आचार्य शंकर के अद्वैतवाद की सरलीकृत व्याख्या

श्रीशंकराचार्य कई दृष्टिकोण से युग प्रवर्तक थे।इसमें कोई संदेहनहीं कि वे दार्शनिक जगत के सबसे अधिक देदीप्यमान रत्न हैं, बड़े-बड़े विद्वानों ने उन्हें 'दार्शनिक सार्वभौम' कह कर सम्मानित किया है। आचार्य शंकर का योगदान विस्मयकारी है जिन्होंने अपने प्रकाण्ड पांडित्य, अदम्य उद्योग और कुशल सांगठनिक क्षमता से डूबते हुए वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। उनके मत को सम्पूर्ण विश्व अद्वैतवाद से जानता है।अद्वैतवाद को विद्वान मायावाद या अध्यासवाद भी कहते हैं जिसका कारण आगे स्वतः स्पष्ट हो जायेगा।
ब्रह्म और जीव
आचार्य शंकर का स्पष्ट मत था कि ब्रह्म और जीव दोनों एक हीं हैं। जैसे समुद्र हो या सरिता हो या फिर सरोवर हो, सभी प्रकृति से एक हीं हैं क्योंकि सभी जल को हीं धारित करते हैं भले हीं जलधारणक्षमताजनितआकार में वे परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं। यही बात ब्रह्म और जीव के संदर्भ में भी है ; अर्थात ब्रह्म और जीव(आत्मा) दोनों की प्रकृति एक सी है, ये तात्विक रूप से एक हीं हैं। क्या हम समुद्र के किनारे खड़ा होकर समुद्र के आकार का अनुमान कर सकते हैं? नहीं न! उसी तरह ब्रह्म का स्वरूप इतना विशाल है कि वह निराकार है, जीव के लिए वह ब्रह्म प्रकृति से एक होते हुए भी अथाह है। किन्तु वहीं एक बाल्टी में रखे जल का आकार तुरंत जान लेते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उस जल का आकार भी बाल्टी का ही हो जाता है क्योंकि उस जल को बाल्टी ने बांध रखा है। उसी प्रकार सूक्ष्म, कारण और स्थूल शरीर  निर्मित देह से जीव(आत्मा) भी जब बंध जाता है तो जीव का आकार भी वैसा हीं भासता है जो उस देह का होता है।
आत्मा और अनात्मा
भगवान शंकर ने ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य में सम्पूर्ण प्रपंच को दो भागों में पहले विभक्त किया, ये हैं---
द्रष्टा और दृश्य
द्रष्टा वह है जो सम्पूर्ण प्रतीतियों को अनुभव करता है
दृश्य वह है जो अनुभव का विषय है

  • द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध सापेक्ष है। अंतिम द्रष्टा जो समस्त प्रतीतियों का चरम साक्षी है, का नाम 'आत्मा' है तथा जो कुछ उसका विषय है वह सब 'अनात्मा'है। आत्मा नित्य, निर्विकार, असंग, कूटस्थ, अक्षय, अक्षत, निश्चल, एक और निर्विशेष है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार सहित समस्त कर्मेन्द्रिययुक्त इस स्थूल भूत पर्यन्त जितने भी प्रपंच हैं उसका आत्मा से जो भी सम्बंध है, वह आरोपित है अर्थात् सच्चे अर्थों में कुछ भी सम्बंध नहीं है। जीव अज्ञान के कारण हीं देह और इन्द्रियादि से अपना तादात्म्य स्वीकार कर अपने को अंधा-बहरा, मूर्ख-विद्वान, सुखी-दुःखी तथा कर्ता-भोक्ता मानता है। इस प्रकार बुद्धि का आत्मा के साथ हो रहे इस तादात्म्य को हीं आचार्य ने 'अध्यास' शब्द से निर्दिष्ट किया है। आचार्य के अनुसार सम्पूर्ण प्रपंच जो ज्ञानाभाव के चलते सत्य प्रतीत होता है इसका कारण यह अध्यास या माया ही है;इसीलिए अद्वैतवाद को अध्यासवाद या मायावाद भी कहते हैं।

ज्ञान और अज्ञान
आचार्य शंकर ने अभेदबोध को हीं ज्ञान कहा। जैसे कोई स्वर्णकार की नाना प्रकार के स्वर्णाभूषणों में उसकी रूचि उन्हें मात्र सुवर्णमय देखने में हो उसी प्रकार ज्ञानसम्पन्न मोक्षकामी के लिये यदि कोई रूचि की वस्तु इस संसार में है तो यह उसका साधनअर्जित ज्ञान है जिसके बदौलत वह इस अनेकविधभेदसंकुलित संसार में केवल शुद्ध परब्रह्म का हीं दर्शन करता है। उससे भिन्न कहीं कोई वस्तु है ही नहीं। भेद में सत्यत्वबुद्धि हीं अज्ञान है।
भक्ति
 शंकराचार्य ज्ञानोत्पत्ति के लिए भक्ति को हीं एक प्रधान साधन मानते हैं। यह प्रचलित धारणा के भले विपरीत लगे किन्तु आचार्य भक्ति को ज्ञान का अमोघ साधन मानते थे। उन्होंने ज्ञानान्वेषण में, जैसी कि प्रचलित धारणा है, कहीं से भी सगुणोपासना की उपेक्षा नहीं की है।
प्रबोधसुधाकर में तो उन्होंने यहां तक लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की भक्ति के बिना चित्त शुद्ध हो ही नहीं सकता। आचार्य शंकर के द्वारा रचित शिव, विष्णु, एवं शक्ति के निमित्त अनेक भक्तिस्त्रोत मिलते हैं जिसे सगुणोपासक श्रद्धा-विश्वास के साथ भजते हैं।
शेष तो अशेष एवं अपरिमेय हीं है।
राजीव रंजन प्रभाकर,
08.04.2019.

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