रामचरितमानस में पर्यावरणतत्व का दिग्दर्शन
गोस्वामी तुलसीदासजी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की मूर्ति थे। उनके द्वारा रचित रामचरितमानस एक सर्वांग सुंदर ग्रंथ है जिसके बारे में मान्यता है कि गोस्वामी जी ने इसकी रचना भगवान गौरीशंकर की आज्ञा से किया।
वैसे तो इस ग्रंथ की रचना तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव भगवान श्रीराम के चरित्र का वर्णन अपनी भाषा में कर अपने चित्त को सुख प्रदान करने के लिए हीं किया किंतु इससे भविष्य में होने वाले हुए लोकोपकार का अनुमान कदाचित गोस्वामी जी को भी नहीं रहा होगा।
भगवान श्रीराम के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को केंद्र में रखकर गोस्वामी जी ने जिस तरह से लोकनीति,राजनीति कर्म,धर्म,अध्यात्म,योग,दर्शन,ज्ञान,त्याग,प्रेम और वैराग्य सहित जीवन के विविध पक्षों से सम्बंधित आदर्श मूल्यों एवं तत्वों को उन्होंने इसमें जो सरल,सुबोध एवं सुग्राह्य शैली में सुंदर और सुरूचिपूर्ण ढंग से पिरोया है,उसका दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है. यह उनके विशाल एवं अथाह आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक अनुभवसंचित ज्ञान का दिग्दर्शन कराता है।
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रामचरितमानस में रामकथा के माध्यम से वर्णित जीवन के इन्हीं विविध पक्षों में से एक पर्यावरण पक्ष की खोज इस आलेख के माध्यम से करने का प्रयत्न किया गया है।
‘खोज’ शब्द का प्रयोग यहाॅं इसलिए किया गया है क्योंकि ‘पर्यावरण’ शब्द का सीधा प्रयोग यद्यपि इस ग्रंथ में नहीं पाया गया है किंतु पर्यावरण के विविध आयामों का जो वर्णन इस ग्रंथ में प्रचुरता से हुआ है,वह इसके प्रति समझ और जिम्मेदारी दोनों का अनुभव कराने में सहायक हो सकता है।
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मेरे हिसाब से पर्यावरण के जितने अवयव हो सकते हैं यथा काल,ऋतु,वायु,जीव,जन्तु,पशु,पक्षी वृक्ष,वनस्पति,वन,उपवन,सरि,गिरि आदि को मानस में विभिन्न स्थलों पर जिस सुरूचिपूर्ण ढंग से पिरोया गया है,वह पर्यावरण के विविध रुप,गुण,प्रभाव और उसके महत्व को यथार्थ में समझने में हीं नहीं अपितु समग्रता से अनुभव करने के लिए पर्याप्त है।
गोस्वामीजी कहते हैं-
आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी।
करउॅं प्रणाम जोरि जुग पानी ।।
यदि कोई मानस को गम्भीरता एवं श्रद्धापूर्वक अध्ययन करेगा तो वह सद्गुणों का स्वामी इस सीमा तक हो जाएगा कि वह समस्त चराचर जगत के प्रति आदर का भाव रखना प्रारंभ कर देगा।
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउॅं सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।
विचारने पर पर्यावरण के मूल में भी यही तत्व है. प्रकृति के प्रति आदर और उसके पोषण एवं संरक्षण की भावना का उदय एवं परिवर्धन रामचरितमानस के अनुशीलन से स्वत: हो जाता है।
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गोस्वामीजी ने प्राकृतिक सम्पदा,उसके रूप, गुण एवं शोभा के वर्णन में मनुष्य जीवन के विविध पक्षों को जिस तरह से जोड़ा है, वह अनुपम तो है हीं, विलक्षण भी है। यह गोस्वामीजी के अथाह ज्ञान,अनुभव एवं सारग्राहिणी दृष्टि की ओर अनायास ही ध्यान आकर्षित करता है।
इसी को लक्ष्य कर मानस के निम्न चौपाइयों को निवेदित किया जाता है-
भगवान श्रीराम के जन्म के अवसर पर जो प्राकृतिक वर्णन हुआ है,वह दर्शनीय है-
मध्यदिवस अति सीत न घामा।पावन काल लोक बिश्रामा।।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ।हरषित सुर संतन मन चाऊ।।
रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में प्रभु श्रीराम सीता अन्वेषण के क्रम में दण्डकारण्य में विचरण कर रहे हैं तो उपमा उपमेय के माध्यम से वन की शोभा और सुंदरता का वर्णन जो किया गया है,वह दर्शनीय है-
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोड़ा।।
नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुॅं मोरि करत हहिं निंदा।।
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगी कहत तुम्ह कहाॅं भय नाहीं।।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए।।
संग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुॅं मोहि सिखावन देहीं।।
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।
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बिटप बिसाल लता अरूझानी।बिबिध बितान दिए जनु तानी।
कदलि ताल बर धुजा पताका देखि न मोह धीर मन जाका।।
बिबिध भाॅंति फूले तरू नाना।जनु बानैत बने बहु बाना।।
कहुॅं कहुॅं सुंदर बिटप सुहाए।जनु भट बिलग बिलग होइ छाए।।
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कूजत पिक मानहुॅं गज माते।ढ़ेक महोख ऊॅंट बिसराते।।
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी।।
तीतिर लावक पदचर जूथा।बरनि जाइ मनोज बरूथा।।
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना।चातक बंदी गुन गन बरना।।
मधुकर,मुखर भेरि सुनाई।त्रिबिध बयारि बसीठीं आई।।
चतुरंगिनी सेन सॅंग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें।।
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संत हृदय जस निर्मल बारी।बाॅंधे घाट मनोहर चारी।
जहॅं तहॅं पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा।।
पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिए जैसे निर्गुन ब्रह्म।।
सुखी मीन सब एक रस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं।।
बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।
बोलत जल कुक्कुट कलहंसा।प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा।।
चक्रबाक बक खग समुदाई।देखत बनइ बरनि नहिं जाई।।
सुंदर खग गन गिरा सुहाई।जात पथिक जनु लेत बोलाई।।
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए।चहु दिसि कानन बिटप सुहाए।।
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना चंचरीक पटली कर गाना।।
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ।संतत बहइ मनोहर बाऊ।।
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।।
फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरूष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।।
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इसी तरह सीताजी की खोज में जब किष्किंधा क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो ऋष्यमूक पर्वत पर निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे सुग्रीव से उनकी मैत्री होती है।
गोस्वामीजी ने जो यहाॅं वर्षाकाल का वर्णन किया है वह अनुपम है।
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए।
लछिमन देखु मोर मन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुॅं देखि।।(१३)
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
दामिनी दमक रह न घन माहीं।खल के प्रीति जथा थिर नाहीं।
बरषहिं जलद भूमि निअराऍं । जथा नवहिं बुध बिद्या पाऍं।।
बूॅंद अघात सहहिं गिरि कैसे।खल के बचन संत सह जैसे।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई।जस थोरेहुॅं धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी।जनु जीवहि माया लपटानी।।
सरिता जल जलनिधि महुॅं जाई।होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।
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उपरोक्त प्रस्तुत मानसांश मात्र दिग्दर्शन कराने के निमित्त निवेदित किया गया है।
उपरोक्त के अतिरिक्त मानस में ऐसे और भी बहुत सारे दोहे और चौपाई प्रेमी,सुधी पाठकों को मिल जाते हैं जो पर्यावरण को समग्रता से देखने एवं अनुभव करने में सहायक सिद्ध होंगे। केवल उस दृष्टि से देखने और खोजने की आवश्यकता है।
उन सभी को चुन-चुन कर एक जगह एकत्र करते हुए यदि प्रस्तुत किया जाय तो स्थान संकोच की विवशता होगी।
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कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारी उद्योग का जब से प्रादुर्भाव हुआ तब से हीं पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। जहाॅं लघु एवं कुटीर उद्योग प्रकृति के मानव के आवश्यकता आधारित उपयोग पर आश्रित है वहीं भारी उद्योग प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर।
गोस्वामीजी ने मानस में जो राम राज का वर्णन किया है उसमें भारी उद्योग का लेसमात्र भी दर्शन नहीं होता है.रामराज की सभी आर्थिकी एवं व्यवस्थाएं जिनकी झांकी रामचरितमानस में अवांतर रूप से मिलती है, वह लघु एवं कुटीर उद्योग आधारित मालूम देती है।
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आज मानव प्रकृति का दोहन उसे नष्ट करने की सीमा तक करने लगा है।अविवेकपूर्ण अत्यधिक प्राकृतिक दोहन और प्रदूषण हिंसा की श्रेणी में आता है।कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिस तकनीक के बल पर मनुष्य प्रगति का दंभ भरता है उसी तकनीक ने उसे पर्यावरण को क्षति पहुॅंचाने का हौसला दे दिया।
विचारने से यही प्रतीत होता है कि पर्यावरण के मूल में अहिंसा मूलक यही भावना प्रधान है कि मनुष्य अपने चारों ओर प्रकृति प्रदत्त पंचतत्व(पृथ्वी तत्व, जलतत्व, अग्नितत्व, वायुतत्व, आकाश तत्व) और उससे उत्पन्न जीवजगत एवं प्राकृतिक सम्पदा जिस पर वह आश्रित है, के प्रति आदर का भाव रखे, उसका दोहन न कर अपनी आजीविका से तादात्म्य स्थापित करते हुए यदि उसका पोषण करे तो यह उसके सुखमय, शांतिमय और कल्याणमय जीवन के मार्ग को प्रशस्त करता है।
यद्यपि गोस्वामीजी ने अपनी इस रचना में शब्दशः पर्यावरण शब्द का उल्लेख नहीं किया है किंतु सारग्राही व्यक्ति को रामचरितमानस के अवगाहन से पर्यावरण के विविध पक्षों का सहज हीं दर्शन सुलभ हो जाता है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
१५.०३.२०२५.
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