एक कहानी भीमसेन की;नहीं,कुन्ती की.
भीमसेन महाभारत के सुविख्यात पात्र हैं। ये परम पराक्रमी और महाबलशाली थे।बलवान होने के साथ साथ शीलवान भी थे।अज्ञातवास की अवधि में माता कुन्ती और अन्य भाइयों को जहां कोई कार्य बलसाध्य प्रतीत होता था, अक्सर भीमसेन हीं याद आते थे।शीलसम्पन्न बलवान व्यक्ति की पहचान होती है कि उससे कमजोर और निर्बल भी स्वयं को संरक्षित महसूस करे अन्यथा बलवान तो जातुधान भी होते हैं जिससे सम्पूर्ण जीवजगत भयभीत एवं संत्रस्त रहता है।
इस प्रसंग में महाभारत में वर्णित एक कहानी है जो भीमसेन की वीरता को तो प्रदर्शित करती हीं है किन्तु प्रकाशित करती है कुन्ती की धर्मबुद्धि को जो वस्तुतः मनन करने योग्य है।
अज्ञातवास के दौरान लाक्षागृह में आग लगा दिये जाने के पश्चात पांडवों की स्थिति और विकट हो गई। पहचान को गोपनीय रखते हुए प्राणरक्षा हेतु आश्रय पाना कोई आसान काम नहीं था। उस पर भी साथ साथ जब पूरा परिवार चल रहा हो। कल्पना करने की बात है। अस्तु।
इसी क्रम में पांडव एक नगर पहुंचे। नगर का नाम था एकचक्रा। एकचक्रा नगरी में निवास कर रहा एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार के घर में पांडवों को कुछ दिनों के लिए आश्रय मिला। दिन किसी तरह कट हीं रहे थे।
एक दिन की बात है; सुबह-सुबह हीं ब्राह्मण के घर कुहराम मचा था। सभी आर्त होकर आंसू बहा रहे थे। माता कुन्ती को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उस समय डेरे पर मात्र कुन्ती और भीमसेन थे। धर्मराज आदि चारो भाई भिक्षा के लिए बाहर गये थे।
कुन्ती के पूछने पर ब्राह्मण ने कहा, "देवी! बात यह है कि इस नगरी में एक महादुष्ट वक नामक बलवान राक्षस रहता है। उसने ऐसा नियम बना रखा है कि नगर के प्रत्येक घर से नित्य बारी बारी से एक आदमी उसके लिए विविध भोजन सामग्री लेकर उसके पास जाय। वह दुष्ट अन्य सामग्रियों के साथ उस आदमी को भी खा जाता है। आज उस दुष्ट वक को भोजन सामग्री पहुंचाने की बारी मेरे ही घर की है। मैं कहता हूँ कि भोजन पहुंचाने मैं जाउंगा तो मेरा पुत्र मुझे रोकता है और कहता है कि पिताजी ये कार्य मुझे करने दीजिये। मुझे वह दुष्ट खा भी जाये तो कोई विशेष क्षति नहीं, परिवार में आपका रहना आवश्यक है। मेरी पत्नी अलग कह रही है कि नाथ! उस दुष्ट के पास भोजन लेकर मुझे हीं जाने दें, वैसे भी मैं वृद्ध हो गई हूँ, अब मेरा जीवित रहना कोई विशेष महत्व का नहीं रहा। अतः यह कार्य करने के लिए आप मुझे हीं आज्ञा दें। इधर मेरी परमआज्ञाकारिणी सुखप्रदायिणी पुत्री मुझसे हठ कर रही है कि दुष्ट राक्षस के लिए भोजन सामग्री लेकर मैं उसे जाने की आज्ञा दूं। माता! मेरे दुःख का यही कारण है कि आज मेरे परिवार का कोई एक सदस्य उस दुष्ट द्वारा मार कर खा लिया जायेगा। हम सभी का एक दूसरे के प्रति स्नेहबंधन हमें विह्वल किये जा रहा है कि आज हमारे परिवार का कोई एक हमसे सदा के लिए बिछुड़ जायेगा। हमलोगों के शोक और व्यथा का यही कारण है।"
कुन्ती ने सारी बातें सुनीं तो उनका ह्रदय दया से भर गया। उन्होंने ब्राह्मण परिवार से हंसकर कहा-'पण्डितजी! आपलोग रोते क्यों हैं। आप जरा भी चिन्ता न करें। मेरे पांच लड़के हैं, उनमें से एक लड़के को मैं भोजन सामग्री देकर उस राक्षस के यहां भेज दूंगी।'
ब्राह्मणदेवता यह सुन कर चकित हो गये। ब्राह्मण ने कहा - 'माता! ऐसा कैसे हो सकता है? आप सब हमारे अतिथि हैं। अपने प्राण बचाने के लिए हम अतिथि का प्राण लें, ऐसा अधर्म हमसे कभी नहीं हो सकता।'
कुन्ती ने समझाकर कहा-' पण्डितजी! मेरा लड़का बड़ा बली है। उसने अबतक कितने ही राक्षसों को मारा है। वह अवश्य इस राक्षस को भी मार डालेगा। फिर मान लीजिये, कदाचित् वह न भी मार सका तो क्या होगा। मेरे पांच में चार तो बचे हीं रहेंगे। हम लोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवार के से हो गये हैं। आप वृद्ध हैं, वह जवान है। फिर हम आपके आश्रय में रहते हैं। ऐसी अवस्था में आप वृद्ध और पूजनीय होकर भी राक्षस के मुंह में जायें और मेरा लड़का जवान और बलवान होकर बैठा रहे, भला यह उचित होगा;नहीं कदापि नहीं। यदि आप मना करेंगे तो भी मैं आपको उस राक्षस के पास नहीं जाने दूंगी, मेरा लड़का आपको बलपूर्वक रोक लेगा तथा वह स्वयं भोजन लेकर उस राक्षस के पास जायेगा।'
ब्राह्मण को कुन्ती की बात मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह गया। लाचार होकर ब्राह्मण को कुन्ती का अनुरोध मानना पड़ा।
भीमसेन माता की आज्ञा पाकर सहर्ष जाने को तैयार हो गये। यह कार्य उनके मन एवं रूचि के अनुरूप था सो अलग। इसी बीच युधिष्ठिर आदि चारो भाई घर लौटे। माता कुन्ती से सारी बातें जान उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं हुई। उल्टे उन्होंने माता को समझाना शुरू कर दिया-क्या जरूरत थी दूसरे के संकट को अपने सिर लेने की?
माता कुन्ती को सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। वह कुपित होकर बोली- युधिष्ठिर! तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। लोग तुम्हें व्यर्थ हीं धर्मराज कहते हैं। तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकार की बातें कह रहा है! वह व्यक्ति पाप का भागी है जो अपने आश्रयदाता के उपर आये संकट के प्रति निरपेक्ष रहे। और जब कदाचित् आश्रित को मदद पहुंचाने का सामर्थ्य हो तब भी मदद से मुंह मोड़ना धर्मविरूद्ध पापकर्म है। भीम के बल का तुझको भलीभांति पता है, वह राक्षस को मारकर हीं आयेगा;परन्तु कदाचित् ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेन को भेजना क्या धर्म नहीं है? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- किसी पर भी विपत्ति आये तो बलवान क्षत्रिय का धर्म है कि अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उसकी रक्षा करे।
धर्मराज युधिष्ठिर माता की धर्मसम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो चुका था।
उसके बाद जो हुआ वही होना था। दुष्ट राक्षस वक को अपनी दुष्टता का दंड मिल गया। वह महाबलशाली भीमसेन के हाथों अपने प्राण गंवा बैठा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
07.06.2019.
इस प्रसंग में महाभारत में वर्णित एक कहानी है जो भीमसेन की वीरता को तो प्रदर्शित करती हीं है किन्तु प्रकाशित करती है कुन्ती की धर्मबुद्धि को जो वस्तुतः मनन करने योग्य है।
अज्ञातवास के दौरान लाक्षागृह में आग लगा दिये जाने के पश्चात पांडवों की स्थिति और विकट हो गई। पहचान को गोपनीय रखते हुए प्राणरक्षा हेतु आश्रय पाना कोई आसान काम नहीं था। उस पर भी साथ साथ जब पूरा परिवार चल रहा हो। कल्पना करने की बात है। अस्तु।
इसी क्रम में पांडव एक नगर पहुंचे। नगर का नाम था एकचक्रा। एकचक्रा नगरी में निवास कर रहा एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार के घर में पांडवों को कुछ दिनों के लिए आश्रय मिला। दिन किसी तरह कट हीं रहे थे।
एक दिन की बात है; सुबह-सुबह हीं ब्राह्मण के घर कुहराम मचा था। सभी आर्त होकर आंसू बहा रहे थे। माता कुन्ती को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उस समय डेरे पर मात्र कुन्ती और भीमसेन थे। धर्मराज आदि चारो भाई भिक्षा के लिए बाहर गये थे।
कुन्ती के पूछने पर ब्राह्मण ने कहा, "देवी! बात यह है कि इस नगरी में एक महादुष्ट वक नामक बलवान राक्षस रहता है। उसने ऐसा नियम बना रखा है कि नगर के प्रत्येक घर से नित्य बारी बारी से एक आदमी उसके लिए विविध भोजन सामग्री लेकर उसके पास जाय। वह दुष्ट अन्य सामग्रियों के साथ उस आदमी को भी खा जाता है। आज उस दुष्ट वक को भोजन सामग्री पहुंचाने की बारी मेरे ही घर की है। मैं कहता हूँ कि भोजन पहुंचाने मैं जाउंगा तो मेरा पुत्र मुझे रोकता है और कहता है कि पिताजी ये कार्य मुझे करने दीजिये। मुझे वह दुष्ट खा भी जाये तो कोई विशेष क्षति नहीं, परिवार में आपका रहना आवश्यक है। मेरी पत्नी अलग कह रही है कि नाथ! उस दुष्ट के पास भोजन लेकर मुझे हीं जाने दें, वैसे भी मैं वृद्ध हो गई हूँ, अब मेरा जीवित रहना कोई विशेष महत्व का नहीं रहा। अतः यह कार्य करने के लिए आप मुझे हीं आज्ञा दें। इधर मेरी परमआज्ञाकारिणी सुखप्रदायिणी पुत्री मुझसे हठ कर रही है कि दुष्ट राक्षस के लिए भोजन सामग्री लेकर मैं उसे जाने की आज्ञा दूं। माता! मेरे दुःख का यही कारण है कि आज मेरे परिवार का कोई एक सदस्य उस दुष्ट द्वारा मार कर खा लिया जायेगा। हम सभी का एक दूसरे के प्रति स्नेहबंधन हमें विह्वल किये जा रहा है कि आज हमारे परिवार का कोई एक हमसे सदा के लिए बिछुड़ जायेगा। हमलोगों के शोक और व्यथा का यही कारण है।"
कुन्ती ने सारी बातें सुनीं तो उनका ह्रदय दया से भर गया। उन्होंने ब्राह्मण परिवार से हंसकर कहा-'पण्डितजी! आपलोग रोते क्यों हैं। आप जरा भी चिन्ता न करें। मेरे पांच लड़के हैं, उनमें से एक लड़के को मैं भोजन सामग्री देकर उस राक्षस के यहां भेज दूंगी।'
ब्राह्मणदेवता यह सुन कर चकित हो गये। ब्राह्मण ने कहा - 'माता! ऐसा कैसे हो सकता है? आप सब हमारे अतिथि हैं। अपने प्राण बचाने के लिए हम अतिथि का प्राण लें, ऐसा अधर्म हमसे कभी नहीं हो सकता।'
कुन्ती ने समझाकर कहा-' पण्डितजी! मेरा लड़का बड़ा बली है। उसने अबतक कितने ही राक्षसों को मारा है। वह अवश्य इस राक्षस को भी मार डालेगा। फिर मान लीजिये, कदाचित् वह न भी मार सका तो क्या होगा। मेरे पांच में चार तो बचे हीं रहेंगे। हम लोग सब एक साथ रहकर एक ही परिवार के से हो गये हैं। आप वृद्ध हैं, वह जवान है। फिर हम आपके आश्रय में रहते हैं। ऐसी अवस्था में आप वृद्ध और पूजनीय होकर भी राक्षस के मुंह में जायें और मेरा लड़का जवान और बलवान होकर बैठा रहे, भला यह उचित होगा;नहीं कदापि नहीं। यदि आप मना करेंगे तो भी मैं आपको उस राक्षस के पास नहीं जाने दूंगी, मेरा लड़का आपको बलपूर्वक रोक लेगा तथा वह स्वयं भोजन लेकर उस राक्षस के पास जायेगा।'
ब्राह्मण को कुन्ती की बात मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह गया। लाचार होकर ब्राह्मण को कुन्ती का अनुरोध मानना पड़ा।
भीमसेन माता की आज्ञा पाकर सहर्ष जाने को तैयार हो गये। यह कार्य उनके मन एवं रूचि के अनुरूप था सो अलग। इसी बीच युधिष्ठिर आदि चारो भाई घर लौटे। माता कुन्ती से सारी बातें जान उन्हें कोई प्रसन्नता नहीं हुई। उल्टे उन्होंने माता को समझाना शुरू कर दिया-क्या जरूरत थी दूसरे के संकट को अपने सिर लेने की?
माता कुन्ती को सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। वह कुपित होकर बोली- युधिष्ठिर! तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। लोग तुम्हें व्यर्थ हीं धर्मराज कहते हैं। तू धर्मात्मा होकर भी इस प्रकार की बातें कह रहा है! वह व्यक्ति पाप का भागी है जो अपने आश्रयदाता के उपर आये संकट के प्रति निरपेक्ष रहे। और जब कदाचित् आश्रित को मदद पहुंचाने का सामर्थ्य हो तब भी मदद से मुंह मोड़ना धर्मविरूद्ध पापकर्म है। भीम के बल का तुझको भलीभांति पता है, वह राक्षस को मारकर हीं आयेगा;परन्तु कदाचित् ऐसा न भी हो, तो इस समय भीमसेन को भेजना क्या धर्म नहीं है? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- किसी पर भी विपत्ति आये तो बलवान क्षत्रिय का धर्म है कि अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उसकी रक्षा करे।
धर्मराज युधिष्ठिर माता की धर्मसम्मत वाणी सुनकर लज्जित हो गये। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो चुका था।
उसके बाद जो हुआ वही होना था। दुष्ट राक्षस वक को अपनी दुष्टता का दंड मिल गया। वह महाबलशाली भीमसेन के हाथों अपने प्राण गंवा बैठा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
07.06.2019.
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