संस्कृत के कतिपय छात्रोपयोगी श्लोक **************************************
छात्र जीवन किसी व्यक्ति के जीवन का एक स्वर्णिम काल होता है, ऐसा मेरा मानना है. यही वह काल है जो किसी छात्र को भविष्य में समाज के एक जिम्मेदार एवं उपयोगी सदस्य के रूप में न्यूनाधिक रूप से निर्धारित करता है.
यह इसलिए भी कि किसी के चरित्र निर्माण में इस काल की महत्ता निर्विवाद है. चरित्र का विद्या से सीधा सरोकार होता है. कदाचित इसी लिए छात्र के लिए हम विद्यार्थी शब्द का भी उपयोग करते हैं.
छात्र जीवन वह काल है जिसमें व्यक्ति शिक्षा और विद्या दोनों को साधता है. आजकल छात्र अपना अधिकांश समय क्षेत्र विशेष से सम्बंधित पाठ्यक्रम में सन्निहित शिक्षा जिसे विषय ज्ञान कहना अधिक उपयुक्त होगा,को हीं पढ़ने और समझने में व्यतीत कर देते हैं किन्तु उनके विद्या अर्जन का उद्योग अधूरा हीं रह जाता है. परिणामस्वरूप छात्र जीवन में जिस प्रकार का व्यक्तित्व निर्माण होना चाहिए वह हो नहीं पाता है. उसका ज्ञान पात्रता से रहित हो जाता है.
पात्रता से रहित जो भी चीज चाहे वह धन हो या पद अनिष्टकारी होता है; स्वयं व्यक्ति के लिए तथा समाज के लिए भी.
विषय मात्र का ज्ञान एवं दक्षता अर्जित करते व्यक्ति को विनय विहीन और मदोन्मत्त होता भी देखा गया है.
आज के शिक्षित समाज में जितनी भी विद्रूपताएं व्याप्त हैं उसके मूल में जीवन मूल्यों की घोर उपेक्षा हीं है.
आज समाज में जितने भी तथाकथित सफल लोग हैं उनमें प्रायः पात्रता का अभाव हीं दिखता है. नेता है तो नेतृत्व के अनुरूप पात्रता नहीं, अफसर है तो पदानुरूप पात्रता नहीं, व्यापारी है तो व्यापार करने की पात्रता नहीं इत्यादि.
ध्यान रहे योग्यता, क्षमता और पात्रता में अंतर है.
ज़रूरी नहीं कि जिसे क्षमता है वह योग्य भी हो और जो योग्य हो वह पात्रता भी रखता हो.
उदाहरणार्थ- यदि आपको पढ़ाने की क्षमता है तो जरूरी नहीं कि आप शिक्षक बन जाने के योग्य हैं और यदि शिक्षक बनने के अन्यथा अयोग्य नहीं हैं तो आवश्यक नहीं कि आपमें शिक्षक बनने की पात्रता भी हो. औपचारिक पात्रता भले कोई येन-केन प्रकारेण हासिल कर लें किन्तु वास्तविक पात्रता त्याग, विवेक, कर्त्तव्यनिष्ठा, सत्य, शौच, दया और समानुभूति(empathy) से हीं निर्धारित होती है चाहे आपका पद या कद जो भी हो.
बड़ी-बड़ी परीक्षा पास कर सेवा में आने वाले अफसर चरित्र के मामले में ढ़ीले. भात-रोटी के अलावा घूस भी खाने वाले नेता एवं अफसर. खाद्य पदार्थ में मिलावट कर जनता का नानाविध शोषण करने वाले व्यापारी का धूर्तता से भरा हुआ व्यापार, पत्नी पति का या फिर पति पत्नी के जान का ग्राहक हो जाना,शारीरिक प्रेम के वशीभूत होकर पुत्र तक की हत्या कर देने वाली माता, चंद आभूषण या रूपयों की खातिर निर्दोष की हत्या करने वाले पामर; कहाॅं तक नाम लिया जाए!
एक-एक कोटि के अन्तर्गत हजारों उदाहरण हैं.
जीवन जीने का दृष्टिकोण हीं बदल गया मालूम पड़ता है. दूसरे के सुख को छीन कर अपने सुख को बढ़ाने की राक्षसी आकार की फ़िक्र इतनी हो गई है कि उसे हासिल करने में दूसरे का हम जीवन तक छीन लेने में जरा भी नहीं हिचकते.
और यही विद्या विहीन समाज की खास पहचान है.
यदि प्रारंभ में चरित्र निर्माण अच्छा या बुरा जो भी निर्मित हो जाता है, उसका प्रभाव जीवन पर्यन्त रहता है.
इसलिए छात्रों को अपने चरित्र निर्माण पर विशेष बल देना चाहिए.
चरित्र निर्माण में मेरी समझ से संस्कृत भाषा और उसके साहित्य में जो रत्न छिपा है,वह अन्यत्र दुर्लभ है.
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विद्या के अर्जन में संस्कृत भाषा और साहित्य का महत्व निर्विवाद है. संस्कृत साहित्य में रचित ग्रंथ भारतीय ज्ञान परम्परा के अक्षय स्त्रोत हैं जिसका अवगाहन कर व्यक्ति का चरित्र उज्जवल और प्रज्ञा प्रखर हो जाता है.
यद्यपि छात्र जीवन में संस्कृत के श्लोकों को कोई छात्र परीक्षा में केवल उत्तीर्ण होने के दृष्टिकोण से हीं पढ़ता है किन्तु इन्हीं श्लोकों को ज्ञान नेत्रों से देखने पर जीवन मूल्यों के संरक्षण एवं सम्वर्द्धन में एक नवीन ऊर्जा का संचार होता है जो जीवन को उद्वेगरहित तथा शांतिमय बनाने में सहायक होता है.
मेरा तो यह भी मानना है कि यदि कोई छात्र प्रतिदिन संस्कृत का एक श्लोक भी याद कर उसका मनन करे तो धीरे-धीरे उसमें जो सकारात्मक परिवर्तन होता है. इसका अनुभव वही कर सकता है और इस अनुभव को वह सम्पूर्णता से शायद हीं बता सके.
इसका कारण है कि ये श्लोक अनेकानेक शास्त्रों के अंश हैं जिसे विद्वानों ने सुभाषितानि के रूप में संकलित कर रत्न के रूप में बिखेर दिया है. जो इसका मोल समझते हैं उसे चुन लेते हैं.
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इसीलिए संस्कृत भाषा के 'सुभाषितानि' को विद्वानों ने साधकों के लिए संजीवनी बताया है.
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नीचे कुछ इसी प्रकार के श्लोकों को चयनित कर लिखा गया है जो विशेषकर छात्रों के लिए उपयोगी हैं.
1. विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं तत: सुखम्।।
(इस मूल्यवान श्लोक से यह पता चलता है कि बिना विद्या के पात्रता आ हीं नहीं सकती)
2.अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
जो व्यक्ति अभिवादनशील अर्थात् विनम्र होता है तथा हमेशा वृद्धों के प्रति सेवा भाव रखता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल इन चारों में वृद्धि होती रहती है।
( विनयशीलता छात्र को वह सफलता प्रदान करती है जो अपने से श्रेष्ठ जनों एवं गुरू जनों से मिले आशीर्वाद के बिना सम्भव नहीं है)
3.क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
यह एक प्रसिद्ध सुभाषित है जिसका अर्थ है: "प्रत्येक क्षण का उपयोग विद्या प्राप्त करने में और प्रत्येक कण का उपयोग धन संचय करने में करना चाहिए। यदि क्षण नष्ट हो जाएँ तो विद्या कैसे प्राप्त होगी, और यदि कण नष्ट हो जाएँ तो धन कैसे प्राप्त होगा?"
(इस श्लोक से यह सीख मिलती है कि चाहे धन हो या विद्या उसे थोड़ा-थोड़ा हीं सही धैर्य पूर्वक संग्रह करना चाहिए, यही बाद में विद्या के आगार के रूप में परिवर्तित हो जाता है)
4. अनभ्यासे विषं विद्या अजीर्णे भोजनं विषम् ।
विषं गोष्ठी दरिद्रस्य वृद्धस्य तरुणी विषम् ।।
अभ्यास न करने से विद्या नष्ट हो जाती है, अनियंत्रित भोजन विष तुल्य है. गरीबों का सभा सोसायटी में भाग लेना उसके लिए उपहासदायी होने के लिए विष तुल्य है तथा बूढ़े व्यक्ति के लिए जवान स्त्री विष के समान घातक है.
(उक्त श्लोक विद्या की प्राप्ति हेतु अभ्यास (revision) की अपरिहार्यता को दर्शाता है)
5.पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढ़ै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
(उक्त श्लोक अन्य संदेश सहित मधुर वाणी का आश्रय लेकर कार्य करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है)
वास्तव में इस पृथ्वी पर तीन हीं रत्न हैं; पहला जल, दूसरा अन्न तथा तीसरा मधुर वाणी.
किंतु विडम्बना देखिए कि मूर्ख लोग पत्थर के कतिपय टुकड़े को हीं रत्न कहते हैं.
6. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
उद्यम से ही कार्य सफल होते हैं, ना कि मनोरथों से.ठीक उसी प्रकार जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है.
7. न चौरहार्यं न च राजहार्य न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्द्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥
विद्या वह धन है जो न चुराया जा सकता है न हीं राज्यसात किया जा सकता है और न ही भाइयों में बाॅंटा हीं जा सकता है. जहां अन्य प्रकार के धन व्यय किए जाने पर घट जाता है विद्या धन की यह विशेषता है कि वह खर्च होने पर घटने की बजाय उससे कई गुणा परिमाण में बढ़ जाता है. इसलिए विद्या धन सभी धनों में प्रधान है.
8. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
आलस्य मनुष्य के शरीर में स्थित उसका सबसे बड़ा दुश्मन है तथा परिश्रम उसका सबसे अच्छा मित्र है.
यह श्लोक हमें सिखाता है कि विद्यार्थी को परिश्रमी होना चाहिए. जितना अधिक परिश्रम उतनी हीं अधिक सफलता और जितना आलस्य उतनी हीं सफलता से दूरी.
9. काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।
एक आदर्श विद्यार्थी के पांच गुणों उपरोक्त श्लोक में का वर्णन है जिसके अनुसार प्रत्येक विद्यार्थी से यह अपेक्षा की गई है कि वह कौवा के जैसा intelligent हो, बगुला की तरह अपने target पर ध्यान रखे तथा उसकी नींद श्वान की तरह पतला हो, सीमित मात्रा में भोजन करें यथा सम्भव घर से दूर रह कर विद्या की साधना करे.
10.गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।
अथ वा विद्यया विद्याचतुर्थो न उपलभ्यते॥
अर्थात विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है॥
11.विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
विदेश में ज्ञान, घर में अच्छे स्वभाव और गुणस्वरूप पत्नी, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का सबसे बड़ा मित्र होता है।
12.अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।
निम्न कोटि के लोग सिर्फ धन की इच्छा रखते हैं। मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा रखता है। वहीं एक उच्च कोटि के व्यक्ति के लिए सिर्फ सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है.
13. आस्ते भग आसीनस्य ऊर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चरति चरतो भगश्चरैवेति॥
बैठे मनुष्य का भाग्य भी बैठा रहता है. जैसे हीं उठ खड़ा होता है उसी समय उसका भाग्य भी उठ जाता है. इसी प्रकार सोये का भाग्य भी सोया रहता है और चलते मनुष्य का भाग्य भी उसी के साथ चलता रहता है.
यह श्लोक भाग्यहीनता का निरूद्यमता से सम्बंध पर प्रकाश डालता है. इसलिए व्यक्ति को उद्यमी होना चाहिए
14.विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।
दुर्जन अपनी विद्या का प्रयोग विवाद उत्पन्न करने में, धन का उपयोग अपने दंभ के प्रदर्शन में तथा शक्ति का प्रयोग निर्बल को सताने में किया करते हैं. इसके विपरीत सज्जनों की विद्या, धन और शक्ति ज्ञान, दान तथा कमजोर की रक्षा में प्रयुक्त होती है.
15.सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेत्विद्यां विद्यार्थी व त्यजेत् सुखम् ।
सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या की प्राप्ति नही हो सकती है.विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख नही मिल सकता है. अतः सुख की कामना करने वाले को विद्या का त्याग कर देना चाहिये तथा विद्या की प्राप्ति के लिये सुख का परित्याग कर देना चाहिये.
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राजीव रंजन प्रभाकर
२०.०६.२०२५.
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