गहना कर्मणो गतिः

स्वल्पज्ञान के आधार पर इस पर कुछ लिखना अथवा कहना सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। ऐसा होते हुए भी यदि हम कहें कि कर्म स्वरुप से भले हीं दिख जाय, बल्कि सहज दिखे, समझ में भी आ जाये किन्तु इसे तत्व से समझना अत्यंत कठिन है।
ग्रंथरत्न गीता में भगवान् संक्षेप यही कहते हैं कि अर्जुन! मनुष्यों में बुद्धिमान तुम उसी को जानो कर्म में अकर्म को देखता हो और अकर्म में कर्म को तथा सारे कर्मों को करते हुए भी स्वयं को अकर्ता हीं पाता हो। क्या कर्म है, क्या विकर्म है, क्या अकर्म है इत्यादि बड़ी गूढ़ एवं दुर्बोध बात है। कहा गया है कि कामना के कारण क्रिया ही फलजनक 'कर्म' बनता है। कामना बढ़ने पर 'विकर्म'(पाप) होते हैं। कामना का सर्वथा नाश होने पर सभी कर्म 'अकर्म'हो जाते हैं। किन्तु इसे तत्व से समझना व्यक्ति के कर्म को योगसन्यस्त तथा विवेक को ज्ञानसम्पन्न बना देता है जिससे उसके संशय का नाश होने के अनन्तर कोई कार्य अपने स्वार्थ के लिये करना आवश्यक नहीं रह जाता है। उसकी आवश्यकता की पूर्ति स्वयमेव होती रहती है। कारण उसके योगक्षेम का भार स्वयं योगेश्वर कृष्ण ले लेते हैं।
हम कोई भी कार्य क्यों करते हैं? सरलतम रूप में इसकी व्याख्या यह हो सकती है कि अमुक कर्म को किये जाने से हमारी आवश्यकता की पूर्ति होती है। विचारकर देखने से पता चल सकता है कि आवश्यकता कभी नहीं पूरी होती, बल्कि जिसे हम पूर्ति समझते हैं वह अनेकानेक नवीन आवश्यकता को जन्म दे देती है और व्यक्ति विक्षिप्तचित्त होकर कर्मों की एक सतत, अविच्छिन्न शृंखला में उलझ कर उसे सुलझाते सुलझाते अपने प्राणों का अंत कर डालता है जिसे मृत्यु कहते हैं।
तो फिर क्या करना चाहिए? जब कर्म करने से व्यक्ति उलझता है, फंसता है तो फिर आदर्श स्थिति तो यही है कि कर्म किया ही नहीं जाय। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं है, यह सामान्य अनुभव की चीज है। शरीरधारी जीव अनेक प्रकार की जैविक क्रियाएँ करता हुआ हीं अपनी प्राणयात्रा सम्पन्न करता है। वह देखता है, सुनता है, छूता है, सूंघता है, खाता है, चलता है, ग्रहण करता है, बोलता है, (मल-मूत्र का) त्याग करता है, सोता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, मूंदता है, सपने देखता है आदि,आदि। इन समस्त कर्मव्यापार में लीन रहते हुए भी यदि उसका भाव यह हो कि मैं वास्तव में कुछ भी नहीं कर रहा हूँ बल्कि गुण ही गुणों में बरत रहे  हैं तो यह उसके तात्विक ज्ञान को दर्शाता है। गुण हीं गुणों में बरत रहे हैं का अर्थ मेरी समझ में यह है कि जब यह कर्म हो रहा हो तो इसमें रस लेने की प्रवृत्ति उनमें नहीं होती जो कर्मयोगी हैं। बिना कर्म किये तो शरीरयात्रा भी सम्भव नहीं है फिर ज्ञानयात्रा कैसे हो। इस प्रकार कर्म करने की अनिवार्यता जीवमात्र की विवशता है। कर्म का स्वरूप से त्याग असम्भव है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् इसीलिए कहते हैं-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।। (३/८)
कर्म नहीं करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ भाव है कर्म करना। और यदि यह आसक्तिरहित हो तो फिर कहना ही क्या! तब तो यह ब्रह्म तक की प्राप्ति करा सकता है।
अतः यदि हम स्वयं को कर्मविवर से निकालना चाहते हैं तो हमें इसके लिये भी कर्म हीं करना पड़ेगा। साधनरूप में कामनाशून्य कर्तव्यकर्म हो अथवा ज्ञान हो या भक्ति। देखा जाय तो ज्ञान एवं भक्ति भी कर्म के हीं परिष्कृत संस्करण हैं। भाव का भेद है। एक में कर्म का आश्रय व्यक्ति स्वयं को समझता है, दूसरे में विवेक अर्जित ज्ञान को तथा तीसरे में भगवान् को। इस प्रकार सत्कर्म कर्मयोगी के लिये स्वाश्रयी, ज्ञानमार्गी के लिए विवेकाश्रयी तथा भक्त के लिए भगवदाश्रयी है। आश्रयभेद साधक के रूचि एवं प्रकृति पर निर्भर है।
नीचे स्तर के अनुभव से भी यह बात समझ में आती है कि कोई भी कर्म स्वयं में न तो बंधन का हेतु है न ही मोक्ष का। इसके पीछे का जो भाव है वही या तो हमें गिराता है या उठाता है।
चाकू का कुशल प्रयोग एक चिकित्सक तथा कोई बदमाश दो विपरीत भावों से करता है। एक का उद्देश्य कष्ट निवारण है तो दूसरे का आवेश या लोभ लिप्सा के वशीभूत हो किसी को दैहिक हानि पहुंचाना। इस प्रकार भावभेद से कर्मफल में भेद की कल्पना की जा सकती है। सूरदासजी कहते हैं-
इक लोहा पूजा में राखत इक घर बधिक पड़ो।
संसारसागर को अनायास ही पार कर जाने वाले एक महात्मा का कहना था कि यदि बिना किये रह सको तो कुछ भी नहीं करना चाहिए। बिना किये न रह सको तो सब कुछ करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिन संकल्पों को हम विचार से नहीं मिटा सकते उनको धर्मानुकूल भगवान् के नाते पूरा करके मिटा देना चाहिए और नये संकल्प उत्पन्न न होने देना चाहिए।
गीताधारित कर्मविषयक व्याख्या का यह प्रयत्न मात्र इस उद्देश्य से प्रेरित है कि जितनी बात इस साधक को समझ में आ सकी है उसे वह लिखने का भी प्रयास करे ताकि उसके मानसिक लाभ में अभिवृद्धि हो।
राजीव रंजन प्रभाकर
०४.०७.२०१९.

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