बदलाव -एक सोच का
अब से कुछेक माह पहले तक मेरी बेटी महज़ एक कालेज की छात्रा थी. एक सरकारी विभाग में नयी-नयी नौकरी लगने के बाद वह मुज़फ्फरपुर में रहने लगी है. प्रायः अकेले ही वह वहाॅं रहती है; वैसे उसकी माॅं भी मोहवश वहाॅं चली जाती है और कुछ दिन रहकर फिर वापस पटना लौट आती है. उसकी माॅं की स्थिति तो एक पेंडुलम जैसी हो चली है; कभी यहाॅं कभी वहाॅं.
वह शनिवार को आफिस के बाद पटना आयी है. मैं जब आफिस से लौटा तो उसे शाम में घर आया देख बहुत खुशी हुई.
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दिन- रविवार
बेटी- पापा चलिए मुझे अपने लिए कुछ ड्रेस खरीदना है. कल सवेरे मुझे वापस मुजफ्फरपुर लौट जाना है
[पहले भी मैं उसके साथ जाया करता था जहाॅं मेरा काम उसके खरीददारी का भुगतान करने तक सीमित था, बांकि ड्रेस पसंद करने का काम उसके खुद का होता था जिसमें मैं चाहकर भी भागीदार नहीं हो सकता था. वजह साफ थी; मेरी पसंद अपनी जेब की सेहत को देखते हुए होती थी जबकि उसकी पसंद को मेरी जेब की सेहत से कोई ख़ास लेना-देना नहीं रहता था. अपनी पसंद ही उसके लिए सर्वोपरि था.
दुकान भी हाय-फाय और दुकानदार भी एक नम्बर का घुटा हुआ शातिर चालाक. जानबूझकर वह उसे महंगे सूट हीं दिखलाता और मेरी तरफ देख कर कहता- सर! आपकी पसंद अब ओल्ड फैशन का हो गया है; आपकी बिटिया की पसंद एकदम परफेक्ट है. वगैरह-वगैरह.
मैं सब कुछ समझते हुए भी चुप रहता था. खैर]
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मैं-ठीक है चलो.
मैं उसी दुकान में जाने के लिए मुड़ा जहाॅं से अक्सर वह खरीदती थी.
वह- नहीं पापा! उस दुकान में नहीं जाना है. मुझे उस दुकान से अभी नहीं लेना है.
मैं-क्यों; तुम तो इसी दुकान से कपड़े खरीदती आई हो.आज इससे क्यों नहीं? मैंने आश्चर्य से पूछा.
वह-क्योंकि आज मैं अपने पैसे से खरीदने वाली हूॅं. उतना महंगा ड्रेस खरीदने में मुझे बुद्धिमानी नहीं नजर आती है. ड्रेस का एक हद तक हीं किसी के व्यक्तित्व में योगदान रहता है बाकि लोगों की पर्सनालिटी बहुत कुछ कई दूसरे फेक्टर्स पर डिपेंड करती है जिसे आप मुझसे बेहतर जानते हैं.
और फिर ये दुकानदार बहुत चढ़ा कर भी क़ीमत रखता है;उसी तरह का ड्रेस मटेरियल उस दुकान में भी मिलता है और प्राइस भी बहुत रिजनेबल.
मैं- नहीं उसी दुकान में चलो जहाॅं से तुम खरीदते आयी हो और जहाॅं तक प्राइस की बात है तो मैं ही खरीद देता हूॅं. और अभी तक तो मैं हीं खरीदता आया हूॅं. मैंने ज़िद किया.
वह- नहीं, नहीं फिर कभी. वैसे अगले महीने में मेरा जन्मदिन आने वाला है तब आप अपने इस शौक़ को पूरा कर सकते हैं. उसने हॅंसते हुए कहा.
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मैं खड़ा-खड़ा उसे देख रहा था और सोच रहा था- सचमुच जब आदमी ख़ुद कमाने लगता है तो उसकी थिंकिंग किस क़दर मेच्योर होती चली जाती है.
और यह सोचते हुए मैं मन हीं मन खुश भी हो रहा था.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२०.१०.२०२४.
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