एक शिक्षाप्रद कहानी.

यह कहानी मैंने गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित एक पुस्तक में पढ़ी थी. इस उपदेशप्रद कहानी गीता प्रेस के संस्थापक स्वनामधन्य सेठ ब्रह्मलीन स्व.जयदयाल जी गोयन्दका ने लिखी थी. इसी कहानी को मैंने अपने शब्दों में कतिपय महत्वहीन हेरफेर के साथ लिखने का प्रयास किया है. 
इसके पढ़ने के उपरांत आजकल के अधिकांश भोगैश्वर्यासक्त कथावाचक या प्रवचनकर्ता जो नाना प्रकार के श्रृंगार कर कथावाचन या उपदेश देने का उपक्रम करते हैं,का यदि सहसा स्मरण हो जाए तो कोई हरज भी नहीं है. 
                           ***
एक राजा था. वैसे तो ठीक था लेकिन थोड़ा हिसाबी था. राज कोष से किए जाने वाले ख़र्च में ध्यान रखता था कि जिस मद में ख़र्च हो रहा है उसके अनुरूप लाभ या परिणाम प्राप्त हो रहा है या नहीं. मतलब कि ख़र्च कोई भी हो वह result oriented होना जरूरी था. आज के आर्थिक शब्दावली में यदि कहें तो राजा Performance Budgeting का विशेषज्ञ था.
 राजा के उक्त स्वभाव को देखते हुए यह irony हीं कहा जाएगा कि राजा ने अपने दरबार में प्रतिदिन अध्यात्म और तत्वज्ञान की चर्चा हेतु राजपंडित को नियुक्त कर रखा था. राजपंडित अध्यात्म और तत्वज्ञान का परम ज्ञाता तो था हीं साथ ही वह व्याख्यान और प्रवचन करने में भी उतना ही दक्ष था. उसका व्याख्यान और प्रवचन अत्यंत सुरुचिपूर्ण एवं चमत्कारिक होता. श्रोता को भी ये प्रवचन सुन कर मानो कुछ क्षणों के लिए हीं सही स्वयं के तत्वज्ञानी होने का आभास होने लगता.
राजपंडित प्रतिदिन राजा को अध्यात्म और उससे जुड़ी तमाम ज्ञान,वैराग्य और भक्ति की कथा सुनाया करता था. दरबार में माया एवं अनेकविध सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के उपायों पर राजपंडित अनेक दृष्टांतों की सहायता से मुक्ति और मोक्ष विषयक चर्चा करता था. 
राजपंडित को इसके लिए प्रतिमाह यथेष्ट धनराशि राज के ख़ज़ाने से मिलता था. राज्याश्रय के अधीन राजपंडित की जीविका मज़े में चल रही थी; मान,सम्मान और प्रतिष्ठा सो अलग.
धन,मान-सम्मान और प्रतिष्ठा; किसी संसारी जीव को इससे अधिक क्या चाहिए?
इस तरह राजपंडित के नेतृत्व में माया से मुक्ति, ईश्वर भक्ति एवं तत्वज्ञान चर्चा का क्रम सालों से चलता आ रहा था.
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 दैवयोग कहिए अथवा पता नहीं किस कारण से कि एक दिन राजा को ख़्याल आया कि राज पंडित द्वारा मैं इतने सालों से तत्वज्ञान एवं मुक्ति विषयक चर्चा सुनता आ रहा हूॅं किंतु मेरे भीतर अभी तक कोई विषय के प्रति विरक्ति का भाव दिखाई नहीं देता है. ‘उम्र बढ़ने के बावजूद मेरे में तो विषयसुख एवं भोग की लालसा ज्यों की त्यों है.
उल्टे कभी-कभी तो यह पहले से भी अधिक बढ़ा मा’लूम देता है. 
राजा ने हिसाब लगा कर देखा कि इन वर्षों के दरम्यान राजपंडित को बतौर मेहनताना अपार धनराशि दी जा चुकी है. इतनी राशि जो इस मद में खर्च हो गए वह तो निष्फल व्यय रहा. राजा का मन क्षोभ एवं विषाद से भर गया. उसने तुरंत राजपंडित को बुला लाने का आदेश दिया.
                                ***
राजा-पंडितजी ! मैं देख रहा हूॅं कि आप तकरीबन १५ वर्षों से दरबार में प्रतिदिन अध्यात्म, तत्वज्ञान, वैराग्य की चर्चा करते हैं और इसके लिए आपको राजकोष से प्रतिमाह अच्छी ख़ासी धनराशि दी जाती है किंतु आपके इस व्याख्यान का मेरे ऊपर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा मा’लूम देता है. वैराग्य और विरक्ति की बात तो छोड़िए मेरे में विषयभोग की लालसा में भी कोई कमी नहीं आई है. 
काम-क्रोध तथा राग-द्वेष मेरे निर्णय के केंद्र अभी तक वैसे हीं हैं जैसे आज से बीस साल पहले थे. शरीर कृषकाय जरूर हो चला है किन्तु कामाग्नि पहले जैसी ही है. आप हीं सोचिए फिर आपसे इतने सालों से ऐसे व्याख्यान और प्रवचन सुनने का क्या फ़ायदा हुआ? उल्टे ख़ज़ाने से आपके वेतन पर जो इतनी अच्छी ख़ासी धनराशि व्यय हुई वह तो एक तरह से निष्फल व्यय हीं हुआ न?
इसका मुझे आपसे ज़वाब चाहिए. मैं आपको इसके लिए एक माह की मोहलत देता हूॅं. इसका समुचित उत्तर आप मुझे देंगे अन्यथा एक महीने के बाद आप अपने को राजपंडित के पद से बर्खास्त समझें तथा जितनी राशि बतौर वेतन आप पर निष्फल व्यय हुआ उसकी वसूली आपके द्वारा उस वेतन से अर्जित जायदाद से कर ली जाएगी. मुझे निष्फल व्यय पसंद नहीं है. अब आप जाइए.
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ऐसा फ़रमान सुनकर राजपंडित हतप्रभ. वह क्या बोले!
कुछ भी तो जवाब नहीं था उसके पास. म्लानमुख वह घर आया. पंडिताइन को भी ये बात बताई. दोनों चिंता से डूब गए. एकाएक हीं आजीविका सहित सुख-सुविधा,ऐश-ओ-आराम के लुप्त हो जाने का खतरा सिर पर मंडराने लगा साथ हीं वर्षों से अर्जित जायदाद के भी हाथ से निकल जाने का भय पूरे मानस में व्याप्त हो गया. पंडितजी राजदरबार जाना भी छोड़ दिए. राजदरबार बिना जवाब के वह जा नहीं सकते थे. घर पर हीं गुमसुम समय बीत रहा था. महीना बीतने में अब मुश्किल से दो-तीन दिन हीं बच गए थे.
एक दिन की बात है. पंडितजी के घर एक युवा संन्यासी पधारे. उनके चेहरे का तेज अलौकिक मा’लूम दे रहा था. मानो साक्षात् शंकराचार्य हीं सामने उपस्थित हो ग‌ए थे. पंडित जी के मुखमंडल पर चिंता की लकीरें देख संन्यासी ने उसका कारण जानना चाहा. सारी बातों से अवगत होने पर संन्यासी ने कहा-पंडित! तुम बस इतनी सी बात के लिए चिंता कर रहे हो? मुझे दरबार में ले चलो मैं राजा को तुमसे पूछे गए सवाल का जवाब दूंगा.
पंडित- आप जवाब दे दीजिएगा वो तो ठीक है; किन्तु इससे तो मेरी हीनता साबित हो जाएगी न? मेरे ज्ञान की राजदरबार में बहुत प्रतिष्ठा है. सब कहेंगे परम ज्ञानी बनता था, स्वयं उत्तर दे न सका तो किसी संन्यासी को बुला लाया. 
संन्यासी-ओहो! तो ठीक है तुम मुझे वहाॅं अपने शिष्य के रूप में परिचय कराना और राजा से कहना कि महाराज आपका प्रश्न उतना भी कठिन नहीं है जो मेरे द्वारा उत्तर दिए जाने योग्य हो. इसका उत्तर तो मेरा शिष्य हीं बहुत आसानी से दे सकता है और फिर तुम मुझे कहना कि वत्स! तुम महाराज की जिज्ञासा को शांत कर दो. 
मैं दरबार जाने के पूर्व यह संन्यासी का चोला उतार कर तुम्हारे वेदपाठी शिष्य का परिधान पहन लूंगा.
पंडित को यह प्रस्ताव पसंद आ गया.
                         ***
अगले दिन राज दरबार में 
राजपंडित-महाराज की जय हो. बात यह है कि मैं इधर कुछ दिनों से अस्वस्थ होने की वजह से दरबार में उपस्थित नहीं हो रहा था किंतु मुझसे आपने जो प्रश्न किया था वह मुझे स्मरण है. यह युवक(संन्यासी की ओर इशारा करते हुए) मेरा शिष्य है. मैंने सोचा इस आसान से प्रश्न का मेरा शिष्य हीं जवाब दे सकता है. साथ में यह भी आपके दर्शन का लाभ प्राप्त कर कृतार्थ हो जाएगा. राजदरबार के तौर तरीके देखने और समझने का इसे अवसर मिलेगा सो अलग.
राजा- कोई हर्ज नहीं. मेरे प्रश्न का उत्तर आप दें या आपका यह शिष्य. मुझे क्या आपत्ति हो सकती है! मेरा प्रयोजन तो समुचित उत्तर मिलने से है. वैसे आपका यह शिष्य देखने से हीं मेधावी एवं तेजस्वी लगता है.
राजा की तरफ देखकर शिष्य के वेष में आए संन्यासी ने कहा-महाराज! मैं आपके प्रश्न का उत्तर उसी शर्त पर दे सकता हूॅं जब दो घड़ी के लिए आप मुझे इस राज का राजा बना दें और अपना सिंहासन छोड़ कर उस दो घड़ी तक मुझे बैठने की अनुमति दें.
राजा कुछ देर तक सोचने लगा. उसे लगा दो घड़ी की हीं तो बात है. उसने पंडित के उस शिष्य की बात मान ली और राजगद्दी पर उसे बिठाते हुए कहा-ठीक है मैंने तुम्हें दो घड़ी के लिए इस राज का राजा बना दिया अब तुम मेरे प्रश्न के उत्तर दो.
सिंहासन पर बैठते हीं शिष्य बने संन्यासी ने हुक्म दिया- सैनिकों! इस पंडित के दोनों हाथ और दोनों पैरों को अच्छी तरह से बांध कर मेरे सामने पेश किया जाए. 
ये फ़रमान सुनकर सभी अकचका उठे; विशेषकर वह राजपंडित जो उस संन्यासी को दरबार में लेकर आया था.
राजपंडित चिचियाकर बोल उठा-अरे मूर्ख युवक! तूॅं ये क्या कर रहा है? तुम पागल तो नहीं हो गये हो? तुम मुझे क्यों बंधवा रहे हो? दरबार में तुम्हें लाकर मैंने भारी भूल कर दी.

संन्यासी बोला-चुप! ज्यादा बोले तो अभी इसी वक्त तुम्हें कारागार में भी डलवा दूॅंगा. सालों-साल तुमने जो थोथी कहानियां और प्रवचन कर राजा के साथ-साथ सभी सुनने वाले को भी झांसा देकर अपनी रोटी सेंकता रहा सो तुमने मुझे वही राजा समझ रखा है क्या?

दो घड़ी के लिए राजा बने उस युवक के हुक्म की ता’मील करने हेतु सैनिक ने राजपंडित के हाथ-पैर को बांध कर राजा बने युवक के सामने बिठा दिया.
असली राजा सहित सभी कौतूहल की दृष्टि से यह सब देख हीं रहे थे कि संन्यासी युवक ने फिर फ़रमान जारी करते हुए कहा-- यह जो अभी कुछ देर पहले तक राजा बनकर ऐंठ रहा था इस राजा के भी दोनों हाथ और पैर को बांध कर इस पंडित के सामने बिठा दिया जाय. 
ये आदेश सभी के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था. असली राजा हैरान. लेकिन किसी से कुछ कहते नहीं बन रहा था क्योंकि दो घड़ी के लिए शासन उस व्यक्ति के हाथ में था जो अभी गद्दी पर बैठा हुआ था. 
सैनिक को ना-नुकुर करते देख उसने फटकारते हुए उन लोगों से कहा-देखते क्या हो? तुरंत इस राजा को हाथ-पैर बांध इस पंडित के सामने बिठा दो. 
असली राजा को भी चुप देख सैनिकों ने असली राजा के भी हाथ-पैर बांध दिए और पहले से बंधे राजपंडित के सामने लाकर बिठा दिया.
राजदरबार में उपस्थित सभी इस दृश्य को बड़े कौतूहल से देख रहे थे और सोच रहे थे कि राजगद्दी पर बैठा युवक का अगला कदम क्या होगा. पूरा दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था. 
फिर युवक ने राजपंडित से कहा- पंडित! तुम अपने सामने बैठे व्यक्ति जिसे तूॅं महाराज-महाराज कह कर अभी तक चूना लगाता आया है, उसके बंधन खोल दे.
पंडित- मैं कैसे खोल सकता हूॅं? मैं तो स्वयं बंधा हूॅं. क्या तुम नहीं देख रहे कि मेरे दोनों हाथ और पैर बंधे हुए हैं?

फिर संन्यासी युवक ने असली राजा से कहा-ठीक है तो महाराज तुम्हीं इस पंडित के बंधन को खोल दो.

हाथ पैर बंधे उस राजा ने कहा-अरे युवक तूॅं तो अच्छा मज़ाक कर रहा है;पहले तो मुझे अपने हीं सैनिकों से बंधवा दिया और फिर कहता है मुझे कि पंडित के बंधन को मैं खोल दूॅं? मैं तो स्वयं बंधा हुआ हूॅं.

असली राजा ने पंडित के बंधन खोलने का अपने सैनिकों को जैसे हीं इशारा किया कि युवक ने कहा-महाराज! भूलो नहीं कि अभी मैं राजा हूॅं और इस वक्त सिर्फ और सिर्फ मेरा हुक्म ये सैनिक मानने के लिए बाध्य हैं,तुम्हारा नहीं. मैं चाहूॅं तो तुम्हें अभी इसी वक्त कारागार में डलवा दूॅं.
                                  ***
दो घड़ी बीतने के पहले हीं युवक ने हाथ-पैर बंधे राजा तथा उस राजपंडित के बंधन को खोल दिए जाने का हुक्म देकर आदर पूर्वक राजा को गद्दी पर बैठा दिया तथा इन दो घड़ी में की गई धृष्टता के लिए क्षमा याचना के साथ यह कहते हुए दरबार से चलने लगा कि—-
हे राजन! दो विषयबद्ध व्यक्ति एक दूसरे के बंधन को भला खोल सकता है क्या! आप पंडित के व्याख्यान विरक्ति के लिए नहीं अपितु मनोरंजन अथवा खाली समय के सदुपयोग के निमित्त सुनते आए थे और ये पंडित अपनी आजीविका, सुख-समृद्धि,राज्याश्रय तथा भोग-विलास को सुरक्षित रखने के लिए अपने ज्ञान प्रपंच को बाॅंचता था. ज़ाहिर है वह तो स्वयं अपने इंद्रियों का दास है; वह दूसरे को विषय विमुख भला क्या कर सकेगा?
                              ***
सही है जो स्वयं बंधा हुआ है वह दूसरों के बंधनों को क्या खोल पायेगा सिवा खोलने का नाटक करने के?
सच है कि जो सांसारिक बंधनों से मुक्त है वही दूसरे को मुक्त कर सकता है. आज न जनक के जैसे विदेह राजा हैं जिन्होंने योग को भोग में छिपा रखा था और न हीं अष्टावक्र जैसे राजगुरु या राजपंडित जिन्होंने जनक को राजकाज करवाते हुए भी उन्हें जीवन-मुक्त बना रखा था.
राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था.
                         नव वर्ष मंगलमय एवं कल्याणमय हो. 

राजीव रंजन प्रभाकर.
(भारतीय नववर्ष सम्वत्सर २०८२)
३०.०३.२०२५.

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