सनातन हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारकर्ता शंकराचार्य
शंकर के ओज और तेज का वर्णन करना असम्भव है।उनकी प्रतिभा अद्वितीय नहीं बल्कि अद्भुत एवं अलौकिक थी। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अद्भुत और आश्चर्य का विषय है।कई लोग तो यह मानते हैं कि आचार्य शंकर के रूप में साक्षात भगवान शंकर ने हीं सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रयोजनार्थ अद्भुत अलौकिक प्रतिभासम्पन्न बालक के रूप में जन्म लिया था। शंकरः शंकरः साक्षात्-ऐसी उनकी मान्यता है।
पांच वर्ष के बालक शंकर यज्ञोपवीत होकर शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के घर गये और केवल 8 वर्ष की अवस्था में वेद-वेदान्त और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन कर घर वापस आ गये और सन्यास लेने की इच्छा व्यक्त कर माता सुभद्रा से इसकी अनुमति मांगी;पिता शिवगुरू का देहांत तो तब हीं हो गया था जब बालक शंकर मात्र 3 वर्ष के थे। वह स्त्री जिसके पति का देहांत हो गया हो और उसका एकमात्र बालक पुत्र सन्यासी जीवन व्यतीत कर परिव्राजक होना चाहे यह उसे कैसे स्वीकार हो! माता ने मना कर दिया। किन्तु मां के सामने हीं शंकर के साथ घटी एक घटना ने माता को इस अनुमति देने के लिए बाध्य कर डाला। बालक शंकर नदी में स्नान कर रहे थे और अचानक एक ग्राह ने उसे अपना ग्रास बनाने के लिए पकड़ लिया। नदी के किनारे बैठी मां अपने पुत्र को काल के गाल में समाते देख विह्वल हो आर्तनाद कर उठी। माता को शंकर ने कहा- मां! तुम मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दे दो तो यह ग्राह मुझे तुरंत छोड़ देगा। अब माता सुभद्रा के लिए अनुमति देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा था। हुआ भी ऐसा ही, मां के अनुमति देने के साथ हीं चमत्कार हुआ। मगरमच्छ बालक शंकर को छोड़ पुनः अथाह- अपार जलराशि में विलीन हो गया।
इस प्रकार बालक शंकर 8 वर्ष की अवस्था में हीं सन्यासी बन गये।पहले जब वे घर से चले तो नर्मदातट पर निवास किया, तदनन्तर काशी आये। वहां अल्पकाल की साधना से परमयोगसिद्ध महात्मा हो गये। काशी आने के साथ हीं बालक शंकर की जबरदस्त ख्याति हुई। बालसन्यासी शंकर की प्रतिभा और प्रतिबद्धता पर सिर्फ और सिर्फ आश्चर्य हीं प्रकट किया जा सकता है जब हमे यह ज्ञात होता है कि उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था प्राप्त करते करते सनातन धर्म की सेवा में इतने ग्रंथ रच डाले जिसका अवगाहन कर व्यक्ति को तात्विक ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह अपने कर्मों को चित्त की शुद्धि के लिए ही सम्पादित करने में प्रवृत्त हो जाता है। यों तो शंकराचार्य के लिखे हुए लगभग 272 ग्रन्थ बताये जाते हैं, परन्तु यह कहना कठिन है कि वे सब उन्हीं के लिखे हुए हैं। हो सकता है इन में से कुछ पश्चातवर्ती शंकराचार्य की उपाधि धारण करने वाले आचार्य द्वारा लिखे गये हों किन्तु जिन प्रधान प्रधान ग्रंथों की रचना को आदिशंकराचार्य की हीं रचना समझी जाती है उनमें मुख्य हैं - ब्रह्मसूत्रभाष्य, उपनिषद(ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, श्वेताश्वतर इत्यादि)भाष्य, गीताभाष्य, ललितात्रिशतीभाष्य, सर्ववेदान्तसिद्धांतसारसंग्रह, विवेकचूडामणि इत्यादि।
ब्रह्मसूत्रभाष्य की रचना के बारे मे तो कहा जाता है कि जब शंकर की अवस्था 16 वर्ष की थी तभी भगवान विश्वनाथ ने उन्हें स्वयं दर्शन देकर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। वेदान्तसूत्र पर जब वे भाष्य लिख चुके थे तो एक ब्राह्मण ने गंगातट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका सत्ताईस दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा। पीछे उन्हें मालूम हुआ कि स्वयं भगवान वेदव्यास ब्राह्मण के वेश में प्रकट होकर उनके साथ विवाद कर रहे हैं। तब उन्होंने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और क्षमा याचना की। विद्वानों का विश्वास है कि भगवान वेदव्यास ने हीं उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और उनकी 16 वर्ष की अल्पायु को 16 और बढ़ा कर 32 वर्ष कर दिया। इस घटना के बाद ही शंकराचार्य दिग्विजय को निकल पड़े।
काशी में सभी विरूद्ध मतवाले को परास्त कर आचार्य शंकर बदरिकाश्रम आये। वहां भी उन्होंने कुछ दिन रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की। बदरिकाश्रम से वे प्रयाग पहुँचे। वहां उनकी भेंट कुमारिल भट्ट से हुई। कुमारिल ने उन्हें माहिष्मति में निवास कर रहे उद्भट विद्वान मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ के लिए प्रेरित किया। हम सभी जानते हैं कि मण्डनमिश्र शास्त्रार्थ में शंकराचार्य से परास्त हुए और उन्होंने शंकर का शिष्यत्व ग्रहण किया। कहते हैं मण्डनमिश्र की विदुषी पत्नी भारती ने पति की हार देख स्वयं आचार्य शंकर से शास्त्रार्थ किया और कामशास्त्र विषयक प्रश्न पूछे जिसके लिए शंकराचार्य को योगबल से परकाया प्रवेश कर कामशास्त्र की शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी।
शंकराचार्य मध्य भारत पर विजय प्राप्त कर पुनः दक्षिण आये। यहां भी उनका दिग्विजय अभियान जारी रहा। तुंगभद्रा के तट पर एक मंदिर बनवाकर उसमें शारदादेवी की स्थापना की। एक मठ भी स्थापित किया जिसे श्रृंगेरीमठ कहते हैं। मण्डनमिश्र जब आचार्य शंकर से पराजित हुए तब वे आचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर सुरेश्वराचार्य कहलाये और इसी श्रृंगेरीमठ के आचार्य नियुक्त हुए। उनकी विदुषी पत्नी जो पति के सन्यासी हो जाने पर ब्रह्मलोक जाने को उद्यत हो गई थी, को भी शंकराचार्य ने समझा बुझा कर वहीं मठ में रहकर अध्यापनकार्य करने हेतु प्रार्थना की। कहते हैं, भारती द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही श्रृंगेरी और द्वारका के शारदामठों का शिष्य-सम्प्रदाय 'भारती' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दक्षिण श्रृंगेरीमठ की स्थापना के बाद शंकराचार्य ने पुरी आकर गोवर्धनमठ की स्थापना की।सर्वत्र दक्षिण में वेदान्त की महिमा एवं सनातन धर्म की ध्वजा फहराकर शंकर उज्जैन आये। उज्जैन से गुजरात आकर द्वारका में मठ की स्थापना की। फिर कश्मीर के शारदा क्षेत्र में पहुंच वहां के पण्डितों को परास्त कर अपना मत प्रतिष्ठित किया। वहां से कामरूप आकर शैवों से शास्त्रार्थ और फिर बदरिकाश्रम आकर ज्योतिर्मठ की स्थापना की। वहां से शंकराचार्य केदारनाथ आये और अपनी 32 वर्षीय काया को यहीं विसर्जित कर सीधे देवलोक चले गए।
क्या ये कोई गम्भीर आश्चर्य का विषय नहीं है कि आज से लगभग साढ़े बारह सौ साल पहले जब यातायात का कोई विकसित साधन भी नहीं था, एक 16 वर्ष का युवक अगले 16 वर्ष तक सम्पूर्ण भारत को एक धार्मिकसूत्र में बांधने और धर्म के नाम पर तत्समय की भ्रांति और अनाचार को दूर करने का पवित्र उद्देश्य लेकर सम्पूर्ण भारत की उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक अनवरत यात्रा करे, विरोधी मतावलम्बी से शांतिपूर्वक शास्त्रार्थ करे, तिगुने और चौगुने उम्र का विद्वान उससे प्रभावित और पराजित होकर उसका शिष्यत्व ग्रहण करे, वेदान्तनिष्ठ ज्ञान और आचरण की सुरक्षा और प्रचार के लिए चतुर्दिक मठ की स्थापना करे जो आज 1300 वर्ष बीत जाने पर भी जीवन्त हो तथा वेदान्तियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हो? ऐसा तो सिकन्दर जिसे दुनिया विश्वविजेता कहती है, भी न कर सका जो आचार्य शंकर के दिग्विजय से सम्पूर्ण भारतीय को प्राप्त हुआ। Simply Astonishing.
ऐसे प्रकाण्ड पंडित, अद्भुत सन्यासी, विलक्षण संगठनकर्ता और सनातन धर्म की अमूल्य सेवा करने वाले आचार्य शंकर को मेरा अशेष नमन।
राजीव रंजन प्रभाकर,
07.04.2019
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