आत्मबल एक दैवी सम्पत्ति है.
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R.R.Prabhakar |
भोगपरायण व्यक्ति का आत्मबल दिनानुदिन क्षीण होता चला जाता है। भोगलिप्सा का आत्मबल से ३६ का आंकड़ा है।
आत्मबल क्या है? आत्मबल कहीं से भी अहंकार नहीं है। अहंकार का सम्बंध आत्मा से नहीं होता है। इसका सम्बन्ध शरीर से है।अहंकार अहं का आकार है जो अज्ञान से सिंचित होकर बढ़ता ही जाता है और अंततः विनाशकारी होता है। इसके विपरीत आत्मबल कल्याणकारी होता है। सच कहिये तो यह शुद्ध रूप से आत्मा का बल है। मेरा तो मानना है कि बाहुबल, धनबल, भौतिकबल आदि सभी बलों से श्रेष्ठ आत्मबल है।इस संसार में मृत्यु को महान भय के रूप में ख्याति प्राप्त है। आत्मा का बल इतना प्रबल होता है कि उसके समक्ष इस मृत्यु का भय भी उसी तरह विलीन हो जाता है जिस तरह पवन के तीव्र वेग से आकाश में मेघ जहां तहां उड़ कर अपनी सत्ता खो देते हैं। छोटे मोटे भय की बात तो छोड़ हीं दीजिए। आत्मबल का जनक आत्मविश्वास अर्थात स्वयं के उपर विश्वास है। शुभवासना से किया गया कार्य मनुष्य में संतोष का भाव जगाता है। आत्मविश्वास का व्यक्ति में उदय तब होता है जब उसे यह भीतर से अनुभव हो कि वह भी अन्तरसाक्षी - सर्वसाक्षी परमात्मा का हीं अंश है और यह शरीर जो उसे प्राप्त हुआ है वह एक साधन मात्र है। इस साधन शरीर का उपयोग उसे आत्मकल्याण के लिए करना है।
आत्मबल से युक्त व्यक्ति षट सम्पत्तिसम्पन्न होते हैं। इन छः सम्पत्तियों यथा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधान को आचार्य शंकर ने इस प्रकार निरूपित किया है-
1.विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना शम है।
2. कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने अपने गोलकों में स्थित करना दम है।
3.वृत्ति का वाह्य विषयों का आश्रय न लेना उपरति है।
4. चिन्ता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों को सहन करना तितिक्षा है।
5. शास्त्र और गुरूवाक्यों में सत्यत्व बुद्धि करना श्रद्धा है।
6. अपनी बुद्धि को सब प्रकार से शुद्ध परमात्मा में हीं स्थिर रखना समाधान है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है।
इन्हीं सम्पत्तियों में क्रमशः वृद्धि के अनन्तर मनुष्य अपने आप को मुक्त करने में समर्थ हो सकता है वरना सोचिए तो आत्मबलविहीन एक भोगभुग्न-कामदग्ध मनुष्य है हीं क्या! दीन-हीन; उसकी स्थिति वही है जो शहदपात्र में डूबी हुई कोई मधुमक्खी की होती है जो जीवित रह कर भी एक तरह से मृत हीं तो है।
राजीव रंजन प्रभाकर,
11.04.2019
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