जीवन्मुक्त कौन है?

जीव परमात्मा का अंश है; जन्म लेते ही उसे जो देह की प्राप्ति होती है वही कालक्रम में बढ़ता हुआ नाश को प्राप्त होता है। जीव का वह देह जन्म से लेकर नाश तक विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। इन अवस्थाओं के specific नाम हैं जिसे हम बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था तथा जरावस्था कहते हैं और यही जराजर्जर शरीर जब नाश को प्राप्त होता है तो उसे मृत्यु की संज्ञा दी जाती है। जीव के देहधारण से देहत्याग के बीच का जो काल है, वही जीव का जीवन है।
सूक्ष्मता से सोचने पर हमको यह पता चल सकता है कि जीवन ज्ञानियों की दृष्टि में भार क्यों है? आशय स्पष्ट है; आशा-तृष्णा, आसक्ति-अनुरक्ति, मोह-शोक, हर्ष-अमर्ष, राग-द्वेष, काम-क्रोध ये समस्त सूक्ष्म वृत्ति उस निर्मल जीवात्मा को जीवनपर्यन्त उन वृत्तियों का क्रीड़ामृग बनाये रखती है। इन द्वन्दाधात से दग्ध जीवन को भार न कहा जाय तो फिर क्या कहा जाय। देहावसान के पूर्व हीं जीवन को इस भार से मुक्त करना जीवन्मुक्त होना कहलाता है। देहत्याग(मृत्यु) जीवनमुक्ति कहीं से नहीं है। मृत्यु तो अशेष वासना से निर्धारित दूसरे देहधारण हेतु देहान्तरगमन का नाम है। यह ज्ञानाग्नि से दग्ध किसी व्यक्ति के अनेक जन्मों के शुभसंस्कारवश निर्मित पुरूषार्थ का हीं परिणाम समझना चाहिए जो उसमें यह भावोदय हो जाय कि वह जीवन्मुक्त है।
ज्ञान एवं वैराग्य के स्वयंसिद्धप्रमाण आचार्यशंकर ने जो जीवन्मुक्त होने की पात्रता निर्धारित की है, वे क्रमशः इस प्रकार हैं -
* इस अनेकभेदसंकुलित जगत को जागृतावस्था का स्वप्न समझना। इस हेतु साधक में नित्यानित्य विवेक का होना आवश्यक है।
*समस्त भोग्य पदार्थ के प्रति रूच्याभाव को पुष्ट करना।
*शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधानरूपी षटसम्पत्ति का अर्जन एवं उनका परिवर्धन जीवन्मुक्त होने के लिए अनिवार्य है। यही वे साधन हैं जो जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने में समर्थ है। यह अत्यंत हीं साधारण अनुभव का विषय है कि बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। लौकिक बन्धन तो दिख जाता है और इसलिये हम उसके चंगुल से निकलने का सम्पूर्ण सामर्थ्य से प्रयत्न करते हैं किन्तु यह अज्ञानकल्पित बन्धन सहज ही नहीं दिखता जब तक भगवद्कृपा से ज्ञानचक्षु न प्राप्त हो जाय।
निष्कर्षरूपेण यही निवेदित किया जा सकता है कि कामनाशून्य होना हीं जीवन्मुक्त होना है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने इसे हीं स्थितप्रज्ञ कहा है।अर्थात उसकी प्रज्ञा जीवनपर्यन्त और तदनन्तर एकमात्र परब्रह्म-परमात्मा में हीं स्थित है न कि इस असार संसार में। उन्होंने अर्जुन के इस प्रश्न को कि स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं, उसकी क्या चेष्टा(भाषा) होती है वह कैसे जीता है इत्यादि का उत्तर जो दिया है, वे मनन एवं साधन योग्य हैं । इन श्लोकों को देखिए-
             अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितिधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।          श्रीमद्भगवद्गीता, 2/54.
(अर्जुन बोले- हे केशव! स्थिरबुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं? स्थिरबुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है और कैसे चलता है अर्थात व्यवहार करता है?)
                 श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2/55
(श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ! जिस काल में मन में आयी सम्पूर्ण कामनाओं का मनुष्य भलीभांति त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आप में हीं सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।)
एक और श्लोक देखिए-
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते।। 2/56.
(दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।)
उसकी यह स्थिरबुद्धि कालविशेष न होकर यदि अंतःकरण के स्थायी भाव में परिवर्तित हो जाय वही तो जीवनमुक्ति है।
जीवनपर्यन्त और तदनन्तर इस प्रकार जिसका बोध सर्वथा वासनारहित है, वही जीवन्मुक्त है।
बीती हुई बात को याद न करना, भविष्य की चिंता न करना और वर्तमान में प्राप्त हुए सुख-दुःखादि में उदासीनता, अपने आत्मस्वरूप से सर्वथा पृथक इस गुणदोषमय संसार में समदर्शी होना इत्यादि  जीवन मुक्त के हीं लक्षण हैं। ऐसे पुरुष  देह- इन्द्रियादि में न तो अहंभाव रखते हैं न हीं अन्य वस्तुओं में इदंभाव; बल्कि देह से लेकर समस्त वस्तु में समभाव रखना हीं उनका स्वभाव होता है। ऐसे जीवन्मुक्त का देहत्याग ठीक उसी तरह होता है जैसे कोई हाथी के गले में शोभित माला टूट कर कहीं गिर जाय। भला माला उसके गले में रहे या गिरे उससे गजराज का क्या प्रयोजन!
                       (श्रीमद्भगवद्गीता एवं आचार्य शंकर द्वारा रचित विवेकचूडामणि का आश्रयलेकर निवेदित)
राजीव रंजन प्रभाकर,
18.04.2019.

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