“रामचरितमानस” के यथार्थ रचयिता

वास्तव में "रामचरितमानस" की रचना भगवान शंकर ने की है. 
इसके असली रचयिता महादेव भगवान शंकर हीं हैं.

रामचरितमानस मुनि भावन।बिरचेउ संभु सुहावन पावन।।
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसम‌उ सिवा सन भाषा।।

{यह रामचरितमानस मुनियों का प्रिय है,इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की. श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वती जी से कहा. इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका नाम सुन्दर “रामचरितमानस” नाम रखा.}

रामचरितमानस को भगवान शंकर ने रचकर अपनी अर्धांगिनी उमा को पहली बार सुनाया. इसलिए इसे उमा-शंभु संवाद कहा गया है.

[संभु कीन्ह यह चरित सुहावा।
बहुरि कृपा करि उमहि सुनाया।।]

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गोस्वामी जी ने अपने उपरोक्त रचित चौपाई में इस तथ्य को सुस्पष्ट कर दिया है कि रामचरितमानस भगवान शंकर की रचना है अर्थात् यह उनकी रचना नहीं है; वे तो इसे अपनी भाषा में लिखकर बाॅंचे भर हैं. 
गोस्वामीजी कहते हैं-
{सादर सिवहि नाइ अब माथा।
बरन‌उॅं बिसद राम गुन गाथा।।
संबत सोरह सै एकतीसा।
कर‌उॅं कथा हरि पद धरि सीसा।।}

अर्थात् तुलसी कहते हैं-
अब मैं आदरपूर्वक शिवजी को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूॅं। श्रीहरि के चरणों में सिर रखकर संवत् १६३१ में इस कथा का आरंभ करता हूॅं.
तुलसी कहते हैं-
श्रीशिवजी की कृपा से मेरे हृदय में सुमति हुलस आई और यही सुमति का हुलास ने तुलसीदास को श्रीरामचरितमानस का कवि बना दिया!

{संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी।
रामचरितमानस कवि तुलसी।।}
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वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचान कर दिया. 

{सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा।
राम भगत अधिकारी चीन्हा।।}
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।
ते श्रोता बकता समसीला। सवॅंदरसी जानहिं हरिलीला।।
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जब भगवान शिव ने काकभुशुण्डिजी को राम भक्ति का अधिकारी जान रामकथा प्रदान किया तो उसी कथा को काकभुशुण्डिजी ने महाज्ञानी गरूड़जी को सुनाया.
इसलिए इसे कागभुशुण्डि-गरुड़ संवाद भी कहा जाता है. 
भगवान शंकर जब पार्वती जी को रामचरितमानस सुना रहे थे तो उन्होंने उस समय उमा को यह कहते हुए रामकथा सुनाया कि उमा! मैं तुम्हें वही रामकथा सुनाने जा रहा हूॅं जो कागभुशुण्डिजी ने गरूड़जी को सुनाया था जब मोह ग्रस्त गरूड़जी अपने संशय नाश हेतु मेरी सलाह पर कागभुशुण्डिजी के पास आर्त होकर गये थे.

{सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस विमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़।।
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगे कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ।।}
(हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मङ्गलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरूड़जी ने सुना था.वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ,वह मैं आगे कहूॅंगा।अभी तुम श्रीरामचन्द्रजी के अवतार का परम सुन्दर और पवित्र पापनाशक चरित्र सुनो.)
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यही रामकथा भवभेषज के रूप में काकभुशुण्डिजी ने याज्ञवल्क्य जी को प्रदान किया.
 प्रत्येक वर्ष की भाॅंति तीर्थराज प्रयाग में समस्तागत मुनि समुदाय पूरे मकर भर स्नान कर जब अपने-अपने आश्रमों को लौटने लगे तब भरद्वाज मुनि ने याज्ञवल्क्यजी के चरणों में अपना सिर नवाकर उन्हें रोक लिया और अपना संदेह दूर करने को कहा कि हे मुनि श्रेष्ठ! एक राम तो दशरथजी के कुमार हैं,उनका चरित्र सारा संसार जानता है.उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर रावण को मार डाला. हे प्रभो! वही राम हैं या कोई दूसरे हैं जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए.
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तुलसीदासजी कहते हैं-
जागबलिक जो कथा सुहाई।
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।।
कहिह‌उॅं सोइ संबाद बखानी।।
सुनहुॅं सकल सज्जन सुख मानी।।
(मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो वह सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी,उसी संवाद को मैं बखान कर कहूॅंगा; सभी सज्जन उसे सुनकर सुख का अनुभव करें)
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अर्थात् 
“रामचरितमानस” चार स्तरों पर बाॅंचा गया है:
१.पहली बार भगवान शंकर ने पार्वती को यह स्वरचित रामकथा सुनाया.
२.फिर इसे जीवन-मुक्त काकभुशुण्डिजी ने गरूड़जी को यह रामकथा सुनाई.
३.तदनंतर काकभुशुण्डि जी से यह रामकथा पाकर याज्ञवल्क्यजी ने इस लोक के तीर्थराज प्रयाग में भरद्वाज मुनि को सुनाकर सुख प्रदान किया.
४. वही याज्ञवल्क्य-भरद्वाज संवाद को गोस्वामीजी ने अपने आनंद के लिए भगवान शंकर से प्रेरणा पाकर अपनी भाषा में रचकर इतिहास रच दिया जो कलियुग में काम क्रोध,अहंकार,लोभ,तृष्णादि मानस रोगों से दग्ध एवं कुभोगरूपी वाण से बिंधे सकल संसार के लिए शल्यचिकित्सोपकरण के रूप में व्यवहृत हो रहा है.
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इस प्रकार जहाॅं भगवान शंकर ने उमा को बोल कर यह कथा सुनाई और काकभुशुण्डिजी ने गरूड़ के प्रति तथा याज्ञवल्क्यजी ने भी यह शंकर रचित मानस को भरद्वाज मुनि के प्रति बोल कर हीं बाॅंचा; वहीं गोस्वामीजी ने अपने आनन्द के लिए (स्वान्त:सुखाय) इसे लिखकर बाॅंचा जो सकल लोक के कल्याण का अनायास हीं हेतु बन बैठा.
§स्वान्त:सुखायतुलसीरघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति§
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यह सब भगवान शंकर का गोस्वामीजी को प्राप्त आशीर्वाद का प्रतिफल हीं कहना होगा जो इस घोर कलियुग में भी उनकी वही प्रतिष्ठा है जो महाकवि आदिकवि बाल्मीकि को प्राप्त है.

राजीव रंजन प्रभाकर
०३.०३.२०२४.

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