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नया शा'इर बने हो

नया शा'इर बने हो जिस तिस को शे'र सुनाने बैठ जाते हो ख़ुद अपने ही हाथों अपने अश'आर की तौहीन कर जाते हो यहाॅं अश'आर को हुरूफ-ए-तहसीन हैसियत से मिलती है  जो मेरी बात का ए'तबार नहीं तो एक बार किसी महफ़िल में जाकर देखो ये दुनिया वाह वाह भी उसी के लिए करती है जिसे वह अपने लायक या बराबर समझती है.                   ** ग़म हो या शा'यरी दस्त ए बुक़्चा उसका वहीं खोलो  जो हो तुम्हारा हमदर्द या फिर सुकूॅं का हो मुंतज़िर जो हो हम ख़्याल या फिर हम सफ़र  क्योंकि- भूक और छाॅंव की अहमियत का उसी को पता होता है  जो शिकम जला धूप में दूर से चल कर आया होता है. ~ राजीव रंजन प्रभाकर. نیا شاعر بنے ہو جس تس کو شعر سنانے بیٹھ جاتے ہو۔ خود اپنے ہی ہاتھوں اپنے اشعار کی توہین کر جاتے ہو۔ یہاں اشعار کے لیے حروف تحسین حیثیت سے ملتی ہے۔ جو میری بات کا اعتبار نہیں تو ایک بار کسی محفل میں جا کر دیکھو۔ یہ دنیا واہ واہ بھی اسی کے لیے کرتی ہے  جسے وہ اپنے لائیک یا برابر سمجھتی ہے ۔                     ...

जो साथ मेरे चल सको तो चलो

मेरी खुशी के लिए  जो साथ मेरे चल सको तो चलो. क़दम से क़दम मिलाकर चलने की ज़रूरत भी नहीं; तुम आगे और मैं पीछे  ऐसा भी गर मिलकर  हम चल सकें तो चलो. तेज़ तेज़ न सही  धीरे-धीरे हीं मगर   चल सको तो चलो.              ** जो जोश में या ग़ुस्से में  कभी दूर आगे तक मैं बढ़ जाऊं  तुम मुझे आवाज़ देकर बुला लेना.  जो तुम नाराज़ होकर  तेज़ चल काफी आगे तक निकल जाओ तुम वहीं पर रुकी रहना  जब तलक मैं दौड़ कर  तुम्हारे क़रीब न आ जाऊं.             ** क्या हीं अच्छा हो जो  ये आगे पीछे का खेल  तब तलक चलता रहे जब तलक खेल-खेल में ही  पहुॅंच जाएं साथ हीं  हम दोनों वहाॅं जहाॅं  'इस' धरा से 'उस' गगन तक  प्रकाश हीं प्रकाश हो. अगर दिली ख़्वाहिश तुम्हारी भी कुछ ऐसी ही हो तो बिला झिझक पास आ जाओ और चलो. ~ राजीव रंजन प्रभाकर. میری خوشی کے لیے  میرے ساتھ چل سکو تو چلو  قدم سے قدم ملا کر  چلنے کی ضرورت بھی نہیں؛ چاہے تم آگے اور میں پیچھے  ایسا ب...

मेरे गृहशहर की एक यात्रा।

मैं पिछले दो दिनों से अपने गृहनगर में था, ताकि वहाँ के लोगों के साथ कुछ समय बिता सकूँ। अब तक जब भी मैं यहाँ आया हूँ, तो अपने भाई के घर पर ही रुका हूँ, क्योंकि वहाँ मुझे उनका प्यार और स्नेह मिला है, जबकि मेरा अपना घर है जो मेरी अनुपस्थिति में महीनों तक बंद रहता है।                                     ***          दरअसल यह घर वही है जो मेरे पिता ने अपनी मेहनत की कमाई से बनवाया था।             मैंने और मेरे सभी भाई-बहनों ने अपना बचपन इसी घर में बिताया था।                संयोग से मेरे पिता की मृत्यु के बाद आपसी सहमति से हुए बंटवारे में इस मकान का एक हिस्सा मेरे हिस्से में आ गया। इस कटे हुए हिस्से को मैंने आवश्यक मरम्मत और संशोधन करके 'पूर्ण' रूप देने की जरूर कोशिश जरूर की. परिणाम यह हुआ कि मकान पुराना होने के बावजूद आकर्षक लगता है. लेकिन इतने मरम्मत और संशोधन के बावजूद मैं ऊपर बताए गए कारणों से एक दिन भी...

A trip to my hometown.

I was in my hometown for the last two days to spend some time with the people there. Hitherto whenever I happened to come here I stayed at my brother's home due to their love and affection despite having my own house that stands closed in my absence for months.                                     ***          In fact this house is the same one which my father had built with his hard earned money.             I along with all my siblings had spent our childhood days in this house only.                After the death of my father incidentally a ‘part’ of this house fell into my share upon partition reached amicably amongst ourselves. This truncated ‘part’ was sought to give a look of ‘full’ by way of necessary renovations & modifications. But despite such renovations and modifications which made it...

ये ग़लत बात है.

तुम चले गए वो ठीक है;          लेकिन उदासी यहाॅं छोड़ गए                          ये ग़लत बात है. तुम चले गए वो ठीक है;       यहाॅं की रौनक को भी लेते ग‌ए                        ये ग़लत बात है. तुम चले गए वो ठीक है;        अपनी यादों के दामन छोड़ गए                           ये ग़लत बात है.  तुम चले गए वो ठीक है;              हमको बता कर नहीं ग‌ए                        ये ग़लत बात है.  तुम चले गए वो ठीक है;              हिसाब अधूरा छोड़ गए                         ये ग़लत बात है. तुम चले गए वो तुम्हारी या रब की मर्ज़ी थी  पुकारने प...

कभी ख़ुद के सर भी इल्ज़ाम लिया करो

हमेशा ख़ुद को हीं न सयाना समझा करो  कभी ख़ुद के सर भी इल्ज़ाम लिया करो                *** जो पाओ कभी ख़ुद को बाअख़्तियार  तो 'अमल को मुंसिफाना रखा करो  जो मिले मौक़ा' मदद का  उसका इस्तक़बाल किया करो                ** वो हो हबीब या फिर रक़ीब हो बिना गिला के मिला करो कोई काम आए या न आए सबके लिए दु'आ करो               ** फ़ूटे घड़े सी ज़िंदगी से  'उम्र बहती जा रही मुख़्तस़र से इस हयात को  बे वजह न ज़ा'ए करो              *** हमेशा ख़ुद को हीं न सयाना समझा करो  कभी ख़ुद के सर भी इल्ज़ाम लिया करो                                  ~ राजीव रंजन प्रभाकर  ----------------------------------------  ہمیشہ خود کو ہیں نہ سیانہ سمجھا کرو کبھی خود کے سر بھی الزام لیا کرو                 ...

विद्या धन और शक्ति का उपयोग सज्जन और दुर्जन किस तरह करते हैं?

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परषां परपीड़नाय। खलस्य साधोर्विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।। ऐसा नहीं कि विद्या,धन या फिर शक्ति इत्यादि केवल सज्जन को हीं प्राप्त रहते हैं.  दैवयोग से अथवा पूर्व जन्म के पुण्य एवं संस्कार के चलते ये कुटिल,दुर्जनों तथा दुष्टों को भी प्राप्त होते देखे जा सकते हैं.  खल प्रकृति के जो लोग होते हैं वे विद्या का उपयोग विवाद करने में,धन का उपयोग अपने दम्भ के पोषण तथा स्वार्थ की पूर्ति में तथा शक्ति का दुर्विनियोग दूसरे को परेशान करने एवं सताने में किया करते हैं. किंतु वहीं इसके विपरीत एक साधु पुरुष अपनी विद्या का उपयोग सत्कर्म में, धन का उपयोग सुपात्रों को दान देने में तथा शक्ति का उपयोग दुर्बलों की रक्षा एवं सहायता करने में करता है.  भावानुवाद- राजीव रंजन प्रभाकर. १२.०१.२०२५.

जो जैसा है मेरे लिए सब है ठीक.

अब चाहे तू जितना भी ढ़ाये सितम न पाने की ख़्वाहिश न खोने का ग़म.             न कोई ज़रूरत किसी नास़ेह की             न हीं तलब किसी तदबीर की             जो जैसा है मेरे लिए सब है ठीक              इसी को ज़ेहन में रख बढ़ाता हूॅं क़दम             बस अज़्म इतना कि ये रूकने न पाए               तेरे दर पे आने तलक यह क़दम         न पाने की ख़्वाहिश न खोने का ग़म         अब चाहे तू जितना भी ढ़ाये सितम.                                     ~अज्ञात اب چاہے تو جتنا بھی دھاے ستم نہ پانے کی خواہش نہ کھونےکا غم نہ کوئی ضرورت کسی ناصح کی نہ ہی طلب کسی تدبیر کی جو جیسا ہے میرے لئے سب ہے ٹھیک  اسی کو ذہن میں رکھ بڑھاتا ہوں قدم بس عزم اتنا کہ یہ رکنے نہ پائے  تیرے در پہ آنے ت...

Changing Nature of the Press.

Changing Nature of the Press  ********************************* I am not a journalist by profession and hence whatever you find written below is not born out of any experience in that field. However It's born out of the same fundamental rights to expression that by insinuation the press of India also happens to exercise. The raison d'etre of the press is solely due to the persons’ or citizens’ right to be informed. The right to be informed is inherent in the right to express. Any civil society can't survive sans fulfillment of this fundamental right. Hence it's the basic responsibility of the State to guarantee this right.  Even the most authoritarian state will not accept in the public domain that it doesn't value freedom of expression.  Had it been so, we would not have seen newspapers published from those countries ruled by even dictatorial dispensations. The press exists there too;though in a subservient way.                 ...

देवोत्थान एकादशी

अद्य देवोत्थान एकादशी अस्ति. लोकभाषायां इदम् "देव‌उठनी एकादशी" नाम्ना प्रचलितोऽस्ति. इत्येक: पवित्र दिवस: सम्पूर्ण भारतवर्षे. कार्तिक मासस्य शुक्लपक्षस्य एकादश्याम् तिथौ देवोत्थान एकादशी भवति. इत्येक: पवित्र: दिवस: सम्पूर्ण भारतवर्षे. मान्यतास्ति यत भगवान् श्रीविष्णु: अद्यैव प्रत्येक सम्वत्सरे चातुर्मास अवधिपर्यंत योगनिद्राया पश्चात जागर्ति.  देवशयन्येकादश्या देवोत्थानेकादश्योर्मध्ये कालः चातुर्मासः उच्यते अर्थात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी तिथे: सम्पूर्ण श्रावण भाद्रपद आश्विन साकम् च कार्तिक मासस्य शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि पर्यंत परिमितावधि चातुर्मास: इति कथ्यते. अस्मिन अवधि शुभकार्यादि अनुष्ठानादि च वर्जितोऽस्ति: —इति शास्त्रानि वदन्ति. शास्त्रानुसारे अस्मिन अवधि श्रीहरि: योगनिद्रायां गच्छति. देवोत्थान एकादशी तिथ्यागमन उपलक्ष्ये जना: स्वे स्वे गृहे श्रीहरि: निमित्त पूजोपवास: भजन-कीर्तनादि च कुर्वन्ति.  अद्य प्रभृति जना: विवाह उपनयनादि वा अन्यानि मांगलिक कार्यानि यात्रादि च आरंभ कर्तुम समाचरन्ति.  अद्यैव तुलसीविवाहोऽपि भक्त जना: श्रद्ध्या आचरन्ति.  अद्य गृहे प्रतिष्ठित त...

Respecting the roots, custom, tradition and social & family relations.

Here goes a short story--                   *** Son- Father! What do you mean by Successful life? Father(staring at his son and thinking for a while to answer it)- Come; let us go to the field to fly a kite. The two went to the nearby field and took to flying a kite. Soon the kite went higher and higher in the sky. The son rejoiced seeing the kite soaring too high in the sky. It seemed to the boy that the tension in the string connected to the spool that controlled the flying of the kite was something that was hindering the kite from gaining new altitude. Son- Father; Don't you see that it's the string that prevents the kite from going higher? Cut the thread to free it from the spool.                               The father cut the string; The kite for a while did go higher than it was a little while before but soon the kite began to fall down waywardly under the for...

बदलाव -एक सोच का

अब से कुछेक माह पहले तक मेरी बेटी महज़ एक कालेज की छात्रा थी. एक सरकारी विभाग में नयी-नयी नौकरी लगने के बाद वह मुज़फ्फरपुर में रहने लगी है. प्रायः अकेले ही वह वहाॅं रहती है; वैसे उसकी माॅं भी मोहवश वहाॅं चली जाती है और कुछ दिन रहकर फिर वापस पटना लौट आती है. उसकी माॅं की स्थिति तो एक पेंडुलम जैसी हो चली है; कभी यहाॅं कभी वहाॅं.    वह शनिवार को आफिस के बाद पटना आयी है. मैं जब आफिस से लौटा तो उसे शाम में घर आया देख बहुत खुशी हुई.  ******************************************** दिन- रविवार  बेटी- पापा चलिए मुझे अपने लिए कुछ ड्रेस खरीदना है. कल सवेरे मुझे वापस मुजफ्फरपुर लौट जाना है  [पहले भी मैं उसके साथ जाया करता था जहाॅं मेरा काम उसके खरीददारी का भुगतान करने तक सीमित था, बांकि ड्रेस पसंद करने का काम उसके खुद का होता था जिसमें मैं चाहकर भी भागीदार नहीं हो सकता था. वजह साफ थी; मेरी पसंद अपनी जेब की सेहत को देखते हुए होती थी जबकि उसकी पसंद को मेरी जेब की सेहत से कोई ख़ास लेना-देना नहीं रहता था. अपनी पसंद ही उसके लिए सर्वोपरि था. दुकान भी हाय-फाय और दुकानदार भी एक ...

सुरक्षित यात्रा करने की चुनौतियां

अब यात्रा करना भी खतरनाक हो चला है. क्या सड़क मार्ग, क्या रेलमार्ग, क्या वायु मार्ग;  कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया है.  और तो और पैदल चलना भी निरापद नहीं है.  सड़क पर पैदल चलो तो पीछे से बंदूक से निकले गोली की रफ्तार से बाइकर गैंग का कोई 'प्रबुद्ध' सदस्य सन्न से जब आगे निकल जाता है तो पता चलता है कि खुशकिस्मती से जान बची.  कब कौन सनक रफ्तार वाहन सवार पीछे से आकर ठोकर मार कर निकल जाए और आप सड़क पर गिर जाएं तथा दूसरा आपको होस्पीटल ले जाने की बजाय या तो रील बनाने में लग जाए अथवा आपको आपके हाल पर छोड़ आगे बढ़ जाए, कहा नहीं जा सकता.                                *** घर में बैठ नहीं सकते; रोजी रोजगार का मामला है.                                *** भारतीय रेल का सुरक्षित रेल यात्रा कराने का दावा खोखला है. रोज कोई न कोई ट्रेन पलट जा रही है; उलट जा रही है. अपनों से मिलने का सपना पाले ट्रेन में सवार लोगों की रेलयात्रा प...

Some Points of Concern On The World Mental Health Day(10th October)

One thing is certain that people die not always out of poverty or accidents or physical diseases. They die out of choice also; called suicide. This suicide is nothing but sheer inability to handle the moment when the stress that an individual undergoes for sometimes from the past reaches its maximum. Maximum in terms of the perception of the individual when he is led to think that dying is better than living. Had it been not so, the professionals whose package happens to be beyond millions of rupees per month would not have taken recourse to finish their lives in the ways that become the headlines of the news every now and then.  ****************************************************** The employers and managers have made the workplace a virtual slaughterhouse where personal freedom and workers' control over their work schedule are slaughtered ruthlessly by the less than competent supervisors and middle level management called Boss/seniors.  Every worker is put under the artific...

एक अंग्रेजी अखबार का रवैया

मेरी बेटी आज मुजफ्फरपुर से पटना आयी है किसी विभागीय बैठक में भाग लेने के लिए. उसके हाथ में एक अंग्रेजी समाचार पत्र “द हिंदू’’ देख मुझे जिज्ञासा हुई कि देखें पेपर में क्या सब है. ****************************************************** बिहार सरकार की सेवा में प्रवेश के साथ हीं मेरा अंग्रेजी समाचार-पत्रों से सम्पर्क क्रमश: छूटता चला गया और उसका स्थान हिंदी अखबार लेता चला गया. अब मेरे लिए हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर अखबार हीं काम की चीज़ बन ग‌ए. ब्लाॅक पोस्टिंग के दिनों से हीं इन हिंदी अखबारों से जो सम्पर्क बना वह जिलों में पदस्थापन के दरम्यान भी जारी रहा और दिन-प्रतिदिन प्रगाढ़ होता चला गया.  सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी रहने के अतिरिक्त इसका मोटे तौर एक कारण यह भी था कि हिंदी अखबार स्थानीय समाचारों को भी प्रमुखता से प्रकाशित करते थे जो एक प्रशासनिक अधिकारी के लिए उन स्थानीय खबरों से कम से कम अवगत रहने की सीमा तक अवश्य महत्वपूर्ण होते हैं.  इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हिंदी अखबार सिर्फ स्थानीय महत्व के खबरों के लिए हीं उपयोगी है बल्कि इन अखबारों में राष्ट्रीय एवं ज्वलंत...

उपेक्षा और अनदेखी का परिणाम.

किसी की नज़र से उपेक्षा करना/जानबूझ कर अनदेखी करना भविष्य में स्वयं से अधिक प्रभुत्वसम्पन्न से अपनी हीं उपेक्षा एवं अनदेखी को सुनिश्चित करना है.                                     *** उपेक्षा-अनदेखी पाप कर्म की श्रेणी में आता है. इस पाप का परिणाम यदि   अपमान के रूप में प्राप्त हो तो कोई आश्चर्य नहीं. ~R.R. Prabhakar.

रामकथा की महिमा

रामकथा भारतीय संस्कृति का प्राणाधार है.  इसका श्रवण व्यक्ति और समाज दोनों के दोष एवं दुर्गुणों को दूर करने में परम सहायक है. इसका यदि सतत् सुचिंतन किया जाय तो समस्त दोष और दुर्गुण धीरे-धीरे भस्म होते चले जाते हैं.  यह रामकथा हमारी सनातन संस्कृति में इस तरह से रची बसी है कि अपनी भारत भूमि में प्रत्येक दिन कहीं न कहीं इस कथा का आयोजन होता ही रहता है. राग,द्वेष,ईर्ष्या एवं मलिन प्रतिस्पर्धा से भरे इस समाज में व्यक्ति का आचरण रामचरित्र के अनुसार यदि थोड़ा सा भी हो जाए तो उसके हृदय को अनिर्वचनीय शांति पहुॅंचती है; व्यक्ति का जीवन उत्तरोत्तर सार्थक होता चला जाता है.   रामकथा की महिमा अपरम्पार है. कविकुलतिलक गोस्वामी तुलसीदास जी भी इस रामकथा की महिमा को समग्रता में वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ हीं पाये.       उपमा-उपमेय का सहारा लेकर हीं वे रामकथा की महिमा का किंचित अंश में हीं दिग्दर्शन करा पाने में समर्थ हो सके.                                *** रामकथा के संदर्भ में गोस्...

a write up

So long as something adverse doesn't happen officers don't wake up to the problem.

A letter from a father to his daughter.

My Dearest Daughter Rumki, It's heartening to find you having entered a new phase in your life. This phase starts when a student after completing his formal studies makes a debut in government service. Only a few days ago you were just a university student having no knowledge of job or service to say.  But that doesn't mean that it will be a huddle as far as one is receptive to learning and deal with common sense the nitty-gritty of the new situation.                      Now when you have joined as an officer in the state government I feel it's my duty as your father beside being myself in the government service to tell you something about what it stands to mean to those who belong to it as well as to the people who are meant to be served. First; I must tell you that you are one of the fortunate aspirants who got this service after clearing in the very first attempt the state public service commission examination wherein lakhs...

Limitation of Merit

Merit can help you reach up to a certain point beyond which it ceases to be of any use save that it will make you mere stand at where you are. If one wants to rise further one may need to have something more in the name of merit. These “somethings” are connections, subornation, adulation, references etc. Together; they're euphemistically called interpersonal competence.  Even if you are deficient in the above mentioned qualities, all you need is the money power which is the best substitute of merit and all the above mentioned criteria for success. This fact is more felt than expressed by the common people in their everyday life experiences. ******************************************************** In our time you could not imagine success in the competition unless you had requisite merit.  But the same merit can't earn you a promotion or posting of your choice.  Your performance appraisal is more a measure of ‘relationship’ with your boss you work under than a measure of y...