प्रकृत्यैव मनुष्यानां प्रवृतिर्मूले.

प्रकृत्यैव मनुष्यानां प्रवृतिर्मूले
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यथा यस्य प्रकृति: तथा तस्य स्वभाव: 
यथा यस्य स्वभाव: तथा तस्य आहार:
यथा यस्य आहार: तथा तस्य विहार:
यथा यस्य विहार: तथा तस्य विचार:
यथा यस्य विचार: तथा तस्य व्यवहार:
यथा यस्य व्यवहार: तथा तस्य सत्कार: 
यथा यस्य सत्कार: तथा तस्य आकार:
यथा यस्य आकार: तथा तस्य विकार:
यथा यस्य विकार: तथा तस्य अहंकार:
यथा यस्य अहंकार: तथा तस्य संहार:
                                           (स्वरचित)
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            मनुष्य की सभी प्रवृति के मूल में उसकी अपनी प्रकृति हीं है----------

जैसी जिसकी प्रकृति होती है उसी तरह का उसका स्वभाव होता है.
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 जैसा उसका स्वभाव होता है उसी प्रकार का उसका आहार होता है.
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 जैसा उसका आहार होता है वैसा ही उसका विहार भी होता है.
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 जैसा उसका विहार होता है उसी अनुरूप उसका विचार बनता जाता है.
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 जैसा जिसका विचार होता है उसी तरह का उसका व्यवहार होता है.
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 जैसा उसका व्यवहार होता है उसी मुताबिक उसका समाज में सत्कार(सम्मान)होता है. 
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जैसा जिसका समाज में सत्कार (सम्मान)होता है वैसा हीं उसका समाज में आकार(status) होता है.
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जैसा उसका आकार(status) होता है उसी तरह के उसमें विकार(दोष) उत्पन्न होते हैं।
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 जैसे उसमें विकार उत्पन्न होते हैं उसी परिमाण में उसमें अहंकार प्रकट होते हैं.
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 जैसा जिसका अहंकार होता है उन्हीं अहम् के आकार (अहंकार) के परिमाण से वह नाश को भी प्राप्त होता है.

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तर्हि गीतायां अर्जुनस्य प्रति भगवानोऽवाच-

                    इसीलिए भगवान ने गीता में अर्जुन को कहा है-
१. प्रकृति: त्वां नियोक्ष्यति.
(तेरी प्रकृति जबरदस्ती तुझे अपने स्वाभाविक कर्म में लगा देगी)

२. स्वभावजेन कौन्तय निबद्ध: स्वेन कर्मणा 
(क्योंकि अर्जुन!व्यक्ति का कर्म उसके स्वभाव से बंधा हुआ है)

~राजीव रंजन प्रभाकर.
०८.०६.२०२५.

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