मुनि वाल्मीकि की प्रेरणा और श्रीराम का चित्रकूट वास.
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भगवान श्रीराम सब कुछ जानते थे तथापि मनुष्योचित व्यवहार के साथ उन्हें वह सब करना था जिसके लिए वे इस धरा-धाम पर पधारे थे. इसीलिए तो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है. वनगमन मात्र एक माध्यम था;इस यात्रा का उद्देश्य विप्र,धेनुरूपाधरित्री,सुखार्थी सुरसमूह एवं तपश्चर्या में लीन मुनिसमाज से छिपा नहीं था. इसी की प्रतीक्षा में सभी थे भी.
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अयोध्याकाण्ड का एक प्रसंग लेते हैं.
सानुज लक्ष्मण एवं सीताजी सहित भगवान का वनगमन हेतु अयोध्या से प्रस्थान हो चुका था. इस क्रम में प्रभु तीर्थराज प्रयाग आये.वहां उन्होंने भरद्वाज मुनि के दर्शन किये. तदोपरांत यथोचित सम्मान एवं आदर के साथ मुनि ने उन्हें आगे की यात्रा के लिए विदा किया. मार्गदर्शन हेतु मुनि श्रेष्ठ ने अपने कई शिष्यों को साथ लगा दिया.
प्रभु की लीला देखिए. जो अखिल ब्रह्माण्ड के मार्गदर्शक हैं,उनका मार्गदर्शन मुनिशिष्य वेदपाठी बटुकगण कर रहे थे. अस्तु.
उनके पीछे कुछ दूर चलने के बाद भगवान ने उन्हें आदर के साथ एवं कृतज्ञतापूर्वक वापस भरद्वाजजी के पास भेज दिया. वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे.
मार्गशून्य प्रान्तर प्रदेश में यह यात्रा जारी थी. भगवान राम आगे चल रहे थे उनके पीछे श्रीसीताजी. अनुज लक्ष्मण उन दोनों के पदचिह्नों को दाहिने से बचाते हुए अनुशरण कर रहे थे. गोस्वामीजी द्वारा इसका वर्णन देखिए-उभय बीच श्री सोहे कैसे-ब्रह्म जीव बीच माया जैसे.
यात्रा के क्लेश और थकान को धीरजपूर्वक सहते सानुज श्रीराम सीताजी के साथ बाल्मीकि मुनि के आश्रम में पहुंचे. ये वही बाल्मीकि मुनि थे जिन्होंने 'राम' नाम का उल्टा जप कर शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर लिया था और कालजयी 'रामायण' की रचना कर आदिकवि कहलाये.
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श्रीराम मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि से पूछते हैं- हे महर्षि! आप सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी हैं. सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे बेर के समान है. मेरा वनगमन जिस हेतु हुआ है वह आपसे छिपा नहीं है. जिद कर ये दोनों भी मेरे साथ हो लिए. अब आप ही बताएं हमलोग कहाँ निवास करें? हे मुनिन्द्र! कोई उपयुक्त निवास स्थान बताकर हमें अब कृतार्थ करें.
भगवान के ये बचन सुन मुनि ने मुग्ध होकर कहना प्रारंभ किया.
(*प्रस्तुत रचना में इसी संवादरुपी सरिता में सन्निहित मोतियों को निकालने का प्रयत्न किया गया है.धन्य हैं गोस्वामीजी की प्रतिभा जिन्होंने वाल्मीकिजी के इस संवाद का चमत्कारिक वर्णन अपनी कालजयी रचना 'रामचरितमानस' में किया है. उसी का गद्यात्मक वर्णन मैंने करने की चेष्टा की है जिसमें भक्त भाव की कमी और ज्ञानी इसमें तत्व की कमी पायें तो कोई आश्चर्य नहीं;बल्कि इसे सर्वथा स्वाभाविक कहना उचित होगा.)
बाल्मीकिजी कहते हैं-
" हे प्रभु! आपने जो हमसे ये पूछा है वह उचित हीं है. आपका यह प्रश्न आपने मुझे बड़ाई देने हेतु हीं किया है.इस जगत के कर्ता, धर्ता, भर्ता, हर्ता का यदि मनुष्यरुप धारण कर इस पृथ्वी पर आगमन हुआ है तो उसका मनुष्योचित व्यवहार पर किसी को अचरज नहीं होना चाहिए. यह ठीक ही है क्योंकि स्वांग के अनुरूप ही करतब भी होना चाहिए.(इस समय आप मनुष्य रूप में हैं तो मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है)
हे राम! आपने मुझसे पूछा मैं कहाँ रहूँ? पहले आप मुझे वह स्थान बता दीजिये जहां आप नहीं है तब मैं आपको वह घर बता सकूंगा जहाँ आप अनुज एवं श्री सहित निवास कर सकते हैं.
(१) हे राम! आप अनुज एवं श्री समेत उनके ह्रदय में निवास कर सकते हैं जिनके श्रवणेन्द्रिय समुद्र के समान हों जहाँ आपकी सुंदर कथारुपी सरिता अनवरत एवं निरंतर समाती जायें किंतु वह श्रवणरुपी समुद्र आपकी कथारुपी सरिता से कभी भरे हीं नहीं.
(२) हे रघुनंदन! आप उनके ह्रदय में सानुज श्री समेत निवास कर सकते हैं जिन्होंने अपने नयनों को आपके दर्शन हेतु पपीहा बना रखा हो.
(३) हे रघुनाथ! आप अपने भाई लक्षमणजी और सीताजी के साथ उनके ह्रदय में निवास कीजिये जिनकी जिह्वा हंसिनी बन कर आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है.
(४) हे श्रीराम! जिनकी नासिका सदैव आपके प्रसाद के सुवास को आदरपूर्वक ग्रहण करने हेतु सदैव साकांक्ष रहे;उनका मन ही आपका गेह हो.
(५) हे रघुराज! जिनके चरण आपके तीर्थों में चल कर जाते हैं तथा जिनके हाथ आपके ही चरणों की पूजा में संलग्न रहते हैं;आप उनके ही ह्रदय को अपना घर समझिये.
(६) हे रामचन्द्रजी! जो आपको अर्पण करके ही अपना भोजन करते हैं और वस्त्राभूषण को आपका प्रसाद समझ ही धारण करते हैं, आप उन्हीं के ह्रदय को अपना निवास बनाइये.
(७) हे सूर्यकुलभूषण! जिन्हें आपको छोड़ किसी दूसरे का भरोसा न हो आप उनके ह्रदय में ही बसिये.
(८) हे दशरथनंदन! जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं तथा जो गुरु को ह्रदय में आपसे भी बड़ा जानकर सर्वभावेन सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं; आप तीनों उन लोगों के मन रुपी मन्दिरों में बसिये.
(९) हे जानकीनाथ! जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है;न लोभ है, न क्षोभ है;न राग है, न द्वेष है;और न कपट, दम्भ और माया ही है-हे रघुनंदन! आप उनके ह्रदय में निवास कीजीये.
(१०) हे कौशल्यानंदन ! जो दूसरों की सम्पत्ति देखकर
हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से
दु:खी होते हैं उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं.
(११) हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं तथा आपको छोड़कर जिनके दूसरी कोई गति (आश्रय) नहीं है;उनके मनरूपी मन्दिर में सीतासहित आप दोनों भाई निवास कीजिये.
जो सबके प्रिय और सबका हित करनेवाले हैं;जिनके लिए दु:ख और सुख, प्रशंसा और निन्दा समान हैं;जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जागते-सोते आपकी ही शरण हैं; हे जानकीजीवन! आप उनके मन मंदिर में बसिये.
मुनि के प्रेमपूर्ण वचन श्रीरामजी बिना कोई उत्तर के सकुचाते हुए सुने जा रहे थे.
फिर मुनि ने कहा-हे नाथ! अब सुनिये;मैं समयानुसार सुखदायक निवास स्थान बतलाता हूँ.आप अत्रिसेवित चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये. वह पर्वत हाथी, सिंह, हिरण नाना प्रकार के पक्षियों का विहार स्थल है.वह स्थान सब प्रकार से सुंदर है.अत्रि मुनि सहित बहुत से मुनि वहां निवास करते हैं. वे आपकी ही प्रतीक्षा में हैं.
वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है.अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया जी उसे अपने तपोबल से लायी थीं. वह गंगाजी की धारा है जो मंदाकिनी नदी कहलाती हैं.
हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम! आप वही चलिए.सबके परिश्रम को सफल कर उन्हें सनाथ कीजिये.
और चित्रकूट पर्वत को भी गौरव प्रदान कीजिये.
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मुनिश्रेष्ठ के प्रेमसिक्त वचन सुन वे तीनों बटोही चित्रकूट की तरफ चल पड़े.
चित्रकूट पहूंच भगवान ने कहा- लक्ष्मण!यह स्थान बहुत ही रमणीक है.यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो.
तदनंतर सब देवता कोल-भील के वेष में आये और उन्होंने पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिये.दो ऐसी सुंदर कुटियां बनायीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता.उनमें से एक बड़ी सुंदर छोटी सी थीं और दूसरी बड़ी थी.
राजीव रंजन प्रभाकर.
०४.०७.२०२१.
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