शंकर वंदना


१.भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्।।
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(श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वंदना करता हूॅं,जिनके बिना सिद्ध जन अपने अन्त:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते.)
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२.वन्दे बोधमयं नित्यं गुरूं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्द्यते।।

(ज्ञानमय, नित्य,शंकररूपी गुरू की मैं वन्दना करता हूॅं जिसके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है.)

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३.यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणं सुरवर: सर्वाधिप: सर्वदा
शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्रीशंकर: पातु माम्।।

(जिनकी गोद में हिमाचल सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्ष: स्थल पर सर्पराज शेष जी सुशोभित हैं,वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर,संहारकर्ता(भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याणरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्रीशंकर जी मेरी रक्षा करें.)
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४.शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कंदर्पहं शंकरम्।।
                        
       (शंख और चंद्रमा की सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीर वाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल के समान भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूहों का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले पार्वती पति वन्दनीय श्री शंकर जी को मैं नमस्कार करता हूॅं.)

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५.मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्व: सम्भवं शंकरं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलंक शमनं श्रीरामभूपप्रियम्।

(धर्मरूपी वृक्ष के मूल, विवेकरूपी समुद्र को आनन्द देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्यरूपी कमल को विकसित करनेवाले सूर्य, पापरूपी घोर अन्धकार को निश्चय हीं मिटानेवाले, तीनों तापों को हरने वाले,मोह रुपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि में आकाश से उत्पन्न पवनस्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज तथा कलंकनाशक महाराज श्रीरामचन्द्रजी के प्रिय श्रीशंकर जी की मैं वन्दना करता हूॅं.)
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६.कुन्द‌इन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
  कारुणिककलकंजलोचनं नौमि शंकर मनंगमोचनम्।।

(कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शंख के समान सुन्दर गौर वर्ण, जगज्जननी श्रीपार्वतीजी के पति,वाञ्छित फल देने वाले, दु:खियों पर सदा दया करने वाले, सुन्दर कमल के समान नेत्र वाले, कामदेव के भुजपाश से छुड़ाने वाले कल्याणकारी श्रीशंकर जी को मैं नमस्कार करता हूॅं.)
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७. यो ददाति सतां शम्भु: कैवल्यमपि दुर्लभम्।
    खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकर: शं तनोतु मे।।

(जो सत्पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे देते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं,वे कल्याणकारी श्रीशम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें.)

                              (श्रीरामचरितमानस से)
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तनोतु शं शिव: सर्वेभ्य:
(शिव सभी के कल्याण का विस्तार करें.)
Happy Mahashivratri.
                                  R.R.Prabhakar.
                                    08.03.2024.

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