सरस्वती पूजा की यादें.
बात पुरानी है जब मैं एक सरकारी विद्यालय में पढ़नेवाला एक छात्र हुआ करता था. ऐसे सरकारी विद्यालय में वर्ष में दो बार हीं परीक्षाएं होती थीं; एक अर्धवार्षिक दूसरी वार्षिक परीक्षा कहलाती थी. अर्ध-वार्षिक का उतना महत्व तो नहीं किंतु वार्षिक-परीक्षा जिसमें पास करना अगली कक्षा में जाने के लिए आवश्यक होता था,का महत्व स्वाभाविक रूप से ज्यादा था.
आजकल के मोडर्न जमाने की परीक्षा के तामझाम से बिलकुल अलग तब ये परीक्षा मार्च-अप्रैल में आयोजित न होकर दिसंबर में हीं हो जाती थी और उसका रिजल्ट भी प्रायः दिसंबर के अंत तक या अधिक से अधिक जनवरी के पहले हफ्ते के भीतर हीं सुना दिया जाता था और उसके बाद नयी कक्षा में किताबें ले जाने हेतु लड़के अपने-अपने गार्जियन को किताब खरीदने के लिए तगादा करना शुरू कर देते थे.
हां! मैं उस कटेगरी के लड़के की बात कर रहा हूं जिसका परिवार प्रबल अर्थाभाव के चलते परीक्षा फीस से लेकर किताबें आदि खरीदने तक में कमोवेश परेशानी महसूस करता था किन्तु अपने बच्चों को पढ़ाना भी उतना हीं आवश्यक समझता था. यह तब और कठिन हो जाता था जब भाई-बहनों की संख्या अधिक होती थी और सभी के सभी दो-एक क्लास के अन्तर से हाई स्कूल से लेकर कालेज तक में नामांकित हों.
इसी का परिणाम था कि हम सभी भाई-बहन कोई भी फीस,भले ही वह आज के लिहाज से काफी कम मालूम पड़े, प्रायः उस दिन हीं जमा कर पाते थे जब इसके जमा करने की वह अंतिम तिथि होती थी या कई मौके पर वह बीत चुकी होती थी. उस चलते लेट-फाईन को छुड़वाने का टेंशन अलग रहता था. और जहां तक नये क्लास की किताब- कांपी खरीदने का प्रश्न था वह प्रक्रिया और भी विलम्बित होती थी.
किंतु मेरी मां बहुत तेज दिमाग की महिला थी. पढ़ी-लिखी तो बहुत ज्यादा नहीं थी कि किंतु अपने बच्चों को कैसे हैंडिल किया जाय, बखूबी जानती थी.
वह हम सभी भाई-बहनों को कहती थी- " अखन किताब किन (खरीद) के कि करबही? सिरपंचमी (श्रीपंचमी) सरस्वती पूजा से पहले कोई नहीं पढ़ता है. वसंत पंचमी के दिन से हीं पढ़ाई करना चाहिए जिससे विद्या की देवी सरस्वती प्रसन्न होती हैं."
हमलोग तब इस बात को सुनकर प्रसन्न हो जाते थे कि जब गार्जियन हीं ये कह रहे हों कि पढ़ाई सरस्वती पूजा से करो तो फालतू में जनवरी में पढ़ाई का बखेड़ा क्यों मोल लें; चलकर पतंग हीं उड़ाया जाय.
लेकिन हम लोगों में से कई भाई-बहन यह शायद नहीं जानते थे कि मां की यह एक सोची-समझी युक्ति होती थी ताकि पिताजी तब तक हम भाई-बहनों के पुस्तकीय आवश्यकता को पूरा करने में होने वाली आर्थिक परेशानी को धीरे-धीरे चुपचाप हल कर सकें.
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मेरी मां भले हीं युक्ति से काम ले रही हों किन्तु शास्त्रों के लिहाज से वह ग़लत भी नहीं थी. किसी शुभ कार्य का आरम्भ पंचमी की तिथि को करना अत्यंत शुभ माना गया है. विद्यारंभ के लिए तो विशेष रूप से.
ऐसी मान्यता है कि वसंत पंचमी के दिन हीं वन में सीता अन्वेषण के क्रम में भगवान श्रीराम और लक्ष्मण माता शबरी से मिले थे और उन्होंने उनकी हाथों से बेर खाया. मुझे ऐसा अनुमान होता है कि सरस्वती पूजा में प्रसाद के रूप में प्रयुक्त बेर कदाचित इस प्रकरण से जुड़ा हो; निश्चय से नहीं कह सकता.
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और फिर सरस्वती पूजा का दिन भी आ ही जाता था. तब तक जितनी आधी-अधूरी किताबें उपरोक्त विधि से खरीदी जा सकती थीं, उसमें हीं बहुत प्रसन्नता से जिल्द लगाया जाता था. नई किताबों में जिल्द लगाने का आनंद शब्दों में बयां करना आज भी संभव नहीं है.फिर उसे सरस्वतीजी के फूल-माला और अन्यान्य घरेलू सजावट से सजे सरस्वतीजी के फोटो के सामने रख भूना-आटा चीनी,बेर,शकरकंद आदि में किंचित बुंदिया मिला कर तैयार प्रसाद सामग्री के साथ हम सभी बिना अर्थ जाने संस्कृत के दो-चार श्लोक पढ़ कर पूजा कर घर से बाहर निकल पड़ते थे.
फिर शुरू होता था दोस्तों के साथ शहर के मूर्ति दर्शन के नाम पर पूरे दिन दोस्तों के साथ बतौर मटरगश्ती जहां-तहां घूमना,गप्पें हांकना और कहीं-कहीं मिट्टी वाले तश्तरी में भरे बूंदिया वाला प्रसाद मिल जाने पर अपने-आप को भीआईपी समझना और शाम होते हीं घर आकर मां-पिताजी से नजरें बचाने की कोशिश और खा कर चुपचाप सो जाना.
तब की बात और थी अब तो न मां रही न हीं पिताजी और तब जमाना भी तो कुछ और था.
काश!
राजीव रंजन प्रभाकर
०५.०२.२०२२.
(वसंत पंचमी)
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