अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त.(एक लम्बी कहानी)
अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त.
(एक लम्बी कहानी)
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विभूति नारायणजी गाॅंव में रहते थे. अपने जमाने में मेरिट से पढ़ाई कर वे सेकेंड डिवीजन से बीए भी पास किए थे; किन्तु चाह कर भी सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर सके. एक दो जगह लिखित परीक्षा पास करने पर इंटरव्यू के लिए बुलावा भी आया. इंटरव्यू देने के बाद कमरे से बाहर चपरासी कह रहा था-अरे इ सब नाटक हो रहा है. सब सीट पर बहाली पहले से फिक्स है.
बात जो भी हो; नौकरी नहीं मिल पाने पर उनके पिताजी ने कहा- कहॉं नौकरी के चक्कर में भटक रहे हो. गाॅंव में हीं हमारे खेती-किसानी में हाथ बटाओ. तब से गाॅंव में हीं रह कर खेती किसानी करने लगे. धीरे-धीरे उसी में रम गए और खुश रहने लगे.शादी तो पढ़ते हीं समय हो गई थी और जैसा कि स्वाभाविक है शादी के साल भर में हीं एक लड़का भी पैदा हो गया. विभूति बताते हैं कि उनके पिताजी ने हीं उसके लड़के का नाम सुफल नारायण रखा था. तब मां-बाप अपने बच्चे का नाम तक अपनी इच्छा से नहीं रख सकते थे.अब जमाना भले कुछ और हो गया हो.
सुफल बड़ा होता गया. कभी-कभी जब मन करता तो पूछ बैठते-बेटा ठीक से पढ़ रहे हो न? इसके आगे फिर कुछ नहीं पूछते.
अवकाश के क्षणों में जब पति, पत्नी और बेटा एक साथ बैठ कर बातें करते तो कभी कभार कह बैठते-बेटा! मैं तो सरकारी नौकरी में एक मामूली क्लर्क की नौकरी भी नहीं पा सका. बाॅंकि मेरी इच्छा थी कि तुम बढ़िया से पढ़ो और बड़े होकर सरकार में कोई हाकिम बनो. वैसे कोई जबरदस्ती नहीं है फिर जैसे मैं तुम्हारे बाबा के साथ खेती किसानी में लग गया तुम्हारे लिए भी वह विकल्प तो है हीं. भगवान की दया से अपने पास दो-चार बिगहा जमीन है. इसलिए दाल-रोटी की चिंता तुम्हें नहीं रहेगी. वैसे सुफल स्वयं पढ़ने में तेज था.गाॅंव के स्कूल में पढ़कर भी अंग्रेजी,हिन्दी, इतिहास,गणित आदि बल्कि सभी विषयों में अपने समकक्षों से बहुत आगे था. शिक्षकगण भी उससे प्रसन्न रहते थे.
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विभूति नारायण जी का स्वभाव सरल था.उनकी दिनचर्या भी बहुत मामूली थी. दिन में खेती किसानी और साॅंझ होने पर वे "रामचरितमानस" लेकर बैठ जाते. यही क्रम साल दर साल चलता रहा. सालों-साल लगभग दो दशक तक रामचरितमानस का अर्थ सहित पाठ करते-करते उस ग्रंथ पर उनकी अच्छी पकड़ बन गई थी. मानस की अधिकांश चौपाई तो अब प्रायः उनके कंठस्थ थे. गाॅंव में सभी जाति के लोग उनके दालान पर सॉंझ होते हीं मानस की अर्थ सहित व्याख्या सुनने के लिए पहुॅंच जाते थे. जब कल्याणी भीतर से आवाज देती कि सत्संग तोड़िए; भोजन तैयार है तब यह सभा धीरे-धीरे विसर्जित होती थी. गाॅंव के लोग अब विभूति जी को नाम से कम हीं पुकारते थे. लोग अब उन्हें रामायणीजी के नाम से आदर से पुकारने लगे थे.
प्रतिदिन मानस का संग करने का प्रभाव यह हुआ कि किसी भी घटना परिघटना की व्याख्या हेतु उन्हें मानस की सम्बंधित चौपाई का स्मरण उन्हें स्वत: हो जाता.
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सुफल धीरे-धीरे हाई स्कूल से कालेज तक पहुॅंच गया. पढ़ने में वह मेधावी था. २१ वर्ष में ही वह इतिहास से आनर्स कर चुका था. लोगों को आश्चर्य तो तब हुआ जब वह पहले ही प्रयास में यूपीएससी क्वालीफाई कर गया. न कोई ट्यूशन न कोई कोचिंग; खुद से पढ़कर सुफल ने यह सफलता हासिल की थी.
जहाॅं बेटे की इस तरह की सफलता से अधिकांश पिता उन्मत्त हो जाते हैं,विभूति जी की दिनचर्या यथावत रही. ऐसा नहीं कि पुत्र की सफलता से वह प्रसन्न नहीं थे बल्कि सालों साल मानस के पारायण का हीं यह प्रभाव कहा जा सकता है कि ऐसी सफलता से न तो वे बौराए न हीं उनका पुत्र.
सुफल के विवाह के लिए अब चारों दिशाओं से नेता,ठीकेदार, बड़े-बड़े नौकरशाह जिनकी प्रकृति चरित्र धन-पशु से लेकर धन-कुबेर तक की थी,अपनी बेटी का रिश्ता लेकर आने लगे. विभूति नारायणजी के लिए यह सब बहुत असहज था. उन्हें किसी को कुछ कहते नहीं बन रहा था. किसी को कहें तो क्या कहें. उनकी दहेज आदि प्राप्त करने की कोई इच्छा हीं नहीं थी और लोग थे कि चेक-बुक खोल कर चेक उनके मुंह में ठूॅंस देने को आमादा थे. किसी तरह हीं वे उनको विनम्रतापूर्वक विदा कर पाते थे.
यद्यपि वह बहुत बड़े किसान नहीं थे लेकिन सोच जरूर बड़ी थी जिसमें उनके जन्मगत संस्कार का हाथ तो था ही, बहुत कुछ रामचरितमानस के नियमित श्रद्धापूर्वक पाठ का प्रभाव भी था.जो नेता,ठीकेदार,आफीसर अपने धन और रौब का सहारा लेकर विभूति जी के यहाॅं आते थे वे विदा लेते वक्त मन ही मन विभूति जी को कोसते जाते और कहते-बुड्ढ़े की हैसियत तो कुछ भी नहीं लेकिन हिमाकत ऐसी कि लाखों का उसके लिए कोई मोल हीं नहीं.
एकेडमी में "शीलं परम भूषणम् " उद्देश्य वाक्य होते हुए भी जिस शील को अधिकांश प्रशिक्षु धारण नहीं कर पाते हैं और पूरी सेवापर्यंत अहंकार और दम्भ जैसे मानस रोग से पीड़ित रहते हैं,सो सुफल में बचपन से हीं नहीं देखा गया था. वह एक शील सम्पन्न लड़का था जो सफलताजन्य अहंकार से अछूता था. उसके मन में माॅं और पिताजी के प्रति बहुत आदर था. पिता की आदर्शवादी बातें हालाॅंकि उसे अच्छी लगती थी किन्तु वह यह भी समझता था कि उन बातों पर पूरी तरह चलना बहुत कठिन है. इसलिए कई मामलों में वह आदर्शवादी बातों को अपने व्यवहार बुद्धि से प्रतिस्थापित कर देता था. इसमें इसका दोष नहीं था बल्कि यह आधुनिक शिक्षा पद्धति की हीं देन है जहाॅं मौकापरस्ती जब मौका मिले नैतिकता और आदर्शों का कंठ चीपने के फिराक में रहती है.
विभूति नारायण ऐसे लोगों में से नहीं थे लेकिन उनका पुत्र इस मामले में पूरी तरह उन पर नहीं गया था. लेकिन इतने के बावजूद पिता का संस्कार पुत्र में समय आने पर परिलक्षित हो हीं जाता है. और यह बात सुफल पर भी लागू होता था.
प्रशिक्षण के पश्चात सुफल अपने हीं गृह राज्य में एसडीएम बन गया. शादी अब तक नहीं हुई थी. विभूति नारायणजी के लिए सुफल का विवाह प्रकरण दिनों दिन पेंचीदा होता जा रहा था. वह विवाह को सौदा समझने के लिए हरगिज तैयार नहीं थे और लोग थे कि रोज सुफल का दाम लगा-लगाकर चले जा रहे थे. विभूति नारायण जी इस स्थिति से मन ही मन बहुत व्यथित थे. कभी-कभी वे सोचते कि क्या हीं अच्छा होता कि वो सुफल की शादी उसके यूपीएससी निकालने से पहले हीं कर देते!
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एक दिन गांव में एक लाल बत्ती लगी गाड़ी विभूति नारायण जी के दालान पर आ खड़ी होती है.पीछे एक और गाड़ी थी जिसमें साहब के नीचे काम करने वाले लोग थे.
सेक्रेटरी साहब- विभूति जी! प्रणाम्. बताने की जरूरत तो नहीं है किन्तु लोक व्यवहार एवं शिष्टाचार के नाते बताना जरूरी भी है. मेरा नाम "अबस" है. मैं सेंट्रल गवर्नमेंट के "कखग" विभाग का सचिव हूॅं. मैं अपनी बेटी की शादी आपके बेटे से तय करने आया हूॅं. मेरी इच्छा है कि आप भी इसमें अपनी सहमति दे दें. यह सुफल नारायण के लिए काफी अच्छा रहेगा. अभी इनका करियर बहुत लंबा है. हम सर्विस में इनका बहुत ख्याल रखेंगे इसमें तो कुछ इनको सोचना हीं नहीं होगा. अच्छे जगह और अच्छे पदों पर पोस्टिंग आदि सब कुछ मेरे डिपार्टमेंट को हीं करना होता है. हम सुफलजी के प्रोमोशन आदि का भी पूरा ख्याल रखेंगे.
और तो और काडर एलोटमेंट भी मेरा विभाग हीं करता है और आवश्यकता पड़ने पर "काडर चेंज" भी.समझिए कि आपके बेटे का करियर हमारे हाथ में हीं है.
फिर उन्होंने अधिकारीजन्य पैंतरा बदलते हुए आगे कहा- विभूति जी आप समझ रहे हैं न कि मैं क्या कह रहा हूॅं?
बेचारे विभूति नारायण जी सेक्रेटरी साहब की हर बात में "जी" "जी" कहे जा रहे थे. इसके अलावे उनके पास चारा हीं क्या था!
परदे के पीछे कल्याणी भी सेक्रेटरी साहब की बातों को सुने जा रही थी.
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सेक्रेटरी साहब के विदा होने पर जब विभूति नारायण जी आंगन में गये तो बहुत तनाव में थे. कल्याणी उनके भावों को ताड़ गई.
कल्याणी ने पूछा-वे क्या कह रहे थे? मुझे उनकी बात समझ में ठीक से नहीं आ रही थी. वह सुफल के विवाह का अपनी बेटी से करने का रिश्ता लेकर जरूर आये थे लेकिन उनके बात करने का लहजा रौब से भरा था जो मुझे ठीक नहीं लग रहा था. बल्कि मुझे तो लगा कि आप इंकार करेंगे तो वह सुफल को ठीक से नौकरी भी नहीं करने देंगे.
विभूति नारायणजी- लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा है.
कल्याणी मुझे सेक्रेटरी साहब की बात सुनकर कर रामायण का एक प्रसंग याद आ रहा है जब रावण मारीच के पास अपना प्रस्ताव लेकर गया था. प्राण भय के चलते मारीच को वह प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा.
गोस्वामीजी कहते हैं-
नवनि नीच के अति दुखदाई।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।(अरण्य काण्ड २३-२४)
मुझे भी लगता है सेक्रेटरी साहब के इस प्रस्ताव को सुफल की निर्विघ्न नौकरी के हित में स्वीकार करना होगा.
कहाॅं हमलोग मन ही मन सोच रहे थे कि सुफल का विवाह अपने मित्र शिवशंकर की बेटी सुषमा से करने का! याद है तुम जब पांच साल पहले बीमार पड़ी थी तो उसने तुम्हारी कितनी सेवा की थी? मैं उस समय कितना असहाय महसूस कर रहा था. घर में मेरे और तुम्हारे अलावा और कोई नहीं. उसकी समय पर दवा एवं सेवा से हीं तुम ठीक हो सकी थी.
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रात भर दोनों इसी तनाव में रहे. बार-बार विभूति नारायण जी को सेक्रेटरी साहब की यह बात याद आ रही थी-
" विभूति जी आप समझ रहे हैं न कि मैं क्या कहना चाहता हूॅं?"
सुबह होते ही उन्होंने सुफल को पत्र लिखा-
चिरंजीवी सुफल,
शुभाशीर्वाद.
हम और तुम्हारी अम्मा कुशल से हैं. बेटा! मैं आशा करता हूॅं कि तुम भी वहाॅं अच्छे से होगे और अपने दायित्वों का कुशलतापूर्वक एवं निष्ठा से निर्वहन कर रहे होगे.
आगे समाचार यह है कि तुम्हारे डिपार्टमेंट के सबसे बड़े सेक्रेटरी साहब अपनी बेटी का रिश्ता लेकर गाॅंव आए थे. हो सकता है तुम्हें भी वे बता कर आए हों.
बेटा! हमने भी तुम्हारे भविष्य को ख्याल करते हुए ये सोचा है कि यह रिश्ता को हमलोग स्वीकार कर लें. बहुत बात हैं. तुम स्वयं समझदार हो.
लेकिन मैं यह सोचता हूं कि यह विवाह दिल्ली में हीं हो जाए तो अच्छा है. सेक्रेटरी साहब वहाॅं अपनी इच्छा से विवाह की तिथि जब चाहें तय कर लें और जैसा वे अच्छा समझें वैसा इंतजाम कर लें; हमें खुशी होगी.
हम और तुम्हारी माॅं वहाॅं तय समय पर पहुंच जाएंगे.
हाॅं! एक बात हम कहना भूल गए थे कि बहुत दिनों से हमारी इच्छा थी कि हम अब काशीवास करें.वह संयोग अब आ गया लगता है. सालों से सोच रहा था कि जो रामचरितमानस गांव में पढ़ कर लोगों को सुनाते हैं उसे अब इसके रचयिता त्रिकालज्ञ शिव को हीं सुनाएं.
जिम्मेदारी के नाम पर अब कुछ रह नहीं गया है कि मैं माया- मोह से इस उम्र में भी चिपका रहूॅं. जहाॅं तक तुम्हारे विवाह की जिम्मेदारी का प्रश्न है वह शिव स्वयं हल किए दे रहे हैं.
लगभग ४-५ दिन बाद अक्षय तृतीया आने वाला है. इसे हमारे शास्त्र में अबूझ मुहूर्त कहा गया है. मान्यता है कि इस दिन किया गया कोई भी शुभ कार्य अक्षय फलदाई एवं कल्याणकारी होता है.सो मैंने सोचा है कि उस तिथि को हीं हम और तुम्हारी अम्मा काशी की यात्रा के लिए प्रस्थान करेंगे. अब हम दोनों महादेव के शरणागत होकर अब अपने जीवन का शेषकालक्षेप करना चाहते हैं.
रही बात खेती गृहस्थी की; सो उसका भी इंतजाम हम गाॅंव के हीं जीवन जिसे तुम भी जानते हो, के जिम्मे लगा देंगे. वह तुम्हें खेती बाड़ी का हिसाब दे दिया करेगा. ऐसा इसलिए कि हम समझते हैं कि सरकारी नौकरी करते हुए तुम्हारे लिए इन खेती-बाड़ी को सम्हालना मुश्किल होगा. तुम्हें इसका अनुभव न के बराबर है. वैसे ये हम सोचते हैं तुम जैसा ठीक समझना, वैसा बंदोबस्त करना.
सदा सुफल भवेत.
तुम्हारा हीं,
विभूति नारायण.
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चार दिन बाद
सुफल नारायण(अपने ड्राइवर को सौ-सौ रूपए के दो नोट पकड़ाते हुए)- अरूण! मुझे एक जरूरी काम से गाॅंव जाना है. तुरंत कलेक्ट्रेट चलो; वहाॅं डीएम सर से छुट्टी लेना होगा.हमको कलेक्ट्रेट छोड़ते हुए तुम ऐसा करना कि पहली एक्सप्रेस बस जो शाम को सासाराम जाती हो, उसका तुम टिकट ले लेना.
अरूण-जी! सर कोई इमरजेंसी हो गया क्या? घर पर माॅं-पिताजी कुशल से तो हैं न? ऐसा है तो सर जिप्सियवे से गाॅंव चलिए न!
सुफल- नहीं-नहीं; ऐसी कोई बात नहीं है. सब ठीक है तुम चिंता मत करो.
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अरे! बेटा सुफल! तुम!- सुफल को देखकर कल्याणी चहक उठी.
देखिए अपना सुफल आया है- कल्याणी ने अपने पति को आवाज देकर बताया. फिर मन में शंका उठी; बोली- बेटा वहां नौकरी पर सब ठीक तो है न?
सुफल नारायण (मां के चरण स्पर्श करते हुए)- हां माॅं! मैं अपनी ड्यूटी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करता हूॅं. तुम बिल्कुल चिंता न करो.
तब तक विभूति नारायण भी उठ कर बरामदे में आ गये. पुत्र को देख मन उनका उसी तरह हर्षित हो रहा था जैसे राम को देख दशरथ हर्षित होते थे.
सुफल ने उनके पैर छुए. तीनों में से कोई किसी से कुछ पूछ नहीं रहा था.वातावरण शांत और शुद्ध था. विभूति नारायण समझ गये कि सुफल को उनका पत्र मिल चुका है. न कुछ वह पूछ रहे थे और न हीं सुफल. सुफल ने घर के भीतर नज़रें दौरा कर देखा तो लगा कि यात्रा की तैयारी लगभग पूरी थी.
सुफल ने पूछा -पिताजी अक्षय तृतीया कब है?
विभूति नारायण- कल हीं है बेटा.
सुफल- तो आप दोनों कल काशी जा रहे हैं?
विभूति- हां, विचार तो ऐसा ही है. और कल दिन भी बहुत अच्छा है. इस दिन किया गया कोई भी शुभ कार्य अक्षय फलदाई होता है.
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कुछ देर बाद सुफल घर से बाहर निकलते हुए-
अम्मा, मैं थोड़ी देर में आता हूॅं.
सुफल सुषमा का हाथ पकड़कर घर में आता है.
सुफल-पिताजी! सिर्फ आप दोनों हीं कल काशी नहीं जाइएगा. बल्कि हम सभी चलेंगे.मैंने आपके पसंद की बहू चुन लिया है; आपने मुझे कभी कहा नहीं, लेकिन मैं ऐसा नहीं हूॅं कि आपके मन को न पढ़ सकूं. वह बेटा क्या जो अपने माॅं-बाप के मनोभाव को न समझ सके. यह सुषमा भी चलेगी. मैंने सुषमा के पिता और आपके मित्र को इस सम्बंध में बता दिया है. आप कहते हैं न कि अक्षय तृतीया का दिन बहुत हीं शुभ और अक्षय फलदाई होता है तो यदि सम्भव हो तो सुषमा के साथ मेरे विवाह का शुभ कार्य इसी मूहूर्त में काशी के विश्वेश के मंदिर में कर डालिए. सुषमा को आप अपना बहू बना लीजिए. हम मात्र तीन दिन की छुट्टी लेकर हीं आए हैं.
पिताजी! आपकी पसंद सचमुच बहुत अच्छी है; सुफल ने सुषमा की ओर देखते हुए कहा.
और हाॅं! आपको सेक्रेटरी साहब के रौब में आने की जरा भी जरूरत नहीं है. आपके पास आने से पहले उन्होंने मुझे फोन भी किया था. मैंने हीं उन्हें यहाॅं आपके पास भेजा था कि वे आपसे बात कर लें. लेकिन आपकी चिट्ठी मिलने के बाद सब कुछ साफ हो गया.
पिताजी! सेक्रेटरी साहब मेरा कुछ भी नहीं कर पायेंगे.आपके बेटे को यह आइएएस की नौकरी अपने मेरिट से मिला है न कि सेक्रेटरी साहब की कृपा से.और फिर कोई आफिसर जिसने देश सेवा एवं जनता की सेवा का संकल्प ले लिया हो, उसके लिए ट्रांसफर, प्रोमोशन,कैडर में हेरफेर जैसे तिकड़म बहुत अहमियत नहीं रखते हैं. जहाॅं उसे यह लगेगा कि ये सारी चीजें उसके सामने ऐसी बाधा बन आ खड़ी हुई हैं जिसे वह पार नहीं कर पा रहा है तो यह सुफल यहीं गांव में रहकर आपके साथ आपकी खेती में रहकर हाथ बॅंटाना शुरू कर देगा जैसे कभी आप दादाजी के साथ रहकर उनका सहयोग करते थे.
पिताजी!आपके बेटे में आपका हीं संस्कार है. वह सत्य, निष्ठा और ईमानदारी से अपने फ़र्ज़ को अंजाम दे रहा है और आगे भी देता रहेगा. यह मैं आपको वचन देता हूं.
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विभूति दम्पत्ति के ऑंखों से ऑंसू बहे चले जा रहे थे.
ये आंसू थे-खुशी के,प्रेम के, प्रसन्नता के,संतोष के,वात्सल्य के,गर्व के.
और ये क्षण थे- पुत्ररूपी तरू पर लगे अपने सुकृतिरूपी फल को निहारने के.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२१.०४.२०२३.
(सिविल सेवा दिवस)
(Written 2 years ago)
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