खुदकफील बनिए.

सभी ममालिक अपने मफाद को मरकज़ में रखकर हीं किसी पॉलिसी को अख्तियार करते हैं. लेकिन इसे खुदगर्जी की हद कहना हीं मुनासिब होगा जब दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क किसी दूसरे मुल्क में फैले दहशतगर्दों का सफाया करने का न केवल बीड़ा उठाये बल्कि दहशतगर्दी से मोतासिर उस मुल्क को रिबिल्ड (rebuild) करने का भरोसा भी दिलाये; गोया अपना मकसद पूरा होने पर यकायक अपनी फौज को बुला ले और नतीजतन वहाँ की अवाम को उन दहशतगर्दों के हाथ का एक बार फिर खिलौना बनने को मजबूर होना पड़े.
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        जी हाँ, मैं अमरीका की बात कर रहा हूँ.9/11 मंजर के बाद तिलमिलाया अमरीका आज से तकरीबन बीस साल पहले इस अज्म के साथ कि उसे ओसामा जिन्दा या मुर्दा चाहिए हीं चाहिए,अफगानिस्तान में दाखिल हुआ. दुनिया को उसने ये भी भरोसा दिलाया था कि वो अफगानिस्तान में दहशतगर्दी का सफाया तो करेगा ही साथ में अफगानिस्तान की तरक्की के लिए वह हर एक वाजिब एकदामात करेगा जो मुल्क को तालिबानी कदामतपसंदी वो अमल से निजात दिलाकर जम्हूरियत की राह को हमवार वो मजीद मुस्तहकम करेगा.
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 लेकिन क्या ये हुआ? जी नहीं बिलकुल नहीं. सिवा इसके कि ओसामा मारा गया. और वह तो 2011 में ही मारा गया.
 बाकी चीजें दरहम-बरहम हैं. अमरीकी फौज अफगानिस्तान से लगभग मुन्तकिल हो चुकी हैं. जो बची हैं वो भी 31 अगस्त तक चली जायेंगी.
 यदि अखबारात पर यकीन करें तो तकरीबन 85 फीसद हिस्सा अब तालिबान के कब्जे में है. लोग अपनी बहू- बेटियां को उन तालिबानी लड़ाकों के हाथ सौंपने के लिए मजबूर हैं .आज फिर से लड़कियां वहाँ स्कूल नहीं जा सकेंगी. आज फिर से औरत के लिए बिना मर्द को साथ लिए बाजार जाना मना हो गया है. 
              और काबुल की कमजोर जम्हूरी हुकूमत ये सब होते देखने को बेबस है. शायद उसने ये मान लिया था कि अमरीकी फौज की सरपरस्ती उसके मकामी फौज को हमेशा हासिल रहेगा.
         लब्बेलुआब ये है कि अफगानिस्तान एकबार फिर से मध्यकालीन व्यवस्था के मुहाने पर आ पहुंचा है.
 क्या इसी के लिए अमरीका ने २००१ में यहाँ कदम रखा था? 
                एक बात ये भी कि जिस ओसामा को पकड़ने/मारने के लिए वह अफगानिस्तान में दाखिल हुआ वह उसे मिला कहाँ तो पाकिस्तान में. पाकिस्तान में वह क्यों मिला, कैसे मिला;इस पर तफसीरा करना इस मकाले का मौजू नहीं है. जो जहीन हैं वो ये जानते हैं कि पाकिस्तान भले हीं दबाव या रूआब में अमरीका का साथ दे रहा हो लेकिन दिल से उसने कभी नहीं ये चाहा कि तालिबानी ताकत अफगानिस्तान में कमजोर पड़ जाये.
दहशतगर्दी उसके खारिजा पालिसी का पोशीदा/ अनडिस्क्लोज्ड/अनडिक्लियर्ड हिस्सा( concealed,undisclosed & undeclared part) है.
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जरा सोचिएगा! हमें बेरूनी मुल्क के ताकत के बिना पर कितना,कब तक और किस हद तक भरोसा करना चाहिए.
 इसीलिए आत्मनिर्भर बनिए.
अपना फायदा- नुकसान को बरतरफ कर शायद ही कोई मुल्क कोई कदम उठाता है. और अमरीका अपवाद नहीं है.
आज उसी अमरीका को अफगानिस्तान में अब और रहना फायदेमंद नहीं लग रहा है तो बाकी मुल्क उसे कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं करते कि भाई! अफगानिस्तान को किसके भरोसे आप छोड़े जा रहे हो.
                   ऐसे हालात में भारत को क्या करना चाहिए; इस पर भी संजीदगी से गौर करना होगा. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि 1999 में इंडियन एयरलाइंस के तैयारे को अगवा कर कंधार में ही रखा गया था जब वहाँ तालिबान की ताकत उरूज पे थी.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१८.०७.२०२१.

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