रामचरितमानस में मानसरोग की व्याख्या
रामचरितमानस की रचना कर गोस्वामीजी ने पीड़ित मानवता का महान उपकार किया है। इस ग्रंथरत्न के उत्तरकांड में वर्णित काकभुशुण्डि-गरूड़ संवाद के रुप में मानसरोग की व्याख्या जो गोस्वामीजी द्वारा किया गया है उसी को समझ कर चिंतन करने के उद्देश्य से इसे संक्षेप में वर्णन करना प्रस्तुत लेखन का अभीष्ट है। अगर इस मानसरोग को तत्वतः समझ लिया जाय तो भोगाकर्षण के ज्वर से पीड़ित-कम्पित व्यक्ति की भोगपरायणता नाश तक को प्राप्त हो सकता है, इसमें संदेह नहीं है। इस महान लाभकारी संवाद में मानसरोग की व्याख्या का विशेष स्थान और महत्व है, खासकर उनके लिए जो इसे समझकर तदनुसार रोगमुक्त होना चाहते हों।
शरीर के तीन विभाग माने गये हैं - स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। किन्तु यदि रोग के संदर्भ में कहा जाय तो इसका अधिष्ठान स्थूल और सूक्ष्म शरीर हीं है। स्थूल शरीर के रोग बहुत हीं आसानी से दिख जाते हैं, समझ में भी आ जाते हैं लेकिन सूक्ष्म शरीर की व्याधि दीखती नहीं है, सहसा उसे पहचान कर उसका विभाग करना गोस्वामीजी के हीं वश की बात थी जिन्होंने मन के अंदर निवास करनेवाले इन रोगों की तुलना स्थूल शरीर में होने वाले रोगों से कर हम जैसे साधारण लोगों के लिए इसे पहचान कर लेने के योग्य बनाया। यहां अंकनीय है कि रोग को पहचानना और उसका उपचार करना दोनों दो बातें हैं।
गोस्वामीजी कहते हैं - मानसरोग अगणित कोटि के हो सकते हैं, और कहना चाहिये कि सभी के जड़ में हमारा मोह ही है जो इन समस्त मानसरोगों के उत्पत्ति का हेतु है। (संक्षेप में यदि कर्तव्य अकर्तव्य प्रतीत हो और अकर्तव्य कर्तव्य तो ऐसा समझना चाहिये कि चित्त मोहग्रस्त है।)
जिस प्रकार वैद्य किसी शारीरिक रोग के उत्पन्न होने का त्रिदोषकारणरुप कफ, पित्त और वायु को बताते हैं, उसी प्रकार गोस्वामीजी ने इन मानसरोगों का सुगमता से बोध कराने हेतु लोभ, क्रोध और काम को मानसरोग के संदर्भ में इसे कफ, पित्त और वात सदृश त्रिदोषकारक बताया है। इन्हीं तीनों भाइयों की आपस में प्रीति होने पर मन मष्तिष्क ऐसा पीड़ित और क्षुब्ध रहता है मानो एकसाथ सन्निपात ज्वर एवं नानाविध कष्टदायक रोग का आक्रमण हो गया हो। गोस्वामीजी ने ममता, ईर्ष्या, विषाद, कुटिलता, अहंकार, (दम्भ, कपट, मद और मान), तृष्णा, डाह और अविवेक को प्रमुखरूप से मानसरोग के रुप में गिनती की है। इन मानसरोगों की तुलना जो उन्होंने शारीरिक रोगों से की है, सटीक तो है ही, अत्यंत रोचकरुप से ज्ञानवर्धक भी है।
तुलना देखिये और गुणिये:
ममता - दाद,
ईर्ष्या - खुजली,
(हर्ष-विषाद) - घेघारोग,
मन की कुटिलता- कोढ़,
अहंकार - गठिया,
(दम्भ, कपट, मद और मान)-नसों के रोग,
तृष्णा- उदररोग(जलोदर)
(मत्सर और अविवेक)- बुखार के प्रकार.
इन रोगों के बारे जान लेने से कुछ क्षण के लिये ये भले क्षीण हो जाते हैं किन्तु इसका समूल नाश बिना राम की कृपा के सम्भव नहीं है, हां, उपचारस्वरूप गोस्वामीजी ने नियम, धर्म, उत्तम आचरण, तप, दान और यज्ञ को औषधि बताया है जिसके आश्रय एवं सेवन से ये रोग कुछ अवधि भर के लिए दब भले जाते हैं किन्तु विषयरुपी कुपथ्य से पुनः अंकुरित होकर फिर से नाना प्रकार से हलचल मचाकर उपद्रव उपस्थित कर देते हैं। गुरूपसत्ति और विषय से परहेज हीं इसमें लाभकारी होता है और अंत में श्रीरामजी इच्छा! यदि चित्त इन उपायों से विषयविमुख होता चला जाय तो समझना चाहिये कि मन रोगमुक्त हो रहा है।
शेष हरिकृपा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
२५.०७.२०१९.
शरीर के तीन विभाग माने गये हैं - स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। किन्तु यदि रोग के संदर्भ में कहा जाय तो इसका अधिष्ठान स्थूल और सूक्ष्म शरीर हीं है। स्थूल शरीर के रोग बहुत हीं आसानी से दिख जाते हैं, समझ में भी आ जाते हैं लेकिन सूक्ष्म शरीर की व्याधि दीखती नहीं है, सहसा उसे पहचान कर उसका विभाग करना गोस्वामीजी के हीं वश की बात थी जिन्होंने मन के अंदर निवास करनेवाले इन रोगों की तुलना स्थूल शरीर में होने वाले रोगों से कर हम जैसे साधारण लोगों के लिए इसे पहचान कर लेने के योग्य बनाया। यहां अंकनीय है कि रोग को पहचानना और उसका उपचार करना दोनों दो बातें हैं।
गोस्वामीजी कहते हैं - मानसरोग अगणित कोटि के हो सकते हैं, और कहना चाहिये कि सभी के जड़ में हमारा मोह ही है जो इन समस्त मानसरोगों के उत्पत्ति का हेतु है। (संक्षेप में यदि कर्तव्य अकर्तव्य प्रतीत हो और अकर्तव्य कर्तव्य तो ऐसा समझना चाहिये कि चित्त मोहग्रस्त है।)
जिस प्रकार वैद्य किसी शारीरिक रोग के उत्पन्न होने का त्रिदोषकारणरुप कफ, पित्त और वायु को बताते हैं, उसी प्रकार गोस्वामीजी ने इन मानसरोगों का सुगमता से बोध कराने हेतु लोभ, क्रोध और काम को मानसरोग के संदर्भ में इसे कफ, पित्त और वात सदृश त्रिदोषकारक बताया है। इन्हीं तीनों भाइयों की आपस में प्रीति होने पर मन मष्तिष्क ऐसा पीड़ित और क्षुब्ध रहता है मानो एकसाथ सन्निपात ज्वर एवं नानाविध कष्टदायक रोग का आक्रमण हो गया हो। गोस्वामीजी ने ममता, ईर्ष्या, विषाद, कुटिलता, अहंकार, (दम्भ, कपट, मद और मान), तृष्णा, डाह और अविवेक को प्रमुखरूप से मानसरोग के रुप में गिनती की है। इन मानसरोगों की तुलना जो उन्होंने शारीरिक रोगों से की है, सटीक तो है ही, अत्यंत रोचकरुप से ज्ञानवर्धक भी है।
तुलना देखिये और गुणिये:
ममता - दाद,
ईर्ष्या - खुजली,
(हर्ष-विषाद) - घेघारोग,
मन की कुटिलता- कोढ़,
अहंकार - गठिया,
(दम्भ, कपट, मद और मान)-नसों के रोग,
तृष्णा- उदररोग(जलोदर)
(मत्सर और अविवेक)- बुखार के प्रकार.
इन रोगों के बारे जान लेने से कुछ क्षण के लिये ये भले क्षीण हो जाते हैं किन्तु इसका समूल नाश बिना राम की कृपा के सम्भव नहीं है, हां, उपचारस्वरूप गोस्वामीजी ने नियम, धर्म, उत्तम आचरण, तप, दान और यज्ञ को औषधि बताया है जिसके आश्रय एवं सेवन से ये रोग कुछ अवधि भर के लिए दब भले जाते हैं किन्तु विषयरुपी कुपथ्य से पुनः अंकुरित होकर फिर से नाना प्रकार से हलचल मचाकर उपद्रव उपस्थित कर देते हैं। गुरूपसत्ति और विषय से परहेज हीं इसमें लाभकारी होता है और अंत में श्रीरामजी इच्छा! यदि चित्त इन उपायों से विषयविमुख होता चला जाय तो समझना चाहिये कि मन रोगमुक्त हो रहा है।
शेष हरिकृपा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
२५.०७.२०१९.
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