जगज्जननी सीताजी

आज वैशाख शुक्ल नवमी तिथि है. भूमिजा माता जानकी के इस तिथि में पृथ्वी पर प्रकट होने से इस तिथि को जानकी नवमी के रूप में भी स्मरण किया जाता है. 
यह भी एक वास्तविकता है कि जिस धूम-धाम एवं हर्षोल्लास से प्रभु श्रीराम की जयंती सम्पूर्ण भारत में मनती है उस का न्यूनतम भी जानकी जयंती पर नहीं देखा जाता. यह आश्चर्यजनक है कि भगवान श्रीराम अवध में जन्म लेकर सम्पूर्ण सनातन धर्म के ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ हैं वहीं मिथिला में जन्मी माता जानकी को ‘जगज्जननी’ के रूप में वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है जो उनके पति को है.
 सम्पूर्ण उत्तर भारत में रामनवमी पर सरकारी अवकाश घोषित रहता है वहीं जानकी जयंती पर सिर्फ बिहार में अवकाश घोषित है. यह अवकाश भी वर्ष 2011 से पहले हमारे प्रदेश में तो नहीं हीं था पूरे भारत के किसी राज्य में नहीं था. मेरी जानकारी में आज की तिथि में भी बिहार को छोड़कर किसी भी प्रदेश में नहीं है. 
ध्यान देने योग्य बात है कि हमारे पड़ोस नेपाल में जानकी जयंती राजकीय अवकाश के रूप में बहुत पूर्व से ही प्रचलित है.
 हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हैं कि प्रदेश में जानकी नवमी पर अवकाश हमारे माननीय मुख्यमंत्री के सद्प्रेरणा से हीं उद्भूत है. अस्तु.
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उपरोक्त बातें सिर्फ प्रसंगवश ऊपर लिख दी गई है मूल में कहने का अभीष्ट यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं; एक के बिना दूसरा क्रमश: निष्क्रिय और निस्तेज है. 
भगवद्गीता में इसे निम्न श्लोक से स्पष्ट किया गया है-
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृति सम्भवान।।
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
(भगवान कहते हैं -प्रकृति और पुरुष;इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेष आदि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान तथा प्रकृति में स्थित ही पुरूष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है)
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गीता में सूत्र रूप से भगवान की वाणी में कही गई इस बात की झलक प्रभु श्रीराम, माता सीता और हनुमान के बीच हुए एक वार्तालाप वाले प्रसंग से अधिक समझ में आ सकती है. 
यह प्रसंग अध्यात्म रामायण के “रामहृदय” से लिया गया है. 
                               ***
 प्रभु श्रीराम रावण वध तथा लंका विजय के पश्चात अनुज लक्ष्मण एवं पत्नी सीता सहित अयोध्या लौट चुके थे. प्रभु के साथ विभीषणांगद, जामवंत,नल-नील,सुग्रीव तथा भगवान के अनन्य सेवक हनुमान भी अयोध्या आये. 

       जैसे हीं प्रभु का कुल गुरु वशिष्ठ ने राज्याभिषेक किया भोगेच्छा रहित हनुमान प्रभु के समक्ष ज्ञान की अभिलाषा में हाथ जोड़ कर खड़े हो गए.

तब भगवान ने सीताजी की ओर मुखातिब होकर कहा- सीते! ये अपना हनुमान तुम्हारा भी उतना हीं प्रिय है जितना मेरा तथा हम दोनों में अत्यंत भक्ति रखने के कारण यह निष्पाप है और ज्ञान का सुयोग्य पात्र भी.

आज तत्वज्ञान की अभिलाषा में यह मेरे सम्मुख हाथ जोड़े खड़ा है. इसे तुमने पहले हीं अजर अमर एवं गुणनिधि होने का वरदान दिया है. मेरी इच्छा है कि आज तुम इसे मेरे तत्व का बोध भी करा दो.

तब लोक-विमोहिनी जनकनन्दिनी सीता जी भगवान से ‘बहुत अच्छा’ कह शरणागत हनुमान को भगवान राम का निश्चित तत्व बताने लगीं.

              सीताजी ने कहा-- वत्स हनुमान! तुम मेरे पति श्रीराम को साक्षात् अद्वितीय सच्चिदानन्दघन परब्रह्म समझो. ये वस्तुत: मन एवं इंद्रियों के अविषय, शांत, सर्वव्यापक, स्वयंप्रकाश, निर्विकार एवं उपाधि रहित समस्त आत्माओं के आत्मा हैं.
  
          और मुझे तुम संसार की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाली मूल प्रकृति जानो. मैं हीं निरालस्य होकर इनकी सन्निधिमात्र से इस विश्व की रचना किया करती हूॅं. तो भी इनकी सन्निधिमात्र से की हुई मेरी रचना को बुद्धिहीन लोग इनमें आरोपित कर लेते हैं.

विशेष क्या हूॅं समझने के लिए इतना जान लो कि 

     १.अयोध्यापुरी श्रीराम का जन्म 
     २.विश्वामित्र की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना 
      ३. अहल्या को शापमुक्त करना 
      ४. महादेव के धनुष को तोड़ना 
      ५. मेरा पाणिग्रहण करना 
      ६.परशुरामजी का गर्व मर्दन करना 
      ७. १२ वर्षों तक अयोध्यापुरी में मेरे साथ रहकर दण्डकारण्य जाना, विराध का वध करना, मृगरूप मारीच का वध करना,
      ८. मायामयी सीता का हरा जाना 
      ९. जटायु,कबन्ध को मुक्ति प्रदान करना 
      १०.शबरी द्वारा पूजित होना तथा सुग्रीव को मित्र बनाना 
      ११. बालि का वध करना, मेरी खोज करवाना 
      १२. लंका विजय हेतु वानरी सेना का गठन करना 
      १३. समुद्र पर सेतु बना देना, 
      १४.लंकापुरी को घेर लेना, पुत्रों सहित रावण को युद्ध में मारकर तथा विभीषण को लंका का राज्य देकर पुष्पक विमान द्वारा मेरे साथ अयोध्या लौट आना, फिर श्रीराम का राज्यपद पर अभिषिक्त होना इत्यादि 
समस्त कर्म मेरे द्वारा हीं किये हुए हैं फिर भी अज्ञानी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा भगवान राम में आरोपित करते हैं.

ये राम न तो वास्तव में चलते हैं,न ठहरते हैं,न शोक करते हैं,न इच्छा करते हैं,न त्यागते हैं और न कोई अन्य क्रिया करते हैं.

ये आनन्दस्वरूप, अविचल और परिणाम हीन हैं,केवल माया के गुणों से व्याप्त होने के कारण ये वैसे प्रतीत होते हैं.
सीताजी आगे कहती हैं- हाॅं हनुमान! ये जानना भी आवश्यक है यद्यपि इन सभी की रचयिता मैं अवश्य हूॅं किंतु ये सारी रचना मैं उन्हीं की अध्यक्षता में करती हूॅं.
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यही बात भगवान ने भी भगवद्गीता में कहा है-
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।
हे अर्जुन! मेरी अध्यक्षता में ही प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस हेतु से ही संसार चक्र घूम रहा है.
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अंत में माॅं जानकी के प्रति श्रद्धा प्रकट करने हेतु गोस्वामीजी के मानस के निम्न श्लोक से अपनी वाणी को विराम देकर लेखन को समाप्त किया जाता है-
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।
उत्पत्ति, स्थिति(पालन) और संहार करनेवाली, क्लेशों को हरनेवाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करनेवाली श्रीरामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं प्रणाम करता हूॅं.
                        राजीव रंजन प्रभाकर 
                             जानकी नवमी 
                            ०६.०५.२०२५.

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