रावण का बेटा प्रहस्त

रावण के अनेक पुत्र थे. उनमें उसके दो पुत्र मेघनाद तथा अक्षय कुमार के बारे में प्रायः सभी लोग जानते हैं. मेघनाद उसका ज्येष्ठ पुत्र था जो अपने पिता के समान हीं अत्यंत मायावी एवं अतुलित बलशाली था. परम मायावी तथा अतुलित बलशाली होने के साथ-साथ मेघनाद अपने पिता का परम आज्ञाकारी भी था. रावण की जो भी आज्ञा होती उसे वह ऑंख मूंद कर पालन करता था. यही कारण था कि वह अपने पिता का परम प्रिय पुत्र था. 
अक्षय कुमार भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के समान हीं बलवान और पितृभक्त था. 
         जहाॅं युद्ध में मेघनाद का वध रामानुज लक्ष्मण के हाथों हुआ अक्षय कुमार हनुमान के हाथों युद्ध से पहले हीं मारा गया. 
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उपरोक्त दोनों पुत्रों के अतिरिक्त रामचरितमानस में रावण के जिस एक अन्य पुत्र की चर्चा हुई है, उसका नाम प्रहस्त है. 
प्रहस्त उचित वक्ता था. वह ठकुरसुहाती करना नहीं जानता था.
यह अनुभव की बात है कि जो सत्य बोलता है वह किसी का प्रिय नहीं होता है. सत्ता को तो बिल्कुल नहीं. 
सत्ता को स्तुति प्रिय है.सत्ता का यह सहज यह स्वभाव होता है कि उसका जो चारण करता है वह शीघ्र ही सत्ता का प्रियपात्र बन जाता है.
इसीलिए जो सभासद होते हैं उनमें अधिकांश चाटूकार बन जाते हैं. राजा की हाॅं में हाॅं मिलाने पर हीं उन्हें प्रायः वेतन,भत्ता तथा नानारूपी सुख-सुविधा नसीब होता है जिसके छिन जाने का बराबर भय बना रहने के कारण वे वही कहते हैं जो राजा सुनना चाहता है. 
यह भी कि वे जानबूझ कर ऐसे निर्भीक होकर सही और उचित कहने वाले लोगों को सत्ता केंद्र से दूर रखना चाहते हैं ताकि उनकी चाटूकारिता की पोल नहीं खुले. 
अस्तु.
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यही बात लंकेश रावण के सभासद का भी था. विभीषण ने सही सलाह दी तो उसे रावण की लात खानी पड़ी. रावण ने अपने वृद्ध नाना माल्यवंत को भी विभीषण की बातों का अनुमोदन करने पर उसे भरी सभा में पीटने तक की धमकी दी. इसलिए राक्षसेंन्द्र रावण के सभी सभासद उसकी प्रत्येक बातों का बढ़-चढ़ कर अनुमोदन किया करते थे किन्तु उसका स्वयं का पुत्र प्रहस्त रावण की हर बात में हाॅं में हाॅं नहीं मिलाता था. रावण कभी किसी की निर्भीक सलाह पसंद नहीं करता था. किंतु पुत्र होने के कारण किया भी क्या जा सकता था. इसी कारण रावण को वह फूटी ऑंख नहीं सुहाता था.
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लंका काण्ड में रावण और प्रहस्त के बीच हुए एक संवाद का वर्णन नीचे किया गया है. वर्णन का आधार वही रामचरितमानस है.
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राजसभा में रावण-------
रावण- माननीय सभासद गण! आप को तो मालूम हीं है कि वानरी सेना समुद्र पार कर युद्ध करने की मंशा से लंका में प्रवेश कर चुकी है. अब आप लोगों का क्या विचार है?
                सभी सभासद गण आसन से उचक-उचक कर रावण को सलाह देना शुरू कर देते हैं ताकि लंकेश रावण की नजरों में उनकी वीरता उभर कर सामने आए और रावण की दृष्टि में उनका मानवर्धन हो.
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सभासदों में से एक-  प्रभु! आप क्यों व्यर्थ चिंता कर रहे हैं?  यम, कुबेर, सुरेश, दसों दिक्पाल सभी जब आपसे थर-थर काॅंपते हैं तो इन तुच्छ नर-वानरों की आपके सामने हस्ती हीं क्या है? इन तुच्छ नर-वानर का हमलोगों के समक्ष कोई अस्तित्व है? 

दूसरा- महाराज की जय हो!
 स्वामी आप बिल्कुल निश्चिंत रहिए. ये वानर-भालू हम राक्षसों के लिए क्या चीज़ हैं?
 इनके लिए तो आपका ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद हीं काफी है. उनके एक मेघगर्जना सदृश हुंकार से सारे वानर-भालू पल में भाग खड़े होंगे.  भाग कर कहीं कोई जगह नहीं मिलता देख वे अंततः उसी समुद्र में कूद-कूदकर अपने प्राण दे देंगे. 

तीसरा- वीर लंकेश की जय हो! महाराज! आप जो मंत्री गण से विचार पूछ रहे हैं इसमें विचार योग्य बात हीं क्या है! मंत्री गण के लिए तो यह मंत्रणायोग्य विषय हीं नहीं है. मंत्रणा तो तब आवश्यक होता है जब पक्ष-प्रतिपक्ष बराबरी का हो.  उनसे हमारी भला क्या बराबरी! जरा सोचिए नर-वानर-भालू आदि तो हम राक्षसों का आहार ठहरा. इन्हें आने तो दीजिए; हम भूखे राक्षसों का आहार का समाधान कुछ दिनों के लिए हो जाएगा.

चौथा (मुस्कुराने की भंगिमा बना कर)- महाराज! आपके अनुज कुंभकर्ण बानर-भालूओं का आर्तनाद सुनकर कहीं गलती से जग ग‌ए तो बाॅंकि राक्षस गण बेचारे तो उस आहार से भी वंचित रह जाएंगे क्योंकि सभी वानर-भालू को तो आपका वह कुंभकर्णी भाई अकेले हीं चट कर जाएगा. फिर हमलोगों के लिए तो कुछ बचेगा हीं नहीं.
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                इस प्रकार सभी सभासद रावण की सभा में डींग हाॅंक रहे थे और प्रत्येक सभासद के वक्तव्य का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से हो रही थी.
             दसकन्धर रावण अपने सभासदों की बातों को सुन-सुनकर आनंदित हुआ जा रहा था.
 सभा वीररस से लबालब भरी जा रही थी.

तभी सभा में सहसा रावण का पुत्र प्रहस्त उठ खड़ा हुआ.
प्रहस्त- महाराज की जय हो. सभा मैं भी अपने कुछ विचार रखने की अनुमति चाहता हूॅं.
उसे देख कर रावण ने त्योरी चढ़ाकर कहा- कहो क्या कहना चाहते हो?

प्रहस्त- ये जो सभी सभासद अपनी झूठी वीरता का बखान कर रहे हैं वे महाराज आपको दिग्भ्रमित कर रहे हैं.
 महाराज इनसे पूछिए जब लंका में आया वह वानर जब बन को उजाड़ रहा था तब लंका के ये वीर कहाॅं थे?
  महाराज इनसे पूछिए कि तब ये वीर कहाॅं थे जब अकेला लंका आये उस वानर ने पूरी लंका को हीं उलट-पुलट कर जला दिया था?
         
         महाराज इन सभासदों से पूछिए कि जब आपका पुत्र अक्षय उस वानर के हाथों मारा गया तो उसे पकड़ कर राक्षसों ने क्यों नहीं अपनी क्षुधा मिटा ली ?

महाराज ये सभी सभासद जो आपका यशोगान सुना-सुना कर आपकी स्तुति कर रहे हैं वह वास्तव में आपका उनके ऊपर कृपा बनी रहे और वे राज्याश्रय जन्य सुख-सुविधा का निर्बाध उपभोग करते रहें इसीलिए सभी आपकी चापलूसी कर रहे हैं.

पिताजी! यह जानिए कि इस संसार में निरपेक्ष भाव से राजा को सलाह देने वाले लोग अत्यंत दुर्लभ हैं और वैसे लोग तो न के बराबर हैं जो अपना अपमान सहकर भी राजा को उचित सलाह देने से गुरेज नहीं करते हैं जैसा कि आपके सभासद अनुज विभीषण तथा माल्यवंत ने किया. 

तात! मैं अपनी मति के अनुसार यह कहना चाहता हूॅं कि सीता जिसका हरण कर आप लंका ले कर आ ग‌ए हैं वह ठीक बात नहीं है. यह दुराचार है. 

महाराज! आप सीता को लौटा दीजिए. 
भूल का अहसास हो जाने पर यदि उसका सुधार कर लिया जाए तो उसका कोई बुरा नहीं मानता. 
इससे आप के हीं यश में वृद्धि होगी तथा हुई गलती का कोई लेखा नहीं रह जाएगा.
इसीलिए सीता को महाराज आप समय रहते वापस कर दीजिए ताकि इस कारण इस समय लंका में जो युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न हो गई है उसका निवारण सम्मानपूर्वक हो जाए. 
           और हाॅं! मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूॅं कि यदि श्रीराम को सीता लौटा दिए जाने के बाद भी शत्रु युद्ध करने पर उतारू हीं हो तो महाराज! शत्रु से बिना कोई संधि किए वीरतापूर्वक हम सभी राक्षस गण लड़ेगे चाहे शत्रु हमसे बलवान हो या कमजोर.
        और कदाचित शत्रु हम राक्षसों से यदि बलवान भी होगा तब भी हम में से प्रत्येक राक्षस युद्ध में वीरगति को प्राप्त करना अपना परम धर्म समझे. राजधर्म के लिए हम वीर अपने प्राणों को न्यौछावर करने में जरा भी नहीं हिचकेंगे.
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इतना सुनना था कि रावण प्रहस्त पर आगबबूला हो गया.
रावण- अरे नालायक! तूॅं मेरा हीं पुत्र है रे! मुझे तो आश्चर्य होता है कि वीर धुरंधर रावण का पुत्र इतना डरपोक कैसे हो गया! अभी हीं तूॅं डर गया? 
कायर प्रहस्त! तूॅं तो बाॅंस के वंश में पैदा हुआ घमोई निकला रे!
रावण के ऐसे कठोर वचन सुनकर बाॅंकि सभासद भी प्रहस्त का उपहास करने लगे. 
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ऐसा होता है; खूब होता है.
ताकतवर द्वारा उपहास किए जाने पर जो अन्य दरबारी होते हैं वे भी इस उद्योग में प्रच्छन्न रूप से भाव-भंगिमा के माध्यम से सही सलाह देने वाले के केवल सलाह को हीं तुच्छ नहीं अपितु ऐसे सलाह देने वाले को भी तुच्छ सिद्ध करने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं ताकि उनके एशो-आराम वाले राज्याश्रय में ऐसे सलाह से कोई खतरा पैदा न हो जाए.
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             निर्भीक प्रहस्त सभा से अपमानित होकर चला गया. 
    किंतु चलते समय उसने रावण से कहा- महाराज! युद्ध के विषय में आपका जो भी निर्णय होगा वह मेरे लिए शिरोधार्य है किंतु पुनः इतना मैं अवश्य कहूंगा कि आपको मेरी हितप्रद बातें ठीक उसी प्रकार तिक्त और तीक्ष्ण प्रतीत हो रही है जिस प्रकार काल के वश आए रोगी को औषधि अत्यंत कड़वी लगती है. 
                                        ~राजीव रंजन प्रभाकर.
                                               ०२.०७.२०२५


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