आत्मकल्याण का एक कल्पित दृश्य.
मेरी तरह यदि आप भी ग्रामीण परिवेश से आते होंगे तो आपने भी कम से कम अतीत में जरूर देखा होगा कि जब कोई पिता कच्चे फूस या खपरैल वाले घर से बाहर निकलने को चलता था तो कैसे नंगे-अधखुले बदन कोई तीन-चार वर्ष का उसका बेटा कच्ची मिट्टी वाले आंगन में दौड़ता हुआ आकर अपने पिता के पैरों से लिपट जाता था. वह नन्हा सा बालक भी अपने पिता के साथ चलने की जिद पर अड़ा रहता. पैरों से लिपटा-रोता वह धूल-धूसरित बालक जब अपने बाप के पैरों से लिपट जाता था तो बाप के लिए एक कदम आगे चलना भी एक तरह से मुश्किल हो जाता था.
किंतु उसके पिता की भी कुछ अपनी मजबूरियां होती थी जो उसे अपने बच्चे को साथ ले जाने से असमर्थ बनाती थी. इसमें उसका दूर-देश मोरंग में नौकरी करना भी शामिल होता था जो उसे अपने बाल बच्चे और परिवार से दूर रह उसी परिवार और बच्चे के लिए किसी सेठ के यहां मुंशी की नौकरी कर दो-चार सौ रुपए बजरिए मनीआर्डर भेज पाने में समर्थ बनाता था.
खैर,वो अलग प्रकरण है. यहां हम बात उस नन्हें से बालक की कर रहे हैं जो पिता के पैरों से लिपट साथ जाने के लिए रोए जा रहा है.
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फिर क्या होता था? उसका पिता प्यार से उसे अपने गोद में उठा लेता था और बालक के शरीर पर लगे धूल-मिट्टी को अपने हाथों से साफ कर उसे खूब दुलारता-पुचकारता.
फिर कहता- मैं तुम्हारे लिए ये लेता आऊंगा-वो लेता आऊंगा; वगैरह-वगैरह और फिर वह उस बच्चे को उसकी वात्सल्यमयी मां के गोद में सौंप चलने का प्रयत्न करता था.
उस दृश्य की कल्पना करने पर आज भी मन रोमांचित हो जाता है.
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यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं तो आज उसी दृश्य की मन ही मन अपने लिए कल्पना करें एवं स्वयं को अपने परमपिता श्रीभगवान का अबोध बालक समझते हुए उनका पैर कस कर पकड़ लें ताकि वे प्रेमवश स्वयं को आपसे छुड़ा हीं न सकें.भगवान स्वयं अपने चिन्मय हाथों से आपके शरीर पर लगे अज्ञानताजन्य कीचड़ और राग द्वेष रूपी धूल-मिट्टी को साफ कर देंगे.
यदि ऐसा हम सभी कर सकें तो आगे कल्याण हीं कल्याण है. भगवान से कामनाशून्य प्रेम करने से उनकी भी वही गति हो जाती है जो दशा चाय में डूबे हुए बिस्कुट की होती है.
शेष उनकी कृपा.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२०.०२.२०२२.
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