कुमार्ग पर पैर रखते हीं बल और तेज जाता रहता है।

जी बात बिल्कुल सही है। कोई कितना भी बलवान एवं बुद्धिमान हो या फिर विद्वान हो जैसे ही उसकी प्रवृत्ति स्वयं को गर्हित कार्य में नियोजित करने की होती है सबसे पहले उसके विवेकशक्ति का नाश हो जाता है। विवेकशून्य जल्द ही काम, क्रोध और लोभ के अधीन कार्य कर अपना हीं अनिष्ट कर डालता है चाहे वह दशानन हीं क्यों न हो।
प्रसंग उसी दशानन रावण का हीं लेते हैं जिसके पदचाप से धरती डोलती थी, जो अपने भुजाओं में स्थित बल को तौलने हेतु कौतुक से कैलाश पर्वत तक को तौल आनंदित होता था वही रावण जब सीताहरण जैसे गर्हित कर्म में प्रवृत्त हुआ तो उसका सारा तेज जाता रहा।
राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण था बल्कि प्रकांड पंडित भी था तथा जिसके अतुलनीय बल से समस्त देव एवं मुनि समाज भयकम्पित रहता था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म जैसे उद्देश्य लेकर पहुंचता है तो उसकी मनोदशा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने मात्र दो चौपाई में जो किया है,वह अत्यंत रोचक होने के साथ ज्ञानवर्धक भी है।
गोस्वामीजी ने तो ऐसे रावण की तुलना कुत्ते तक से कर डाली है।
चौपाई देखिये -
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा।।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।।
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा।।
                   (रामचरितमानस, अरण्यकांड,२७/ ४,५)
तुलसीदासजी कह रहे हैं -
रावण सूना मौका देखकर यति(संन्यासी) के वेष में श्रीसीताजी के समीप आया। जिस रावण के डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि वे रात को सो नहीं पाते और दिन में डर के मारे भरपेट अन्न नहीं खा पाते वही दस सिर वाला रावण आज कुत्ते की तरह इधर उधर ताकता हुआ भड़िहाई(चोरी) के लिये चला। (सूना पाकर कुत्ता जब चुपके से बर्तन-भांडों में मुंह डालकर कुछ चुरा ले जाता है तो उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।)
पंचवटी में श्रीसीताजी को अकेला एवं सूना देख रावण आ तो रहा था संन्यासी वेष में किन्तु उसकी मनोदशा एक कुत्ते की सी हो गई थी जो चोरी-छिपे इधर उधर शंका से ताकता हुआ घर में रखे बर्तन-भांड में मुंह डालकर कुछ चुरा कर भागना चाहता है।
देखिये प्रतापी रावण की दशा जिसकी तुलना भी की गई तो एक कुत्ते से। इसमें कवि का कोई दोष नहीं;दोष है तो उस कर्म का जिसने एक क्षण में दसकंधर जैसे की श्री एवं कीर्ति का नाश कर उसे स्वान बना डाला।यह अतुलित बलशाली रावण का गर्हित कर्मजन्य दुर्भाग्य ही कहिये कि भरी सभा में उसे एक दूत से अपमानित होना पड़ा जब भगवान् राम के दूत बनकर दशानन की सभा में उपस्थित बालिकुमार अंगद ने उसे कहा-
रे त्रियचोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी।।
(रामचरितमानस, लङ्काकांड, ३२/२)
यदि कोई राजा एक दूत से सभामध्य ऐसे वचन सुने और सहे तो वह निश्चय हीं श्रीहत एवं आत्मबलविहीन है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि  बल होते हुए भी रावण आत्मबल से उसी क्षण हीन हो गया था जिस क्षण उसने कुमार्ग पर चलने का निर्णय लिया। उसके बाद जो भी उसमें बलरूप में दिखा वह केवल और केवल उसका दम्भमात्र था।
यह है कुमार्ग पर कदम रखने का परिणाम! यह ध्रुव है कि कुमार्गी अंततोगत्वा नाश को प्राप्त होता है; समय जो लगे। अनैतिक बल का आश्रय लेने का परिणाम कभी सुखमय नहीं हो सकता है।
इसीलिए काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरूड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है।
शेष हरि इच्छा। इति शुभम।
राजीव रंजन प्रभाकर.
२०.०६.२०१९.

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