिस-बल,गश्तीदल, उड़नदस्ता-दंडाधिकारियों की तमाम टुकड़ियां, आयोग द्वारा अपने स्वयं के अधिकारियों की तमाम जगहों पर अनुश्रवण हेतु दौरा सम्बंधी इतनी structured & elaborate इंतजामात भी प्रश्न-पत्रों को "लीक" न होने की गारंटी नहीं दे पाते हैं. 
हमारे समय में तो उपरोक्त में से अधिकांश व्यवस्था तो थी हीं नहीं. मसलन न कोई मोबाइल, न ब्लूटूथ न जैमर,न लाउडस्पीकर आदि; फिर भी परीक्षाएं होती थीं और अच्छे से होती थीं.

                  इतने माकूल इंतजाम के होते हुए भी यदि आज की तारीख में किसी इम्तिहान का पर्चा लीक होता है तो इसके पीछे के वजूहात को तलाशना जरूरी है. 
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ये कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि जिस तकनीक ने हमारे काम और जिम्मेदारियों को आसां कर दिया है वही तकनीक का गलत एवं बेजा इस्तेमाल इन इंतजामात को दरहम-बरहम करने के लिए काफी है.
                   जिस तकनीक के बिना पर इंतजामात से बावस्ता लोग इम्तिहान की निगरानी, निगहबानी करते हैं उसी तकनीक के जरिए चंद अनासिर पेपर को आउट करते हैं.  
                             
                आज जब व्हाट्स एप के माध्यम से हुक्काम यह मोनिटर कर रहे होते हैं कि परीक्षा में दंडाधिकारी या पुलिस बल समय पर पहुंचा या नहीं या फिर प्रश्न-पत्र परीक्षा केंद्रों पर समय से पहुंच रहा है या नहीं या यह तयशुदा तरीके से खोला गया है या नहीं, अटेंडेंस शीट के मुताबिक तकसीम हुआ या नहीं वगैरह-वगैरह; तो साथ ही ऐसे लोगों की भी अच्छी खासी तादाद है जो सिस्टम में या उसके बाहर रह इसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस का उपयोग क्वेश्चन आउट करने में करते हैं या सहयोग देते हैं.
अब तो ऐसे लोगों का एक संगठित गिरोह बन चुका है जो बाजवक्त अखबारात की सुर्खियां बनती है.
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* लब्बोलुआब यह है कि हमारा value system पहले से बहुत कमजोर हो चुका है. इतना कमजोर कि तकनीक का कोई सा भी बूस्टर डोज इसके मर्ज को ठीक नहीं कर सकता.      
          बल्कि मुझे तो लगता है कि आज का "वेल्यू सिस्टम" हीं कुछ दूसरा है जहां मानवीय मूल्य को "फुली/पार्टली कन्वर्टिबल करेंसी" के रूप में व्यवहार में मान्यता मिल चुकी है. 
कोरोनारूपी वज्राघात काल में हम इसके साक्षी रह चुके हैं जहां सांस लेने की एक कीमत तय कर दी गई थी. 
        बदलते दौर में इस प्रचलित वेल्यू सिस्टम को बदल पाना न तो कानून से और न हीं तकनीक से सम्भव है. 
हां!कभी-कभी कुछ कर देने से यह जरूर लग सकता है कि बस अब सब कुछ ठीक होने हीं वाला है.
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जहां तक इम्तिहान में पेपर लीक हो जाने का सवाल है मेरे ख्याल से इसका एक बड़ा कारण इम्तिहान का "आब्जेक्टिव" होना भी है जिसमें तकनीक के सहारे चीजें आसानी से मेनिपुलेट कर ली जाती हैं.
ओनलाइन एक्जाम को कंडक्ट करने के तौर-तरीके भी शक-शुबहा के जद में आ गए हैं जब सर्वर एंड से हीं चीज़ों के मेनिपुलेट होने की बातें सुनी जा रही है. हकीकत क्या है ये माहिरीन जाने.
           वाजे रहे कि मैं न तो मुखालिफे-तकनीक हूं न हीं कदामत पसंद.
बस इतना कहना चाहता हूं कि यदि पेपर सिर्फ "सब्जेक्टिव" रहे तो तमाम तिकड़म लगा कर कोई परीक्षा से चंद लम्हा कब्ल पेपर आउट भी कर ले तो भी पर्चा सब्जेक्टिव होने के चलते पड़ने वाला फर्क मामूली रहेगा.
मुझे याद है कि बिहार इंजीनियरिंग इंट्रेंस टेस्ट में परीक्षा भवन में हमलोगो को ऐसा बुकलेट दिया गया था जिसमें विषयवार तकरीबन बीस प्रश्न दिये ग‌ए थे और प्रत्येक प्रश्न के नीचे लिमिटेड स्पेस छोड़ रखा गया था जिसमें परीक्षार्थी को उत्तर लिखना होता था. परीक्षा के बाद उन क्वेश्चन-कम-आंसर बुकलेट को जमा ले लिया जाता था.
बाज लोग ये भी कहेंगे कि इतने सारे परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिका को जांचने में जो वक्त और मैनपावर की दरकार होगी वह इस विकल्प को अपनाने से हतोत्साहित करेंगी. 
ये बात ग़लत भी नहीं है किन्तु यह भी तो देखा जाना चाहिए कि "आब्जेक्टिव मेथड" से ली गई परीक्षा के परिणाम भी क्या समय पर घोषित हो पाते हैं?
 गहराई से देखने पर मसला घूमफिर कर वही नये "वेल्यू सिस्टम" पर आकर अटक जाता है.
फिर भी दोनों के फायदे-नुकसान का आकलन तो होना ही चाहिए.
जो भी हो इस तरह की तब्दीली ऐसे अनासिर की गिरोहबंदी को अपने मकसद में कामयाबी हासिल करने में रखना तो डाल हीं सकती हैं.
                      बांकि सिस्टम में सुधार कैसे हो, के बावत सोचने वाले सिस्टम में हीं एक से एक काबिल लोग हैं.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१०.०५.२०२२.

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