सुतीक्ष्ण मुनि की गुरु-दक्षिणा
शिष्य भी गुरु के लिए कभी-कभी ऐसा कार्य कर जाता है जिससे शिष्य का जीवन तो कृतार्थ हो हीं जाता है,गुरु का जीवन भी कृतकृत्य हो जाता है.
इस संदर्भ में एक प्रसंग का वर्णन अर्पित किया जा रहा है जो इसे समझने में सहायक सिद्ध होगा. गुरु-दक्षिणा वाले इस प्रसंग का मूल स्त्रोत कौन सा ग्रंथ है इसका ठीक-ठीक मुझे पता नहीं है.
तथापि सीधे तौर पर तो नहीं किंतु प्रकारांतर से गोस्वामीजी रचित रामचरितमानस मानस में इसकी झाॅंकी मिलती है.
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सुतीक्ष्ण मुनि का प्रसंग रामचरितमानस में आता है. वे त्रिकालदर्शी अगस्त्यऋषि के शिष्य थे. विद्या अध्ययन की समाप्ति के पश्चात सुतीक्ष्णजी अपने गुरु अगस्त्य ऋषि को गुरू-दक्षिणा अर्पित करने के प्रयोजन से गुरू को आदेश देने का निवेदन किया.
इस अनुरोध पर अगस्त्यजी बोले- वत्स! मुझे गुरु-दक्षिणा में कुछ देने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तुम्हारी सेवा से हीं अत्यंत प्रसन्न हूॅं. तुम्हारा विद्या अध्ययन समाप्त हो चुका है. अब तुम सुखपूर्वक अपना शेष जीवन अपनी रूचि के अनुसार व्यतीत करने हेतु स्वतंत्र हो.
सुतीक्ष्णजी- गुरुदेव! बिना गुरु दक्षिणा के विद्या अपूर्ण मानी जाती है. ऐसा हम सुनते आए हैं. इसलिए गुरु-दक्षिणा अर्पित करना तो गुरुकुल में रह कर विद्योपार्जन समाप्त करने वाले प्रत्येक शिष्य का कर्तव्य है. इसलिए गुरूदेव अपने मुख से कुछ आदेश करें.
अगस्त्य मुनि- सुतीक्ष्ण! हठ मत करो. मैंने पहले ही कहा कि गुरुकुल में रहकर तुम्हारी मेरे प्रति की गई सेवा हीं मेरी गुरू दक्षिणा है. अब जाओ.
सुतीक्ष्णजी - फिर भी गुरुदेव कुछ कहिए.
शिष्य के बार-बार हठ से कुपित अगस्त्यमुनि ने कहा- ठीक है यदि तुम्हें मुझे गुरू दक्षिणा देने का इतना हीं आग्रह है तो फिर तूॅं मुझे भगवान के दर्शन करा दे. बता तूॅं करा सकता है? यही तेरे लिए मेरी गुरू दक्षिणा होगी.
ऐसा आदेश सुन सुतीक्ष्ण जी हतप्रभ रह गए.
आगे कुछ बोलने का साहस नहीं कर सके.
अगस्त्य मुनि यह बात तो हल्के में कह गए किन्तु शिष्य सुतीक्ष्ण ने इसे अपने हृदय पर ले लिया.
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सुतीक्ष्ण जी ने अपने गुरु से हीं सुन रखा था कि त्रेता युग में राक्षसों का संहार करने के निमित्त मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपनी भार्या भगवती सीता एवं जगदाधार अनुज लक्ष्मण के साथ इसी दण्डकारण्य से गुजरेंगे.
जैसे हीं उन्हें इसका स्मरण हुआ वे भीतर हीं भीतर प्रसन्न मन से गुरू से विदा लिए और उसी दण्डकारण्य में गुरू के आश्रम के सुदूर उत्तर अपनी कुटिया बना ली तथा वहीं कठोर तप करने लगे.
सुतीक्ष्ण जी अपने गुरु के मुख से भगवान के आगमन की सुनी हुई बात को गांठ बांध दण्डकारण्य से भगवान के गुजरने की प्रतीक्षा करने लगे.
प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा में रत सुतीक्ष्ण जी को जैसे ही यह समाचार मिला कि भगवान श्रीराम कबंध का वध एवं शरभंग मुनि पर कृपा अनुग्रह कर दण्डकारण्य में प्रवेश कर चुके हैं,वे भाव विभोर हो गए.
उनसे मिलने को आतुर सुतीक्ष्ण चल पड़े. प्रभु के मिलन की कल्पना मात्र से वे इतने बेसुध हो कर चलने लगे कि मार्ग हीं भूल गए. कभी नृत्य करते आगे जाते तो फिर पीछे लौट आते.
प्रेमोन्मत्त सुतीक्ष्ण जी की यह दशा पेड़ की ओट लिए प्रभु सब देख रहे थे.
एक क्षण ऐसा आया कि कौतुकी भगवान ने कृपा करके अपना रूप भक्त सुतीक्ष्ण के हृदय में स्थापित कर दिया. ऐसा होते हीं सुतीक्ष्ण जी बीच मार्ग में हीं समाधिस्थ हो गए.
फिर भगवान ने पास आकर मुनि को जगाने की बहुत चेष्टा की किंतु सुतीक्ष्ण जी का ध्यान भंग हीं नहीं हो रहा था.
किंतु जैसे ही प्रभु ने मुनि के हृदय में स्थित अपने रामरूप को चतुर्भुज रूप में बदल दिया, ध्यानस्थ सुतीक्ष्णजी अकुला उठे. उनकी समाधि भंग हो गई.
सामने भगवान श्रीराम को साक्षात् देख सुतीक्ष्ण मुनि के आनन्द की सीमा नहीं रही. *******************************************************
सुतीक्ष्ण मुनि आदर पूर्वक प्रभु को अपने आश्रम पर लाए और उन्होंने भगवान की भावपूर्ण बंदना की.
श्याम तामरस दाम शरीरं- जटा मुकुट परिधन मुनि चीरं
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तदनंतर भगवान जब अगस्त्य जी के आश्रम पर चलने को तैयार हुए तो सुतीक्ष्ण मुनि ने आर्त होकर प्रभु से प्रार्थना की कि अपने गुरु के दर्शन किए उन्हें भी बहुत दिन बीत गए हैं इसलिए वे भी साथ चलेंगे.
सुतीक्ष्ण बोले-प्रभु मुझे साथ लेने में आपका तो कुछ हानि नहीं है किन्तु आपके साथ चलने में मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध हो जायेगा.
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सुतीक्ष्ण की चतुराई पर प्रभु मुस्कुरा दिए. अंतर्यामी प्रभु से कोई बात छुपती नहीं है; सो गुरु-शिष्य का गुरू-दक्षिणा सम्बंधी संवाद कैसे छिप सकता था!
अगस्त्य मुनि के आश्रम को जाने को तैयार श्रीराम ने सुतीक्ष्ण जी को भी अपने साथ ले लिया.
श्रीराम अनुज लक्ष्मण तथा सीताजी सहित सुतीक्ष्ण जैसे हीं अपने गुरूदेव के आश्रम पर पहुंचे, उन्होंने दूर से हीं दण्डवत होकर जोर से गुरू से प्रभु के आगमन की सूचना दी.
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा।।
राम अनुज समेत वैदेही। निसि दिन देव जपत हहु जेही।।
गुरूदेव अगस्त्य भी समझ गए कि उनका शिष्य उन्हें गुरू- दक्षिणा देने आ रहा है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
बुद्धपूर्णिमा.
१२.०५.२०२५.
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