विनाशी शरीर में अविनाशी आत्मा का निवास
क्या यह सम्भव है? आइये विचारते हैं।
जिसने कुतर्क का आश्रय ले रखा हो तथा जो शास्त्रवचन के प्रति दुराग्रह रखता हो उसे तो साक्षात ब्रह्मा भी समझाने में असमर्थ होते हैं तथापि युक्ति से यह इस प्रकार समझा जा सकता है -
दूध को लीजिए। एक निश्चित अवधि के बाद इसमें विकार उत्पन्न हो जाता है तथा प्रायः एक दिन बाद ही वह दुर्गन्धयुक्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है।किन्तु इसी दूध में दही का निवास है और मथने के अनन्तर मख्खन तथा घी जो बनता है उसका अस्तित्व भी इसी दूध में है।अर्थात जिस प्रकार दही, मख्खन और घी का निवास दूध में है उसी प्रकार आत्मा का तात्कालिक निवास यह शरीर है।दूध की अपेक्षा घी का अस्तित्व वर्षों तक है। इसलिए युक्ति से दूध को नश्वर और घी को अविनाशी समझने पर आशय समझ में आ जाना चाहिए कि अविनाशी आत्मा का निवास नश्वर शरीर में किस प्रकार सम्भव है। अन्तरदृष्टि से सम्पन्न पुरूष के लिए यह उसी तरह आश्चर्यजनक नहीं है जिस तरह कोई सामान्य जन के लिए दूध में दही, मख्खन या घी का अस्तित्व। इसे वह दूध में प्रत्यक्षतः न देखकर भी अपने सामान्य ज्ञान से वह सहज ही सम्भव पाता है।
ब्रह्मसूत्र, उपनिषद एवं भगवद्गीता जिन्हें विद्वानों ने प्रस्थानत्रयी कहा है, में दृढ़तापूर्वक इसे हीं बताने का प्रयास किया गया है कि यह देह नश्वर है और आत्मा अविनाशी। एक देह है दूसरा देही। एक दूसरे से सर्वथा पृथक है। क्या हमारा शरीर और वस्त्र कभी दूसरे से mix हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं। उसी तरह हमारा शरीर और आत्मा भी एक दूसरे से अलग है। दोनों की प्रकृति हीं अलग है। इसमें मेल हो ही नहीं सकता, जो सम्बंध है वह तादात्म्य मात्र है। साधन के परिपाक होने के पश्चात दोनों का एक दूसरे से बिछड़ना ध्रुव है। यह पंचतत्व निर्मित शरीर जो प्रकृति का अंश है, वापस पंचतत्व को हीं प्राप्त हो जाता है, अर्थात प्रकृति में हीं विलीन हो जाता है ;और आत्मा की गति परमात्मा में समा जाने में है। इस प्रकार जो जिसका अंश है उसी अंशी में उसका विश्राम है। शरीर प्रकृति का अंश है, इसलिए उसका अंतिम विश्राम प्रकृति है तथा जीव परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा अपने अंशी परमात्मा में हीं अंतिम रूप से विश्राम को प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य है कि अंश अंशी को स्वयं खोज लेता है। जिस प्रकार घट के नष्ट हो जाते हीं घट के भीतर का आकाश का नाश नहीं होता प्रत्युत वह महाकाश में विलीन हो जाता और मृदानिर्मित घट की गति उसी मिट्टी में मिल जाने की होती है। वही परमगति(जिसके बाद जीव को दूसरा जन्म न लेना पड़े वही जीव की परमगति है) हमारे शरीर और आत्मा की भी है।
हम घर में रहते हैं किन्तु हम स्वयं घर नहीं है। यदि यही घर जिसमें हम रहते हैं, नष्ट हो जाय तो हम क्या करते हैं? उसे छोड़ हम दूसरे घर में निवास करने लगते हैं। यही आत्मा और शरीर के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। दोनों की प्रकृति हीं अलग है। संसार में परमात्मा ने आत्मा को शरीररूपी किराये का घर उपलब्ध करा दिया है। मनुष्य का कर्तव्य है कि जब तक उसमें स्थित चेतन तत्व (आत्मा) है वह अपने कर्मों से इस घर(शरीर) को दूषित न करे।
श्रीमद्भगवद्गीता में तो स्वयं भगवान ने अर्जुन को बार बार यही समझाने की कृपा की है कि यह शरीर जो निरन्तर विनाश की ओर अग्रसर है पर उसे विषाद नहीं करना चाहिए क्योंकि देह का नाश होना तय है और जिसका नाश तय हो उसके प्रति मोह से ग्रस्त होकर अपने कर्तव्य से विमुख होना कहीं से वीरोचित नहीं है। उल्टे यह अकीर्ति का हेतु है और किसी वीर(अपने कर्तव्य को बिना राग द्वेष को सम्पादित करने वाला ही वीर है) के लिए अकीर्ति की अपेक्षा कर्तव्यपथ पर आरूढ़ रह मृत्यु को प्राप्त हो जाना ही वरेण्य है।भगवान कहते हैं - अर्जुन! तुम्हें इस रणक्षेत्र में इस समय कौन मेरे आचार्य हैं, मामा है, कौन भाई है, कौन पुत्र है, कौन पौत्र है, कौन सखा है,कौन सुह्रृद है, कौन सम्बंधी है; इत्यादि पर कदापि विचार नहीं करना चाहिए। युद्ध करना ही तुम्हारा इस समय कर्तव्य है और इसलिये अर्जुन तुम ह्रदय की दुर्बलता को त्याग युद्ध करो।
वहीं भगवान आत्मा के सम्बंध में कहते हैं कि यह अविनाशी है। शरीर के नाश होने के बावजूद आत्मा का नाश नहीं होता क्योंकि आत्मा अविनाशी है। इसकी तुलना वस्त्र से कर उन्होंने अर्जुन को युक्ति से समझाया है कि वस्त्र के जीर्ण-शीर्ण होने पर जिस तरह मनुष्य उसे त्याग कर नवीन वस्त्र को धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी एक देह के नष्ट होने के बाद उसे त्याग कर दूसरे शरीर को धारण करता है। यही पुनर्जन्म है जो आत्मा का नहीं बल्कि शरीर का होता है। यह तो अजन्मा है, अबध्य है। यह अव्यक्त है;मात्र जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि में हीं इसे व्यक्त कहा जा सकता है और जिसमें यह व्यक्त है वह व्यक्ति है। हां! भावी शरीर का निर्माण जो आत्मा का गेह बनेगा, वह हमारे पूर्वजन्म के पुरूषार्थ(दैव) एवं वर्तमान जीवन के पुरूषार्थ के बीच संघर्ष के फलस्वरूप है।
गीताजी में वर्णित कतिपय श्लोकों का आश्रयलेकर उपरोक्त निवेदन का प्रयोजन यह है कि हमें यह श्रद्धा-विश्वास से यह मान लेना चाहिए कि विनाशी शरीर आत्मा का भोगायतन है। यह आत्मा जो अविनाशी है उसे हमने अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से बांध रखा है। ऐसे तो इस सम्पूर्ण जगत में ऐसा कुछ नहीं है जो इसे बांध सके। यह हमारा अज्ञान है जिसके फलस्वरूप यह हमें बंधा प्रतीत होता है। जैसे अंधकार की अपनी कोई सत्ता नहीं बल्कि स्थल विशेष का किसी कारणवश प्रकाश से बंचित होने की स्थिति मात्र है उसी प्रकार ज्ञानरहित पुरूष के लिए हीं मोक्ष और बंध की सत्ता है। जिसे परमात्मा के प्रकाश की अनुभूति हो जाती है उसके लिए बन्ध क्या और मोक्ष क्या! वह तो स्थूल शरीर धारण कर निरन्तर शुभवासना से प्रेरित हो कर्म करता हुए इसी जीवन में जीवन्मुक्त हो जाता है। वह सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता है और कुछ नहीं करते हुए भी सभी कुछ करता है।
शेष भगवद्कृपा।
राजीव रंजन प्रभाकर
04.04.2019.
जिसने कुतर्क का आश्रय ले रखा हो तथा जो शास्त्रवचन के प्रति दुराग्रह रखता हो उसे तो साक्षात ब्रह्मा भी समझाने में असमर्थ होते हैं तथापि युक्ति से यह इस प्रकार समझा जा सकता है -
दूध को लीजिए। एक निश्चित अवधि के बाद इसमें विकार उत्पन्न हो जाता है तथा प्रायः एक दिन बाद ही वह दुर्गन्धयुक्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है।किन्तु इसी दूध में दही का निवास है और मथने के अनन्तर मख्खन तथा घी जो बनता है उसका अस्तित्व भी इसी दूध में है।अर्थात जिस प्रकार दही, मख्खन और घी का निवास दूध में है उसी प्रकार आत्मा का तात्कालिक निवास यह शरीर है।दूध की अपेक्षा घी का अस्तित्व वर्षों तक है। इसलिए युक्ति से दूध को नश्वर और घी को अविनाशी समझने पर आशय समझ में आ जाना चाहिए कि अविनाशी आत्मा का निवास नश्वर शरीर में किस प्रकार सम्भव है। अन्तरदृष्टि से सम्पन्न पुरूष के लिए यह उसी तरह आश्चर्यजनक नहीं है जिस तरह कोई सामान्य जन के लिए दूध में दही, मख्खन या घी का अस्तित्व। इसे वह दूध में प्रत्यक्षतः न देखकर भी अपने सामान्य ज्ञान से वह सहज ही सम्भव पाता है।
ब्रह्मसूत्र, उपनिषद एवं भगवद्गीता जिन्हें विद्वानों ने प्रस्थानत्रयी कहा है, में दृढ़तापूर्वक इसे हीं बताने का प्रयास किया गया है कि यह देह नश्वर है और आत्मा अविनाशी। एक देह है दूसरा देही। एक दूसरे से सर्वथा पृथक है। क्या हमारा शरीर और वस्त्र कभी दूसरे से mix हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं। उसी तरह हमारा शरीर और आत्मा भी एक दूसरे से अलग है। दोनों की प्रकृति हीं अलग है। इसमें मेल हो ही नहीं सकता, जो सम्बंध है वह तादात्म्य मात्र है। साधन के परिपाक होने के पश्चात दोनों का एक दूसरे से बिछड़ना ध्रुव है। यह पंचतत्व निर्मित शरीर जो प्रकृति का अंश है, वापस पंचतत्व को हीं प्राप्त हो जाता है, अर्थात प्रकृति में हीं विलीन हो जाता है ;और आत्मा की गति परमात्मा में समा जाने में है। इस प्रकार जो जिसका अंश है उसी अंशी में उसका विश्राम है। शरीर प्रकृति का अंश है, इसलिए उसका अंतिम विश्राम प्रकृति है तथा जीव परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा अपने अंशी परमात्मा में हीं अंतिम रूप से विश्राम को प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य है कि अंश अंशी को स्वयं खोज लेता है। जिस प्रकार घट के नष्ट हो जाते हीं घट के भीतर का आकाश का नाश नहीं होता प्रत्युत वह महाकाश में विलीन हो जाता और मृदानिर्मित घट की गति उसी मिट्टी में मिल जाने की होती है। वही परमगति(जिसके बाद जीव को दूसरा जन्म न लेना पड़े वही जीव की परमगति है) हमारे शरीर और आत्मा की भी है।
हम घर में रहते हैं किन्तु हम स्वयं घर नहीं है। यदि यही घर जिसमें हम रहते हैं, नष्ट हो जाय तो हम क्या करते हैं? उसे छोड़ हम दूसरे घर में निवास करने लगते हैं। यही आत्मा और शरीर के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। दोनों की प्रकृति हीं अलग है। संसार में परमात्मा ने आत्मा को शरीररूपी किराये का घर उपलब्ध करा दिया है। मनुष्य का कर्तव्य है कि जब तक उसमें स्थित चेतन तत्व (आत्मा) है वह अपने कर्मों से इस घर(शरीर) को दूषित न करे।
श्रीमद्भगवद्गीता में तो स्वयं भगवान ने अर्जुन को बार बार यही समझाने की कृपा की है कि यह शरीर जो निरन्तर विनाश की ओर अग्रसर है पर उसे विषाद नहीं करना चाहिए क्योंकि देह का नाश होना तय है और जिसका नाश तय हो उसके प्रति मोह से ग्रस्त होकर अपने कर्तव्य से विमुख होना कहीं से वीरोचित नहीं है। उल्टे यह अकीर्ति का हेतु है और किसी वीर(अपने कर्तव्य को बिना राग द्वेष को सम्पादित करने वाला ही वीर है) के लिए अकीर्ति की अपेक्षा कर्तव्यपथ पर आरूढ़ रह मृत्यु को प्राप्त हो जाना ही वरेण्य है।भगवान कहते हैं - अर्जुन! तुम्हें इस रणक्षेत्र में इस समय कौन मेरे आचार्य हैं, मामा है, कौन भाई है, कौन पुत्र है, कौन पौत्र है, कौन सखा है,कौन सुह्रृद है, कौन सम्बंधी है; इत्यादि पर कदापि विचार नहीं करना चाहिए। युद्ध करना ही तुम्हारा इस समय कर्तव्य है और इसलिये अर्जुन तुम ह्रदय की दुर्बलता को त्याग युद्ध करो।
वहीं भगवान आत्मा के सम्बंध में कहते हैं कि यह अविनाशी है। शरीर के नाश होने के बावजूद आत्मा का नाश नहीं होता क्योंकि आत्मा अविनाशी है। इसकी तुलना वस्त्र से कर उन्होंने अर्जुन को युक्ति से समझाया है कि वस्त्र के जीर्ण-शीर्ण होने पर जिस तरह मनुष्य उसे त्याग कर नवीन वस्त्र को धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी एक देह के नष्ट होने के बाद उसे त्याग कर दूसरे शरीर को धारण करता है। यही पुनर्जन्म है जो आत्मा का नहीं बल्कि शरीर का होता है। यह तो अजन्मा है, अबध्य है। यह अव्यक्त है;मात्र जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि में हीं इसे व्यक्त कहा जा सकता है और जिसमें यह व्यक्त है वह व्यक्ति है। हां! भावी शरीर का निर्माण जो आत्मा का गेह बनेगा, वह हमारे पूर्वजन्म के पुरूषार्थ(दैव) एवं वर्तमान जीवन के पुरूषार्थ के बीच संघर्ष के फलस्वरूप है।
गीताजी में वर्णित कतिपय श्लोकों का आश्रयलेकर उपरोक्त निवेदन का प्रयोजन यह है कि हमें यह श्रद्धा-विश्वास से यह मान लेना चाहिए कि विनाशी शरीर आत्मा का भोगायतन है। यह आत्मा जो अविनाशी है उसे हमने अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से बांध रखा है। ऐसे तो इस सम्पूर्ण जगत में ऐसा कुछ नहीं है जो इसे बांध सके। यह हमारा अज्ञान है जिसके फलस्वरूप यह हमें बंधा प्रतीत होता है। जैसे अंधकार की अपनी कोई सत्ता नहीं बल्कि स्थल विशेष का किसी कारणवश प्रकाश से बंचित होने की स्थिति मात्र है उसी प्रकार ज्ञानरहित पुरूष के लिए हीं मोक्ष और बंध की सत्ता है। जिसे परमात्मा के प्रकाश की अनुभूति हो जाती है उसके लिए बन्ध क्या और मोक्ष क्या! वह तो स्थूल शरीर धारण कर निरन्तर शुभवासना से प्रेरित हो कर्म करता हुए इसी जीवन में जीवन्मुक्त हो जाता है। वह सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता है और कुछ नहीं करते हुए भी सभी कुछ करता है।
शेष भगवद्कृपा।
राजीव रंजन प्रभाकर
04.04.2019.
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