भावावेश और हमारे संकल्प

" मैं आज से सिगरेट नहीं पियुंगा, पान नहीं खाऊंगा, अमुक को आज के बाद फोन नहीं करूंगा, मद्यपान नहीं करूंगा, मैं आज के बाद वहां कभी नहीं जाऊंगा, आज के बाद उससे बात नहीं करूंगा, मैं आज से मीठा नहीं खाऊंगा" इत्यादि। इस तरह के संकल्प या निर्णय यदि हम आवेश में आकर लेते हैं तो प्रायः यही देखा गया है कि हम उस निर्णयपर कायम नहीं रह पाते हैं और जल्दी ही उस निर्णय की उपेक्षा कर वही कार्य कर बैठते हैं जिसके नहीं करने सम्बंधी संकल्प हमने कुछ दिन पहले लिया था। हम सभी को इसका अनुभव है कि किस तरह शीघ्र हीं हमारी परिस्थिति या चित्त की दुर्बलता हमें हमारे ऐसे निर्णय को विफल कर देती है।
जानते हैं इसका कारण क्या है? मुझ जैसे सीमित बुद्धि वाले की दृष्टि में इसका साधारण सा कारण हमारे भीतर का अहंकार है जो अनुकूल परिस्थिति पाकर हमें ऐसे निर्णय लेने को प्रेरित करता है। ये निर्णय वास्तव में कोई निर्णय न होकर हमारा मनोवेग मात्र है जो उद्वेग के रूप में बाहर निकलता है जिसे हम दम्भ से अपना "निर्णय" या "संकल्प" कहते हैं। लेकिन यदि यही निर्णय स्वस्थ चित्त होकर लिये जायें तो ये दीर्घकालिक हो सकते हैं और यदि भाव किसी को ठेस या नीचा दिखाने का न हो बल्कि आत्मनिरीक्षण कर अपने में सुधार लाना अभीष्ट हो तो ऐसे सात्विक भाव की दृढ़ता ऐसे नकारात्मक संकल्प को भी कल्याणप्रद बना सकती है।
इस सम्बंध में धनुर्धर धनंजय के "निर्णय" की व्याख्या प्रसंगानुकूल है। इस पर विचार करना चाहिये। हम सभी जानते हैं कि युद्धक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने दोनों तरफ परमनिकट सम्बंधी और परिजनों को पाकर मोह एवं विषाद से ग्रस्त होकर कैसे तुरंत ही यह निर्णय कर लिया कि वे युद्ध नहीं करेंगे। यद्यपि अर्जुन परम वीर थे, वे अपने उत्कट पराक्रम का प्रदर्शन/दर्शन अनेक बार कर/करा चुके थे किन्तु यह उसका पहला अनुभव था जब युद्धभूमि सारे के सारे मुख्य योद्धा एवं वीर उनके निकट कुटुम्बी हीं थे जिनसे उन्हें युद्ध करना था। यही कुटुम्बप्रेम अर्जुन के मोह, भ्रम और चित्त की दुर्बलता का कारण बना और उसने क्षत्रियोचित धर्म एवं कर्तव्यकर्म की उपेक्षा कर अहंकार में आकर सारथी बने भगवान् को कह डाला कि वह युद्ध नहीं करेगा।
एवमुक्त्वा ह्रषीकेशं गुडाकेशं परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।
                           (श्रीमद्भगवद्गीता, २/९)
क्या अर्जुन अपने निर्णय पर कायम रह सके? हम सभी जानते हैं- नहीं। कारण स्पष्ट है, उसका यह निर्णय उद्वेगजनित था जिसके सम्बंध में भगवान् ने स्पष्ट कह दिया कि उसका ये निर्णय नहीं है मात्र यह उसका अहंकार है जिसके वश में आकर वह ऐसा कह रहा है, उसकी प्रकृति हीं उसे युद्धकर्म में लगा देगी।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।
                    (श्रीमद्भगवद्गीता, १८/५९)
भगवान् के उपदेशोपरांत जब अर्जुन स्वस्थचित्त हुए तभी उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।
तब वे कहते हैं-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युतः।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
                               (श्रीमद्भगवद्गीता, १८/७३)
उद्वेगजन्य निश्चय अक्सर निरर्थक हीं साबित होते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि यदि हम अपने ऐसे लिये गये संकल्प पर कायम नहीं रह पाते हैं तो इसका यही अर्थ है कि भगवान् यह दर्शाना चाहते हैं कि चूंकि यह तुम्हारा निर्णय तामसिक भाव के आश्रय लेने से उत्पन्न है इसीलिए इसका निष्फल होना तय है। इसे परमकौतुकी प्रभु की कृपा समझनी चाहिये कि यदि ऐसे आवेशजन्य मोहस्वरुप लिये गये निर्णय के फल को वे अनिष्टकारी नहीं बनाते हैं।
इसलिये यह आवश्यक है कि हम कोई भी संकल्प उद्वेगावस्था में न लें चाहे वह नकारात्मक संकल्प हीं क्यों न हो! किन्तु नकारात्मक संकल्प भी यदि स्वस्थचित्त से लिया गया हो तभी यह हितकर सिद्ध हो सकता है अन्यथा की स्थिति में इसका परिणाम लोकापवाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
२२.०७.२०१९.

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