रानी मंदोदरी (Queen Mandodari)
राक्षसेन्द्र रावण की पत्नी मंदोदरी के बारे में रामचरितमानस को पढ़ने पर जितना कुछ जान सका हूँ, वह अत्यंत प्रभावित करने वाला है. मै अब तक जितने भी धार्मिक ग्रंथों को पढ़ सका हूँ, मुझे ऐसे बहुत कम उदाहरण मिले हैं जहाँ पत्नी अपने पति को कोई गलत कदम उठाने से मना करती हो-वह भी बार-बार. पत्नी द्वारा अपने पति को किसी गलत कार्य करने से रोकने टोकने सम्बंधी दृष्टांत धार्मिक ग्रंथों में कम हीं दिखते हैं.
यों तो सुग्रीव की पत्नी तारा ने भी अपने पति को बालि से युद्ध को रोका था किंतु मंदोदरी की तुलना तारा से नहीं हो सकती यद्यपि दोनों हीं पंचकन्यायें कहलाती हैं.
मंदोदरी को जब भी ऐसा अवसर प्राप्त हुआ,उसने रावण से हमेशा ये विनती की कि "नाथ! श्रीराम को साधारण मनुष्य समझने की भूल न कीजिये. उनसे वैर मोल न लीजिये. उनकी पत्नी को आदरसहित विदा कर दीजिए.इसी में आपका और सम्पूर्ण निसिचर कुल की भलाई है.श्रीरामचन्द्रजी विश्वरुप जगदीश्वर हैं जो नर रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं.मेरी बात मानिये स्वामी!."
हतभाग्य रावण यदि जरा भी अपनी पत्नी की सलाह पर कान देता तो उसकी ये दुर्दशा न होती.
प्रायः पुरुष अपनी पत्नी से स्नेह तो करता है किंतु उसकी सलाह या सुझाव उसे फिजूल मालूम पड़ती है. पुरूष यदि बलशाली हो,ऐश्वर्यसम्पन्न हो और स्वयं को ज्ञानी भी समझता हो तो उसे अपने पुरुषत्व पर और भी घमंड हो जाता है. फिर वह पत्नी को गृहशोभा मात्र समझ बैठता है. वह अहंकारवश अपनी पत्नी के सही एवं समयानुकूल सुझाव की भी अनसुनी कर देता है. कभी-कभी तो उसकी तिरस्कारपूर्ण उपेक्षा भी कर देता है क्योंकि वह यह मान लेता है कि नारी स्वभाविक रुप से "fair" तो हो सकती है किंतु पुरूष से "wiser" नहीं. यह पितृसत्तात्मक समाज की अद्वितीय विशेषता है. अस्तु.
राक्षसेन्द्र रावण की पाटमहिषी महारानी मंदोदरी की स्थिति भी यही थी. मयतनया मंदोदरी रूप, गुण, शील, बुद्धि एवं विवेक से सम्पन्न थी. अपने पति रावण का उसने हमेशा कल्याण हीं चाहा. किंतु अहंकारी रावण ने कभी उसके प्रेमपूर्ण किंतु विवेक युक्त वचनों को आदर नही दिया. और अपनी ही चलाता रहा. मदांध को अपने सिवा कुछ भी और कोई भी नहीं सूझता.
(कहा जाता है कि राक्षसेन्द्र रावण के पदचाप से धरती डोलती थी;उसकी गर्जना से सुररवनियों के गर्भ का पतन हो जाता था. सदैव हाथ जोड़कर खड़े दिक्पाल उसके कृपा प्रसाद हेतु उसकी ओर ताकते रहते थे. उसकी गदा और चंद्रहास तलवार को देखते ही सभी देवता, ऋषि, मुनि, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर प्राण रक्षा के लिए आतुर होकर गिरि-कंदरा की ओट ले लेते थे.
लंकेश ने एकबार बिना किसी विशेष प्रयास के हीं कुबेर को जीतकर उनका पुष्पक विमान हथिया लिया. उसके लिए कुछ भी कठिन या असाध्य नहीं था.ऐसा था रावण का बल और पौरुष.
कहने का तात्पर्य रावण अजेय था. आशुतोष शिव एवं जगत पितामह ब्रह्मा को अपने कठिन तप से प्रसन्न कर उसने चित्र-विचित्र वरदान प्राप्त कर लिया था.
ऐसा व्यक्ति भला किसी और को अपने सामने क्यों गिने! चाहे उसके सम्मुख श्रीराम के रुप में साक्षात हरि हीं क्यों न हों!
यही उसके अहंकार का हेतु था. और अहंकार नाश का हेतु होता है यह व्यक्ति को तब तक समझ में नहीं आता है जब तक वह इस अहंज्वर से पीड़ित रहता है. )
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गोस्वामी तुलसीदासजी की रचना "रामचरितमानस" में चार स्थलों पर ऐसे प्रसंग आये हैं जब मंदोदरी ने अपने पति रावण से विनती कर रावण को समझाने का प्रयत्न किया;परन्तु हठी रावण के समक्ष सब व्यर्थ.
रावण मंदोदरी के मध्य हुई उन्हीं प्रसंगों का मैंने वार्तालापरूपी गद्यात्मक वर्णन करने की चेष्टा की है. वर्णन दोष और अन्य स्वाभाविक त्रुटि को सुधी पाठक क्षमा कर देंगे.
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जब "दशरथनंदन श्रीराम" की रचना कर रहे थे तो उन्होंने एक जगह कहा है कि किसी महाकाव्य अथवा महान काव्य रचना का गद्यात्मक विश्लेषण अत्यंत खतरनाक होता है. चूंकि किसी काव्य का प्राण उसके भीतर होता है,जैसे ही उसका रुपांतरण होता है वह एक प्राणहीन प्रस्तुति भर रह जाती है. गद्य में वह प्राणप्रतिष्ठा की कल्पना आकाश कुसुम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं.
किंतु फिर भी मेरी ऐसी चेष्टा के पीछे कोई अन्य भाव न होकर माता सीता का आशीर्वाद प्राप्त करना ही है.आशा है मारुतिनंदन मेरे इस कार्य में सहायता करेंगे.
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प्रसंग-१ सुंदर काण्ड में वर्णित यह प्रसंग उस समय का है जब दुखी-दीन सीताजी अशोक वाटिका में वृक्ष के नीचे बैठी भगवान श्रीराम का स्मरण रही हैं.उनके बंद नेत्रों से अविरल आंसू बहे जा रहे हैं. तरु पल्लवों में छिपे हनुमान यह देख अत्यंत दुखी हो रहे हैं तभी महाभिमानी-महाबलशाली रावण मंदोदरी सहित सभी रानियों के साथ पूरे बनाव-साज-श्रृंगार किये अशोक वाटिका में आ धमकता है.
और सीताजी को सम्बोधित कर कहता है- सुमुखी! जरा एक बार मेरी ओर तूं प्रेम से देख तो सही. सिर्फ इतने से ही मैं अपनी पटरानी मंदोदरी सहित समस्त रानियों को तेरी दासी बना के रख दूंगा.
रावण के ये प्रणय वचन सुन सीताजी कहती हैं- रे खल! तुझ जैसे अधम और निर्लज्ज को क्या कहें जो मुझे सूने में यहाँ हर लाया. लगता है तुझे रघुवीर के बाणों की परवाह नहीं है. क्या जुगनू के प्रकाश से कहीं कमलिनी को तूने खिलते देखा है?मूर्ख रावण! या तो प्रभु की श्याम कमलमाला और हाथी के सूंढ़ जैसी पुष्ट भुजाएँ मेरे कण्ठ में पड़ेगी या फिर तेरा ये चंद्रहास तलवार.
सीताजी रावण की चंद्रहास तलवार को सम्बोधित कर आर्त होकर कहती हैं- हे चंद्रहास!तूं देखता क्या है ? मेरे शरीर को गरदन से अलग कर तूं मेरा कष्ट हर ले. इस खल की बात सुन कर मुझे अत्यधिक पीड़ा हो रही है जो अब असहनीय है.
रावण अपनी तुलना खद्योत से किये जाने पर रावण मन हीं मन बहुत कुपित हो चुका था.इतना सुनना था कि रावण आग बबूला होकर अपनी तलवार खींच कर सीताजी तरफ यह कहते हुए बढ़ा-तेरी इतनी हिम्मत कि तूं मेरे हीं गढ़ में आकर मेरा अपमान करे! ठहर!
सीताजी पर क्रोधमूर्छित हमलावर रावण का हाथ मंदोदरी ने पकड़ लिया.
यह है मंदोदरी का चरित्र जिसके सामने हीं रावण उसे दासी बनाने की बात अभी-अभी कह रहा था.
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प्रसंग २- सुंदरकांड में वर्णित यह प्रसंग उस समय का है जब हनुमान लंका दहन कर वापस लौट चुके थे और समस्त लंका नगरी सशंकित थी. सारे नगरवासी श्री राम और उनके दूत की वीरता के बारे में तरह-तरह की दबी जुबान में चर्चा कर मन ही मन भयभीत हो रहे थे कि अब राक्षसों पर भारी संकट आने ही वाला है.
दूतियों से नगरवासियों के इन वचनों को सुन मंदोदरी बहुत व्याकुल हो गई.
( संध्या में जब रावण राजप्रासाद आता है)
मंदोदरी एकांत में रावण के चरणों में गिर कर विनयपूर्वक कहती है- हे प्रियतम! मेरी बात को सुनिये. जिनके दूत की ये करनी है वह स्वयं यदि आ जायेंगे तो फिर क्या होगा? आपके आंखों के सामने हीं उस दूत ने अपनी इस स्वर्ण पुरी लंका को जला डाला आप कुछ भी न कर सके. यही नहीं हमारे पुत्र अक्षय कुमार को उसने बात की बात में वध कर डाला और आप कुछ भी कर पाए क्या? नाथ! श्रीराम को आप सामान्य मनुष्य मानने की बड़ी भयंकर भूल कर रहे हैं. वे साक्षात हरि हैं, उनसे वैर मोल लेना ठीक नहीं है.जरा सोचिए उनके एक दूत के करनी को देख सभी राक्षस रवनियों के गर्भ भय से गिर गये हैं जब वे अपने वानर सेना सहित या आ धमकेंगें तो राक्षस कुल का तो नाश ही समझिये नाथ! हे स्वामी! यदि आप अपना और सम्पूर्ण राक्षस कुल का भला चाहते हैं तो भलाई इसी में है कि आप अपने किसी मंत्री के साथ उनकी पत्नी को ससम्मान विदा कर दीजिए. विशेष हम क्या कहें यही समझ लीजिये कि रामजी के बाण सर्पों के समूह हैं जो राक्षसरूपी मेढ़क को ग्रस लेने हेतु आतुर हैं. कल्याण इसी में है कि समय रहते प्राणरक्षा का उपाय कर लिया जाय.आप स्वयं ज्ञानी हैं, अहंकार का आश्रय त्याग स्वामी अपने ज्ञान चक्षु खोलिए.
मंदोदरी के इन हितकर वचनों को सुन महाभिमानी रावण खूब जोर से देर तक हंसता रहा और फिर उसने प्यार से अपनी प्रिय पत्नी को थपथपाते हुए कहा-
भीरू! तुम्हारा ह्रदय तो बहुत ही कच्चा है. रावण की पत्नी के मुख से ऐसी भीरुतापूर्ण बातें! बड़ी गम्भीर समस्या है! तुम्हें तो मंगल में भी अमंगल दीखता है. मुझे तो समझ में नहीं आ रहा कि तुम इतनी भयभीत क्यों हो? अरे भाई! ये बानर भालू तो इन निसिचरों का आहार है; आहार! ये भी तुझे बताना पड़ेगा! उनके आने से इन बेचारे राक्षसों की बुभुक्षा शांत होगी तो तुम्हें क्या दिक्कत है? सच में ज्ञानी लोग जो कहते हैं कि स्त्रियाँ स्वभाव से हीं डरपोक होती है,वह यथार्थ ही है.
इतना कह रावण ने मंदोदरी को स्नेहपूर्वक ह्रदय से लगा लिया.फिर रावण अपने दोनों भुजाओं को 45 डिग्री के कोण पर फैलाता तेजी से राजसभा की ओर चल पड़ा.
मंदोदरी समझ गयी विधि का विधान कुछ और हीं है.
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प्रसंग -३ यह प्रसंग लंका काण्ड का है. समुद्रोल्लंघन के पश्चात प्रभु ने सेन सहित सुबेल पर्वत पर डेरा डाला. भगवान अपने धनुष की प्रत्यंचा को लेटे हुए हीं सुधार रहे हैं;अंगद और हनुमान प्रभु के चरणों को दबा रहे हैं. प्रभु के समीप हीं बैठे विभीषण भगवान से युद्ध सम्बंधी मंत्रणा कर रहे हैं कि आगे क्या कुछ किया जाना है. प्रभु तन्मयतापूर्वक उनकी बातों को सुन रहे हैं. पास हीं लक्षमण धनुष-बाण सहित वीरासन लगाए हुए हैं.
तभी दक्षिण में घनघोर घटा छा जाती है, बिजली चमकने जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है.
प्रभु कहते हैं- विभीषण! जरा दक्षिण दिशा की ओर तो देखो. बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है. भयानक बादल मीठे-मीठे स्वर से गरज रहा है कहीं कठोर ओले की वर्षा न हो!
विभीषण बोले- हे कृपालु! कोई बादल और बिजली नहीं है,न हीं कहीं वर्षा हो रही है. लंका के शिखर पर एक महल है जहाँ रावण मेघडंबर पहन वहाँ अखाड़ा देख रहा है. उसी मेघडंबर से भारी घटा जैसा मालूम दे रहा है. और समय-समय पर बिजली चमकने जैसा जो प्रतीत हो रहा है वह मंदोदरी के कानों में झूलते ताटंक(कर्णफूल) के रात्रि में चमकने से बिजली चमकने जैसा दृश्य उपस्थित हो रहा है. जो गर्जन ध्वनि सुनाई दे रही है वह और कुछ नहीं बल्कि वहाँ बज रहे ढ़ोल और नगाड़े की आवाज है.
प्रभु मुसकुराये. उन्होंने रावण के अभिमान का मर्दन करना चाहा. एक अदृश्य बाण चला और एक ही बार में रावण के छत्र, मुकुट और मंदोदरी के ताटंक भूमि पर गिर के लुढ़क पड़े.
रसभंग होता देख रावण ने बात बनाई- अरे इसमें सोचने की क्या बात है. मुकुट का गिरना तो शुभ ही है;विशेष कर उसके लिए जिसने अपना मस्तक कई बार काट शिव को अर्पित कर उसे प्रसन्न कर लिया हो. जाओ अपने-अपने घर जाकर अब विश्राम करो.
किंतु मंदोदरी को ये बात खटक गयी. वह सोचने लगी कि न तो भूकंप हुआ न हीं कोई जोर की हवा चली.न कोई अस्त्र-शस्त्र ही कहीं देखने को मिले. बहुत भारी अपशकुन से मंदोदरी मन ही मन अत्यंत भयभीत हो गयी.
घर पहुँच मंदोदरी रावण के पैरों पर गिर पड़ी. नेत्रों में जल भरकर वह दोनों हाथों को जोड़कर कहने लगी- प्राणनाथ! श्रीराम से विरोध छोड़ दीजिये.उन्हें मनुष्य जानकर हठ न पकड़े रहिये. रघुकुलशिरोमणि श्रीरामचंद्रजी विश्वरूप हैं.यह सारा विश्व सम्पूर्ण चराचर जगत उन्हीं का रूप है. पाताल उनका चरण है, ब्रह्म लोक उनका सिर है, सूर्य नेत्र है, बादलों का समूह बाल है, वायु श्वास है, वेद उनकी वाणी है.
विशेष कहां तक कहें. माया उनकी हंसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं, अग्नि मुख है. समुद्र उनका पेट है. इस प्रकार प्रभु विश्वास हैं, अधिक कल्पना क्या की जाय? उन्हीं चराचररूप भगवान श्रीरामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है.
पत्नी के ये वचन सुन रावण खूब हंसा और बोला-अहो! अज्ञान की महिमा बड़ी बलवान है! प्रिय! तूने शत्रु का जो विराट रुप का वर्णन कर मुझमें भय उत्पन्न करने की चेष्टा की,वह प्रयत्न तुम्हारा व्यर्थ है.
प्राणेश्वरी! तुम भी हद करती हो. महारानी! वह सब चराचर विश्व तो स्वभाव से ही मेरे वश में है. समझ गया!समझ गया! मैं तेरी चतुराई जान गया. तूं इसी बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है. यही बात है न!
मनोविनोद की बातें करते-करते सवेरा हो गया और रावण सभा में जाकर फूलकर सिंहासन पर जा बैठा जहाँ सभासद उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे. बानरी सेना का लंका में पदार्पण जो हो चुका था.
मंदोदरी समझ गयी कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है.
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प्रसंग-४ लंकाकाण्ड में ही यह प्रसंग आता है.
अंगद रावण की राजसभा में दूत बनकर आया. रावण के महल में आने के पहले ही रास्ते में रावण के एक पुत्र से बात बढ़ने पर वही उसने अपने वज्रसदृश मुष्टि प्रहार से उसका वध कर दिया. महल पहुंच देखते हीं देखते दसकंधर सहित सभी सभासदों से अनायास हीं अपना पैर पकड़वा कर सभी का मान मर्दन कर लौट गया.भरी राजसभा श्रीहीन हो चुकी थी.
श्रीहत् रावण जब शाम में महल में गया तो मंदोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा- हे कंत! मन में समझ कर कुबुद्धि का त्याग करिये.आपसे और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नही देता. उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लांघ सके, ऐसा तो आपका पुरूषत्व है. आप उन्हें संग्राम में जीत पायेंगे क्या? जिनके दूतों का ऐसा काम है! उनके दूतों द्वारा युद्ध के पहले ही आपके दो-दो पुत्र मारे गये.आप किस मोह में हैं? उस समय आपका बल कहाँ चला गया था?
हे स्वामी! अब व्यर्थ गाल नहीं बजाइये. जनक की सभा में तो आप भी गये थे. क्यों नहीं आपके लिए धनुष को छूना भी सम्भव हो सका? वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर जब रामजी ने जानकी को ब्याहा तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? शूर्पणखा की दशा तो आपने देख हीं ली.आपने क्या कर लिया? जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बंधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन करूणामय भगवान ने आपही के हित के लिए दूत भेजा जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला हाथियों के झुंड में आकर सिंह.
हे प्रियतम! कालवश आपको अपनी स्थिति का आभास नहीं हो रहा है.अब भी चेतिये.काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता.वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है. हे स्वामी! जिसका काल निकट आ जाता है, उसे आपही की तरह भ्रम हो जाता है. नाथ! बुद्धि को अपना सारथी बनाइये और मेरे सुहाग की रक्षा कीजिये.
अंगद ने पहले ही उसका पर्याप्त मानमर्दन भरी सभा में कर दिया था;सो इस बार रावण हंसा नहीं बल्कि स्त्री के बाण के समान उन वचनों को सुनकर मन हीं मन कुपित था.
सवेरा होने पर फिर अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा.कल अंगद के हाथों अपनी बेइज्जती को वह भूल चुका था और सारा भय भी.
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काल की गति बहुत ही वक्र है.रावण किसी की नहीं सुन रहा था.अपने विवेकसम्पन्न जीवनसंगिनी की भी नहीं.
किंतु हतभाग्य रावण एक मामले में अवश्य भाग्यशाली था. उसे मंदोदरी जैसी पत्नी मिली थी.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२३.०७.२०२१.
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