शिव विवाह

शिव विवाह 

सिवहिं संभु गन करिहिं सिंगारा। 
जटा मुकुट अहि मौरू सँवारा।।

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। 
तन बिभूति पट केहरि छाला।।

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।
 नयन तीनि उपबीत भुजंगा।।

 गरल कंठ उर नर सिर माला। 
असिव बेष सिवधाम कृपाला।। 

कर त्रिसूल अरु डमरू बिराजा।
चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा।।

 देखि सिवहिं सुरत्रिय मुसुकाहीं।
 बर लायक दुलहिनि जग नाहीं।।
                     **
 (शिव के गण ने अपने स्वामी का श्रृंगार कुछ ऐसा ही किया है जो देखने योग्य है किन्तु उसका बखान करना कठिन है. 

उन्होने शिवजी को उनकी जटाओं का हीं मुकुट बनाकर उन्हें पहना दिया है और माथे पर मौरी के रूप में साॅंप को उन्होंने अत्यंत सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा दिया गया है.

कानों में कुंडल तथा हाथों में कंगन के रूप में सर्प शोभायमान है,सम्पूर्ण गौर शरीर पर अंगराग के रूप में श्मशान का भभूत अपनी अलग ही छटा बिखेर रहा है. त्रिनेत्र शिव के ललाट पर चंद्रमा एवं सिर पर देवसरि गंगा प्रवाहित है.

जनेऊ के रूप में भी सर्प तथा कंठ के मध्य में हलाहल विष के नीले रंग की शोभा भी निराली है.

 हाथ में त्रिशूल एवं डमरू तथा बसहा पर सवार इस प्रकार सुसज्जित शिव को देखते हीं देवताओं की स्त्रियां हठात हीं कौतुक वश मुस्कुरा कर कह रही है-----"जो कहो सखी ! इस वर की जोरी में पूरे जगत में कोई दुल्हन हमें तो नहीं नजर आती है."

जहाँ तक बारात की बात है-

इस बारात में प्रजेश, रमेश, सुरेश सहित सभी देवतागण तो हैं हीं शिव के अपने गण भी मुख्य बाराती बन मतवाले चले जा रहे हैं.

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। 
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। 
रिष्टपुष्ट कोउ अति तन खीना ।।

(गणों में कोई मुख विहीन तो किसी के अनेक मुख; किसी को एक भी हाथ-पैर नहीं तो किसी को क‌ई-क‌ई हाथ और पैर. किसी को एक ऑंख भी नहीं तो कोई अनेक नेत्रधारी, कोई अत्यंत दुर्बल तो कोई भीमकाय स्थूल तनधारी.)
          ~रामचरितमानस से
                                                  राजीव रंजन प्रभाकर.
                                                     २९.०३.२०२५.

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