सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी
रिश्ता निभाने में मैंने अपने जानते कोई कमी नहीं की
दूर के सगे सम्बन्धी से लेकर नजदीक के भाई-भतीजे तक
दूर के इष्ट से लेकर क़रीब के मित्र तक
कभी नहीं गया मैं उनके यहाॅं बग़ैर सौगात लेकर
पड़े दोस्त अगर बीमार तो दौड़ पड़ा दवा लेकर
दौरान-ए-कोविड तो भेज दिया अपना टीका भी उनके घर
दा’वत में कभी उन्हें बुलाया तो कभी मैं गया उनके यहाॅं
ऐसा लगता था कि मैं उन नातों-रिश्तों की बदौलत पहाड़ से भी टकरा सकता हूॅं
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हक़ीक़त तब समझ में आई जब किसी बात को लेकर
अपने एक पड़ोसी से आज मेरी ठन गई
मैंने सोचा नातेदारी रिश्तेदारी किस दिन काम आएगी
सभी को फोन मिलाया जवाब मुख़्तलिफ़ आया
ज़वाब क्या था महज़ हीला हवाली और क़ज़ा
लुब्ब-ए-लुबाब ये कि वक़्त पर कोई काम नहीं आया
‘ऐन वक़्त पर ख़ुद को अकेला हीं पाया
मौक़े’ पर आने की कौन कहे
सभी सिर्फ दूर से मशविरा वो नसीहत हीं देते रहे
इस नये तजुर्बे से मैं अब ये सबक़ लूॅंगा
नातेदारी रिश्तेदारी को उतना ही अहमियत दूॅंगा
जितना रिश्ता रखने भर ज़रुरी समझूंगा
मैं अब सिर्फ ख़ुद पर हीं भरोसा करूंगा
दोस्ती और यारी में वक़्त उतना हीं दूंगा
जितना कि उन्हें भी उसका उतना ही दरकार हो
इसके लिए जो ज़रूरी होगा वही करूंगा
मैं ख़ुद को ख़ुद से हीं तैयार कर
वो करूंगा जो मैं पहले हीं सोच कर रखे रहूंगा.
~ राजीव रंजन प्रभाकर.
१५.०५.२०२५.
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