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हनुमत्श्लोक

हनूमान प्रभंजनजाया सर्वविद्या विशारद: आञ्जनेयं महावीर: संकटापन्ने आत्मबल: सर्वकालेसर्वव्यापीसर्वसमर्थ:सर्वकार्यविधायक: यदृच्छया चोपपन्न भयानिष्टोत्पातादिविनाशक: प्रविश्यस्वर्णपूरीददाहलंकाम् हत्कुमारअक्षय: पददलितोपिनष्ट पुरीलंकाम् मर्दितोदर्प रावण: हनुमतोर्वसतिससीतराम: रामस्याक्लिष्ट कर्मण:  सकृदपि पठेत् वा भजते भावपूर्वक: अचिरात भवति ते रामद्वार प्रियसेवक:                                          (स्वरचित) ************************************* ~राजीव रंजन प्रभाकर:     १८.०५.२०२५.

नाम की महिमा,नामापराध तथा उसके प्रकार

 भगवान के नाम में कल्याण की अपार शक्ति है.अपने किसी भी नाम की महिमा का सम्पूर्णता में बखान स्वयं भगवान भी नहीं कर सकते हैं.  रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- कहौं कहां लगि नाम बड़ाई  राम न सकहि नाम गुण गाइ उसी स्थल पर यह भी उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि नाम और नामी(वह व्यक्ति जिसका कि वह नाम हो) यद्यपि प्रथम दृष्टया एक प्रतीत होता है किन्तु दोनों के बीच अंतर है. उसमें जहाॅं नाम स्वामी है तो नामी सेवक. सामान्य अनुभव भी यही कहता है कि यदि हम किसी का नाम लेकर पुकारते हैं तो उस नाम का जो भी व्यक्ति (नामी) वहाॅं उपस्थित रहता है उसका ध्यान पुकारने वाले पर चला हीं जाता है. आप पुत्र को या पत्नी को या भाई को उसका नाम लेकर पुकारते हैं तो वह आपके पास न भी हो तो सुनने पर वह आ जाते हैं; यह हम सभी का सामान्य अनुभव है.प्रेम से पुकारने में वह व्यक्ति(नामी) आपसे वैसा हीं व्यवहार भी करता है.  फिर समझने कि बात यह है कि यदि हम भगवान का नाम लेकर उन्हें पुकारें तो कोई कारण नहीं कि उनका ध्यान हमारे ऊपर न जाए. अस्तु. ********************************************************** कि...

सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

रिश्ता निभाने में मैंने अपने जानते कोई कमी नहीं की दूर के सगे सम्बन्धी से लेकर नजदीक के भाई-भतीजे तक दूर के इष्ट से लेकर क़रीब के मित्र तक  कभी नहीं गया मैं उनके यहाॅं बग़ैर सौगात लेकर  पड़े दोस्त अगर बीमार तो दौड़ पड़ा दवा लेकर   दौरान-ए-कोविड तो भेज दिया अपना टीका भी उनके घर  दा’वत में कभी उन्हें बुलाया तो कभी मैं गया उनके यहाॅं ऐसा लगता था कि मैं उन नातों-रिश्तों की बदौलत पहाड़ से भी टकरा सकता हूॅं  *** हक़ीक़त तब समझ में आई जब किसी बात को लेकर  अपने एक पड़ोसी से आज मेरी ठन गई  मैंने सोचा नातेदारी रिश्तेदारी किस दिन काम आएगी सभी को फोन मिलाया जवाब मुख़्तलिफ़ आया ज़वाब क्या था महज़ हीला हवाली और क़ज़ा लुब्ब-ए-लुबाब ये कि वक़्त पर कोई काम नहीं आया ‘ऐन वक़्त पर ख़ुद को अकेला हीं पाया  मौक़े’ पर आने की कौन कहे  सभी सिर्फ दूर से मशविरा वो नसीहत हीं देते रहे  इस नये तजुर्बे से मैं अब ये सबक़ लूॅंगा  नातेदारी रिश्तेदारी को उतना ही अहमियत दूॅंगा जितना रिश्ता रखने भर ज़रुरी समझूंगा मैं अब सिर्फ ख़ुद पर हीं भरोसा करूंगा  दोस्ती औ...

सुतीक्ष्ण मुनि की गुरु-दक्षिणा

शिष्य भी गुरु के लिए कभी-कभी ऐसा कार्य कर जाता है जिससे शिष्य का जीवन तो कृतार्थ हो हीं जाता है,गुरु का जीवन भी कृतकृत्य हो जाता है. इस संदर्भ में एक प्रसंग का वर्णन अर्पित किया जा रहा है जो इसे समझने में सहायक सिद्ध होगा. गुरु-दक्षिणा वाले इस प्रसंग का मूल स्त्रोत कौन सा ग्रंथ है इसका ठीक-ठीक मुझे पता नहीं है. तथापि सीधे तौर पर तो नहीं किंतु प्रकारांतर से गोस्वामीजी रचित रामचरितमानस मानस में इसकी झाॅंकी मिलती है. ******************************************************** सुतीक्ष्ण मुनि का प्रसंग रामचरितमानस में आता है. वे त्रिकालदर्शी अगस्त्य‌ऋषि के शिष्य थे. विद्या अध्ययन की समाप्ति के पश्चात सुतीक्ष्णजी अपने गुरु अगस्त्य ऋषि को गुरू-दक्षिणा अर्पित करने के प्रयोजन से गुरू को आदेश देने का निवेदन किया. इस अनुरोध पर अगस्त्यजी बोले- वत्स! मुझे गुरु-दक्षिणा में कुछ देने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तुम्हारी सेवा से हीं अत्यंत प्रसन्न हूॅं. तुम्हारा विद्या अध्ययन समाप्त हो चुका है. अब तुम सुखपूर्वक अपना शेष जीवन अपनी रूचि के अनुसार व्यतीत करने हेतु स्वतंत्र हो. सुतीक्ष्णजी- गुरुदेव! बिना गुर...

हे प्रभु!

हे प्रभु! मैं स्वयं को इस योग्य समझता हीं नहीं कि आप मुझे अपना रूप दर्शन करा दें. क्योंकि आपने मुझे नाम लेने योग्य बना दिया फिर भी सांसारिक प्रपंचों में घिरा ठीक से मैं आपका नाम तक नहीं ले पाता हूॅं. प्रभु!  आपसे प्रार्थना है कि मेरे ऊपर इतना भर कृपा कर दीजिए कि भले हीं आपका नाम भी ठीक से न ले पाऊॅं किंतु आपका नाम लेने की चाहना मात्र मुझमें उत्पन्न होकर नित्य बढ़ती जाए. दर्शन का क्या है;बाद में देखा जाएगा. राजीव रंजन प्रभाकर. ११.०५.२०२५.

तूॅं जहाॅं भी जाओगे सामने मुझे पाओगे.

'अमल हमारा कभी क़त्ल ओ ग़ारत का रहा नहीं  अफसोस मेरे तहम्मुल को तुमने बुज़दिली जाना  जो आ जाएं अगर हम अपने आन पे बरसा देते हैं क़हर हम आसमान से. जब हो जाए अहसास तुम्हें अपनी ग़लती का आ जाना हम माद्दा भी रखते हैं माफ करने का. ~ राजीव रंजन प्रभाकर  عمل ہمارا کبھی قتل وغارت کا رہا نہیں افسوس میرے تحمیل کو تمنے بزدلی جانا۔ جو آ جایں اگر ہم اپنے آن پہ برسا دیتے ہیں قہر ہم آسمان سے ہو جائے جب احساس تمہیں اپنی غلتی کا  آ جانا ہم مادہ بھی رختے ہیں معاف کرنےکا ~راجیو رنجن پربھاکر۔

जगज्जननी सीताजी

आज वैशाख शुक्ल नवमी तिथि है. भूमिजा माता जानकी के इस तिथि में पृथ्वी पर प्रकट होने से इस तिथि को जानकी नवमी के रूप में भी स्मरण किया जाता है.  यह भी एक वास्तविकता है कि जिस धूम-धाम एवं हर्षोल्लास से प्रभु श्रीराम की जयंती सम्पूर्ण भारत में मनती है उस का न्यूनतम भी जानकी जयंती पर नहीं देखा जाता. यह आश्चर्यजनक है कि भगवान श्रीराम अवध में जन्म लेकर सम्पूर्ण सनातन धर्म के ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ हैं वहीं मिथिला में जन्मी माता जानकी को ‘जगज्जननी’ के रूप में वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है जो उनके पति को है.  सम्पूर्ण उत्तर भारत में रामनवमी पर सरकारी अवकाश घोषित रहता है वहीं जानकी जयंती पर सिर्फ बिहार में अवकाश घोषित है. यह अवकाश भी वर्ष 2011 से पहले हमारे प्रदेश में तो नहीं हीं था पूरे भारत के किसी राज्य में नहीं था. मेरी जानकारी में आज की तिथि में भी बिहार को छोड़कर किसी भी प्रदेश में नहीं है.  ध्यान देने योग्य बात है कि हमारे पड़ोस नेपाल में जानकी जयंती राजकीय अवकाश के रूप में बहुत पूर्व से ही प्रचलित है.  हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हैं कि प्रदेश में जानकी नवमी प...

अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त.(एक लम्बी कहानी)

अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त. (एक लम्बी कहानी) ************************************************** विभूति नारायणजी गाॅंव में रहते थे. अपने जमाने में मेरिट से पढ़ाई कर वे सेकेंड डिवीजन से बीए भी पास किए थे; किन्तु चाह कर भी सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर सके. एक दो जगह लिखित परीक्षा पास करने पर इंटरव्यू के लिए बुलावा भी आया. इंटरव्यू देने के बाद कमरे से बाहर चपरासी कह रहा था-अरे इ सब नाटक हो रहा है. सब सीट पर बहाली पहले से फिक्स है.  बात जो भी हो; नौकरी नहीं मिल पाने पर उनके पिताजी ने कहा- कहॉं नौकरी के चक्कर में भटक रहे हो. गाॅंव में हीं हमारे खेती-किसानी में हाथ बटाओ. तब से गाॅंव में हीं रह कर खेती किसानी करने लगे. धीरे-धीरे उसी में रम गए और खुश रहने लगे.शादी तो पढ़ते हीं समय हो गई थी और जैसा कि स्वाभाविक है शादी के साल भर में हीं एक लड़का भी पैदा हो गया. विभूति बताते हैं कि उनके पिताजी ने हीं उसके लड़के का नाम सुफल नारायण रखा था. तब मां-बाप अपने बच्चे का नाम तक अपनी इच्छा से नहीं रख सकते थे.अब जमाना भले कुछ और हो गया हो.   सुफल बड़ा होता गया. कभी-कभी जब मन करता तो पूछ बैठते-ब...

सच को सच कहना और ----

सच को जानता हूॅं पहचानता भी हूॅं पर सच को सच कहने की ताक़त नहीं  झूट को जानता हूॅं पहचानता भी हूॅं पर झूट को झूट कहने का साहस नहीं                    *** साहब को ख़ुश रखने की ख़ातिर  वही बोलता हूॅं जो वो सुनना चाहते हैं  वही लिखता हूॅं जो वो पढ़ना चाहते हैं                    *** इस दौर में जो नीम सच और नीम झूट बोलने की हिक्मत रखता है  दुनिया उसे हीं हाथों-हाथ लेती है. दुनिया उसे हीं सलाम और उसी का इस्तक़बाल करती  है.                      *** जो बड़ी ख़ूबसूरती से झूट में सच को मिलाने का माहिर है  दुनिया में वही 'आलिम है वही फ़ाज़िल है वही कामिल है कहलाने के क़ाबिल है.                     *** सच को सच कहनेवाला और झूट को झूट  निगाह ए दुनिया में है वो निहायत हीं बेवक़ूफ़                     *** ~राजीव रंज...

मनुष्य के अंतःकरण में विद्यमान परमाणु दोष

मनुष्य का जीवन माया द्वारा शासित है. अज्ञान माया का मुख्य हथियार है. इसके प्रहार से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के नाश होते हीं मनुष्य तमाम तरह के दोषों से पीड़ित हो जाता है.   ये दोष सूक्ष्म रूप से न्यूनाधिकता में प्रायः सभी मनुष्यों में विद्यमान हैं. इसलिए इन्हें परमाणु दोष कहते हैं. सूक्ष्म होने के कारण ये तुरंत दिखते भी नहीं और ये जल्दी पकड़ में भी नहीं आते हैं.  कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिसका विवेक सदैव जाग्रत रहता है उसे इन परमाणु दोषों से उत्पन्न काम,क्रोध, लोभ, दम्भ, कपट, पाखंड परास्त नहीं कर सकता है.  लेकिन यह भी सत्य है कि व्यक्ति का विवेक सदैव जाग्रत नहीं रहता है. यहाॅं यह बात सामान्य मनुष्य के लिए कही जा रही है. योगी, जीवन-मुक्त महात्माओं का विवेक हम सदैव जाग्रत मान सकते हैं क्योंकि उनमें मायाजन्य दोषों का प्राय: अभाव पाया जाता है. अस्तु.                                  *** शास्त्रों में इन दोषों की मुख्यतः चार विभागों के अंतर्गत विवेचना की गई है. ये निम...

पति-पत्नी और मोबाइल.

पति-पत्नी और मोबाइल. *************************************** पति-पत्नी का अलग-अलग दिन भर मोबाइल पर रहने से कहीं अच्छा है कि दोनों किसी-किसी छोटी बात को लेकर आपस में झगड़ पड़ें.  बहाना कुछ भी हो सकता है. The list is illustrative; not exhaustive.                          *** १.कभी दाल में नमक ज्यादा होने का मु'आमला बनाकर  २.कभी घर में चश्मा नहीं मिलने को मुद्दा' बनाकर  ३. कभी पेन यथा स्थान नहीं पाने पर इसे इशू बनाकर  ४. कभी पत्नी द्वारा पति के "बच्चे की पढ़ाई पर जरा भी ध्यान नहीं देने" का बहाना बना कर  ५. कभी पत्नी पर पति द्वारा "बच्चे को बिगाड़कर रख देने" का इल्ज़ाम लगा कर  वग़ैरह वग़ैरह वग़ैरह.                        *** खुद में खोए रहने की प्रवृत्ति और संवादहीनता जो मोबाइल के कारण बढ़ रही है, वह कम होगी और इस प्रकार घर का वातावरण बोझिल नहीं मा'लूम देगा. घरेलू संवादजन्य क्रियाकलाप शुष्क हो रहे दाम्पत्य प्रेम को सींचने का काम करता है. ...

जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा

जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा  *************************************** आज हनुमान जयंती है. इस पुनीत अवसर पर हनुमान जी का स्मरण करना चाहिए. ये हनुमान जी हीं थे जिनकी कृपा से गोस्वामी तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हुए. कृतज्ञ तुलसीदास जी ने हनुमानजी के प्रति आभार व्यक्त करने में हनुमान चालीसा की हीं रचना कर दी.                           *** हनुमान चालीसा के नाम,गुण और प्रभाव के बारे में इतना कहना हीं पर्याप्त है कि इसे “पढ़’’ लेने मात्र से हीं व्यक्ति सिद्ध हो जाता है. इसकी घोषणा मैं नहीं बल्कि गोस्वामी जी ने स्वयं उसी हनुमान चालीसा में कर दिया है. शायद आपने भी हनुमान चालीसा की इस पंक्ति पर ध्यान दिया होगा. “जो यह 'पढ़ै' हनुमान चलीसा होय 'सिद्धि' साखी गौरीसा.” गोस्वामीजी ने यह नहीं कहा कि जो यह गावै या ध्यावै या पूजै या अर्चै; उन्होंने मात्र इतना कहा कि “जो यह पढ़ै”. अर्थात् हनुमान चालीसा के पढ़ने मात्र से व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर लेगा.                       ...

मानस चालीसा

-: श्रीरामचरितमानस चालीसा :-   (श्रीराम जयराम जय जय राम) ************************************* सकल जीव संरक्षक राम । श्रीराम जयराम जय जय राम।‌।(१) चराचर सृष्टि पूजित राम ।   श्रीराम जयराम जय जय राम।।(२) कालभुजगस्य जनक: राम। श्रीराम जयराम जय जय राम ।।(३) हनुमतसेवित श्रीसीताराम।    श्रीराम जयराम जय जय राम ।।(४) भवानीशंकर वंदित राम। श्रीराम जयराम जय जय राम ।।(५) काकभुशुण्डि बालक राम। श्रीराम जयराम जय जय राम।।(६) दिनेश वंश भूषण राम।       श्रीराम जयराम जय जय राम।‌।(७) कौशल्या के नंदन राम। श्रीराम जयराम जय जय राम।।(८) भरत सेवक स्वामी राम। श्रीराम जयराम जय जय राम ।।(९) दशरथ के प्राणों के प्राण। श्रीराम जयराम जय जय राम।।(१०) ताड़कादि निपातक राम। श्रीराम जयराम जय जय राम।।(११) विश्वामित्र मखरक्षक राम‌‌। श्रीराम जयराम जय जय राम।।(१२) अहिल्या के उद्धारक राम।  श्रीराम जयराम जय जय राम।।(१३) वैदेही प्राणवल्लभ राम । श्रीराम जयराम जय जय राम।।(१४) जनक सुनैना स्नेही राम।   श्रीराम जयराम जय जय राम।।(१५) जामजग्निगर्वविभंजकराम। श्रीराम जयराम जय जय ...

वह 'इश्क़ हीं कैसा जो

वह 'इश्क़ हीं कैसा जो ज़ाहिर होने की ख़ातिर बेताब हो. वह मंज़िल हीं क्या जो घर से निकलते हीं दस्तेयाब हो. वह फूल हीं कैसा जो काॅंटों के बीच न खिल सके. वह अनवार हीं क्या जो नफ़रत को न मिटा सके. वह सड़क ही क्या जो आगे जाकर आपस में मिलने की बजाय ख़त्म हीं हो जाती हो. वह आदमी हीं कैसा जिसकी पहचान उसके 'ओहदे के बग़ैर न हो पाती हो.                     ** जो शख़्स कोई ख़ुद को ख़ुद से मिलाने की ख़्वाहिश अगर दिल में रखे. तो क्या' व 'कैसा' के इस मे'यार को पार कर जाने की कोशिश जारी रखे. 'ईद मुबारक. ~राजीव रंजन प्रभाकर. وہ عشق ہیں کیا جو ظاہر ہونے کی خاطر بیتاب ہو  وہ منزل ہیں کیا جو گھر سے نکلتے ہیں دستیاب ہو۔ وہ پھول ہیں کیسا جو کانٹوں کے بیچ نہ کھل سکے  وہ انوار ہیں کیا جو نفرت کو نہ مٹا سکے وہ سڑک ہی کیا جو آگے جاکر آپس میں ملنےکی بجاے ختم ہیں ہو جاتی ہو۔ وہ آدمی ہیں کیا جس کی پہچان اس کے عہدے کے بغیر نہ ہو پاتی ہو۔                               ** جو شخص کوئی ...

यूॅं ख़फ़ा मत बैठे रहो.

मनाने की उम्मीद में यूॅं ख़फ़ा मत बैठे रहो  चलो उठो भी और अपना काम शुरू' करो आज के दौर में कोई किसी को मनाने आता नहीं  मत रूठो जब ख़ुद को ख़ुद से मनाना आता नहीं  ख़ुद से ख़ुद को मनाना भी एक 'आला फ़नकारी है  वरना ज़िंदगी जीना भी एक बहुत बड़ी दुश्वारी है. ~राजीव रंजन प्रभाकर  منانے کی امید میں یوں خفا مت بیٹھے رہو  چلو اٹھو بھی اور اپنا کام شروع کرو آج کے دور میں کوئی کسی کو منانے آتا نہیں  مت روٹھو جب خود کو خود سے منانا آتا نہیں  خود کو خود سے منانا بھی ایک اعلیٰ فنکار ہے ورنہ زندگی جینا بھی ایک بہت بڑی دشواری ہے ~راجیو رنجن پربھاکر

एक शिक्षाप्रद कहानी.

यह कहानी मैंने गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित एक पुस्तक में पढ़ी थी. इस उपदेशप्रद कहानी गीता प्रेस के संस्थापक स्वनामधन्य सेठ ब्रह्मलीन स्व.जयदयाल जी गोयन्दका ने लिखी थी. इसी कहानी को मैंने अपने शब्दों में कतिपय महत्वहीन हेरफेर के साथ लिखने का प्रयास किया है.  इसके पढ़ने के उपरांत आजकल के अधिकांश भोगैश्वर्यासक्त कथावाचक या प्रवचनकर्ता जो नाना प्रकार के श्रृंगार कर कथावाचन या उपदेश देने का उपक्रम करते हैं,का यदि सहसा स्मरण हो जाए तो कोई हरज भी नहीं है.                             *** एक राजा था. वैसे तो ठीक था लेकिन थोड़ा हिसाबी था. राज कोष से किए जाने वाले ख़र्च में ध्यान रखता था कि जिस मद में ख़र्च हो रहा है उसके अनुरूप लाभ या परिणाम प्राप्त हो रहा है या नहीं. मतलब कि ख़र्च कोई भी हो वह result oriented होना जरूरी था. आज के आर्थिक शब्दावली में यदि कहें तो राजा Performance Budgeting का विशेषज्ञ था.  राजा के उक्त स्वभाव को देखते हुए यह irony हीं कहा जाएगा कि राजा ने अपने दरबार में प्रतिदिन अध्यात्म और तत्...

शिव विवाह

शिव विवाह  सिवहिं संभु गन करिहिं सिंगारा।  जटा मुकुट अहि मौरू सँवारा।। कुंडल कंकन पहिरे ब्याला।  तन बिभूति पट केहरि छाला।। ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।  नयन तीनि उपबीत भुजंगा।।  गरल कंठ उर नर सिर माला।  असिव बेष सिवधाम कृपाला।।  कर त्रिसूल अरु डमरू बिराजा। चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा।।  देखि सिवहिं सुरत्रिय मुसुकाहीं।  बर लायक दुलहिनि जग नाहीं।।                      **  (शिव के गण ने अपने स्वामी का श्रृंगार कुछ ऐसा ही किया है जो देखने योग्य है किन्तु उसका बखान करना कठिन है.  उन्होने शिवजी को उनकी जटाओं का हीं मुकुट बनाकर उन्हें पहना दिया है और माथे पर मौरी के रूप में साॅंप को उन्होंने अत्यंत सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा दिया गया है. कानों में कुंडल तथा हाथों में कंगन के रूप में सर्प शोभायमान है,सम्पूर्ण गौर शरीर पर अंगराग के रूप में श्मशान का भभूत अपनी अलग ही छटा बिखेर रहा है. त्रिनेत्र शिव के ललाट पर चंद्रमा एवं सिर पर देवसरि गंगा प्रवाहित है. जनेऊ के रूप में भी सर्प तथा कंठ के मध्य में हला...

रामचरितमानस में पर्यावरणतत्व का दिग्दर्शन

गोस्वामी तुलसीदासजी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की मूर्ति थे। उनके द्वारा रचित रामचरितमानस एक सर्वांग सुंदर ग्रंथ है जिसके बारे में मान्यता है कि गोस्वामी जी ने इसकी रचना भगवान गौरीशंकर की आज्ञा से किया।  वैसे तो इस ग्रंथ की रचना तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव भगवान श्रीराम के चरित्र का वर्णन अपनी भाषा में कर अपने चित्त को सुख प्रदान करने के लिए हीं किया किंतु इससे भविष्य में होने वाले हुए लोकोपकार का अनुमान कदाचित गोस्वामी जी को भी नहीं रहा होगा।   भगवान श्रीराम के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को केंद्र में रखकर गोस्वामी जी ने जिस तरह से लोकनीति,राजनीति कर्म,धर्म,अध्यात्म,योग,दर्शन,ज्ञान,त्याग,प्रेम और वैराग्य सहित जीवन के विविध पक्षों से सम्बंधित आदर्श मूल्यों एवं तत्वों को उन्होंने इसमें जो सरल,सुबोध एवं सुग्राह्य शैली में सुंदर और सुरूचिपूर्ण ढंग से पिरोया है,उसका दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है. यह उनके विशाल एवं अथाह आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक अनुभवसंचित ज्ञान का दिग्दर्शन कराता है।  ******************************************************* रामचरितमानस में रामकथा के माध्यम से वर्णित जी...

नया शा'इर बने हो

नया शा'इर बने हो जिस तिस को शे'र सुनाने बैठ जाते हो ख़ुद अपने ही हाथों अपने अश'आर की तौहीन कर जाते हो यहाॅं अश'आर को हुरूफ-ए-तहसीन हैसियत से मिलती है  जो मेरी बात का ए'तबार नहीं तो एक बार किसी महफ़िल में जाकर देखो ये दुनिया वाह वाह भी उसी के लिए करती है जिसे वह अपने लायक या बराबर समझती है.                   ** ग़म हो या शा'यरी दस्त ए बुक़्चा उसका वहीं खोलो  जो हो तुम्हारा हमदर्द या फिर सुकूॅं का हो मुंतज़िर जो हो हम ख़्याल या फिर हम सफ़र  क्योंकि- भूक और छाॅंव की अहमियत का उसी को पता होता है  जो शिकम जला धूप में दूर से चल कर आया होता है. ~ राजीव रंजन प्रभाकर. نیا شاعر بنے ہو جس تس کو شعر سنانے بیٹھ جاتے ہو۔ خود اپنے ہی ہاتھوں اپنے اشعار کی توہین کر جاتے ہو۔ یہاں اشعار کے لیے حروف تحسین حیثیت سے ملتی ہے۔ جو میری بات کا اعتبار نہیں تو ایک بار کسی محفل میں جا کر دیکھو۔ یہ دنیا واہ واہ بھی اسی کے لیے کرتی ہے  جسے وہ اپنے لائیک یا برابر سمجھتی ہے ۔                     ...

जो साथ मेरे चल सको तो चलो

मेरी खुशी के लिए  जो साथ मेरे चल सको तो चलो. क़दम से क़दम मिलाकर चलने की ज़रूरत भी नहीं; तुम आगे और मैं पीछे  ऐसा भी गर मिलकर  हम चल सकें तो चलो. तेज़ तेज़ न सही  धीरे-धीरे हीं मगर   चल सको तो चलो.              ** जो जोश में या ग़ुस्से में  कभी दूर आगे तक मैं बढ़ जाऊं  तुम मुझे आवाज़ देकर बुला लेना.  जो तुम नाराज़ होकर  तेज़ चल काफी आगे तक निकल जाओ तुम वहीं पर रुकी रहना  जब तलक मैं दौड़ कर  तुम्हारे क़रीब न आ जाऊं.             ** क्या हीं अच्छा हो जो  ये आगे पीछे का खेल  तब तलक चलता रहे जब तलक खेल-खेल में ही  पहुॅंच जाएं साथ हीं  हम दोनों वहाॅं जहाॅं  'इस' धरा से 'उस' गगन तक  प्रकाश हीं प्रकाश हो. अगर दिली ख़्वाहिश तुम्हारी भी कुछ ऐसी ही हो तो बिला झिझक पास आ जाओ और चलो. ~ राजीव रंजन प्रभाकर. میری خوشی کے لیے  میرے ساتھ چل سکو تو چلو  قدم سے قدم ملا کر  چلنے کی ضرورت بھی نہیں؛ چاہے تم آگے اور میں پیچھے  ایسا ب...