नयी शिक्षा नीति : प्रारुप पर विमर्श
इन पंक्तियों को लिखनेवाला न कोई शिक्षाविद है न हीं नीति नियामक दल का कोई सदस्य या फिर ऐसा हीं कोई शख्सियत जिनके स्वतंत्र विचारों को जानने की किसी को आवश्यकता हो। बावजूद लिखनेवाले का सरोकार एक नागरिक की हैसियत से नकारा नहीं जा सकता जो शिक्षा के माध्यम से एक ऐसे समाज के निर्माण का सपना देखता है जिसमें प्रत्येक को अपने रुचि के अनुरूप स्वयं को विकसित करने का अवसर उपलब्ध रहे। यह संतोष का विषय है कि Accessibility, Affordability, Quality, Flexibility, Accountability को नयी शिक्षा नीति के पांच आधार स्तम्भ के रूप में पहचान हुई है। यह हम सभी का दायित्व है कि शिक्षा की रौशनी सब के घर पहुंचे, यह गुणवत्तापूर्ण हो, जरूरतों के मुताबिक यह परिवर्तनीय हो तथा अमीरी गरीबी के भेद से उत्पन्न न होकर समाज के प्रति उत्तरदायी हो। यह समाज में श्रम की गरिमा को प्रतिष्ठित करता हो। साधन की पावनता को कहीं से भी साध्य से कमतर न समझता हो।
चर्चा का आरम्भ भाषा को लेकर ही करते हैं। इधर विगत दो दिनों से मिडिया में यह खबर आ रही है कि नयी शिक्षा नीति में अहिन्दीभाषी राज्यों में त्रिभाषायी फार्मूला के तहत हिन्दी भाषा को उन राज्यों में जबरन पढा़ये जाने की योजना है। इस तरह की खबर मिडिया में आते हीं दक्षिण के दल एवं नेता ने एक सुर से विरोध करना शुरू कर दिया। सभी इसे अपनी क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़ इसका मुखर विरोध करने लगे। एक बार फिर से भाषा के नाम पर राजनीति करने की होड़ मच गयी है। धर्म के नाम पर तो चल हीं रही है। नतीजतन सरकार में आसीन दक्षिण भारतीय मंत्रीगण को सोशल मिडिया में अंग्रेजी तथा अपनी क्षेत्रीय भाषा में भी स्पष्टीकरण देना पड़ा कि अभी जो शिक्षा नीति सरकार को सौंपी गयी है, वह मात्र एक प्रारूप दस्तावेज है जिस पर समस्त सरोकारी से राय कर हीं सरकार कोई अंतिम निर्णय लेगी। विवाद तमिलप्रदेश में पूर्व की तरह उत्पन्न हिंसक हिन्दी विरोध का रूप न ले ले, शासन को बैकफुट पर आना पड़ा और तत्काल इसे आधिकारिक रूप से स्पष्ट करना पड़ा जिसका सारांश यही है कि हिन्दी को भाषा के रूप में पढ़ाया जाना बाध्यकारी न होकर स्वैच्छिक होगा। अस्तु।
यह ठीक है कि भारत जैसे बहुभाषी, बहुधर्मी एवं बहुसांस्कृतिक देश में किसी एक भाषा, धर्म या संस्कृति को थोपकर राष्ट्रीयता को सुदृढ़ नहीं किया जा सकता है लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हिन्दी हीं वह भाषा है जिसमें समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने की विलक्षण योग्यता है। इसका अनुभव यथार्थ में तभी हो पायेगा जब मन को भाषायी पूर्वाग्रह से मुक्त कर व्यापक हित में चिंतन हेतु नियोजित किया जाय।हिन्दी का दक्षिण विरोध राजनीति की विषयवस्तु हो चली है। यह दक्षिण भारतीय राजनीति का नकारात्मक हिस्सा है जिसमें हिन्दी के प्रति वैमनस्य उत्पन्न करके क्षेत्रीय अस्मिता को मजबूत करने का स्वांग रचा जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पड़ोसी देश को दुश्मन बता कर राष्ट्रीय भावना को उभारा जाय। वरना दक्षिण के राज्यों का आपसी सिरफुट्टौवल किसी से छुपा हुआ नहीं है जब वे कभी नदी जल के बंटवारे को लेकर तो कभी अपने अन्य क्षेत्रीय स्वार्थ के चलते प्रायः आमने सामने रहते हैं।चाहे वह तमिलनाडु हो या कर्नाटक, आंध्र हो या तेलांगन। लेकिन जब बात हिन्दी की होगी तब वे एक हो जायेंगे;विरोध तो करना हीं है, कोई मुखरता से तो कोई उग्रता से या फिर हिंसा से।
जहां तक मैं समझता हूँ कि हिन्दीभाषी प्रदेश के निवासी के मन-मष्तिष्क में किसी अहिन्दी भाषा के प्रति कोई क्लेश नहीं रहता बल्कि उसे सीखने की हीं उत्सुकता देखी जाती है। बचपन में मुझे याद आता है कि खेल- खेल में हीं अपने बांग्लाभाषी सहपाठी से बहुत सारे हिन्दी में प्रयोग होने वाले शब्दों को बांग्ला में जानने की जिज्ञासा रहती थी। उत्तर भारतीय में भी दक्षिण की भाषाओं के प्रति प्रेम को पनपाने की आवश्यकता है। लेकिन इस दिशा में जब भी कोई प्रयास होता है तो वह राजनीतिक विरोध का शिकार हो जाता है। मैं समझता हूं कि एक दूसरे की भाषा को सीखकर हम एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव एवं अनुराग पैदा कर सकते हैं। और परस्पर अनुराग हीं तो राष्ट्रीयता है। यही अनुराग को और विस्तार देने पर राष्ट्रीयता अन्तरराष्ट्रीयता में परिवर्तित हो जाता है जिसके पक्षधर कवीन्द्र रविन्द्र थे।
मेरे विचार से शिक्षा वह शक्ति है जिसके सहारे व्यक्ति स्वयं को बदल कर पूरे समाज को बदल देने का सामर्थ्य अर्जित कर लेता है। क्या हमारी शिक्षा नीति जिसे हम लागू करना चाहते हैं, में यह क्षमता है? क्या मौजूदा प्रारूप में उन तत्वों पर उतना बल दिया गया है जितना किसी व्यक्ति को एक ईमानदार, कर्मठ और उद्योगशील बनाने हेतु आवश्यक है? क्या हमारी प्रस्तावित नीति यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक शिक्षार्थी अल्पकाल के लिए ही सही अपने जीवन में एक बार अपनी योग्यतानुसार सैन्यबल में शामिल हो कर राष्ट्र की अपनी योग्यतानुसार सेवा करेगा?
मैं समझता हूं कि शिक्षा का उद्देश्य आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ संवेदनशील होना है, समावेशी होना है। समावेशी विकास बिना वैज्ञानिक दृष्टि तथा समावेशी सोच के सम्भव नहीं है।असली शिक्षा पहले उत्पादनकर्ता बनाती है बाद में भोक्ता या फिर उपभोक्ता। हमें देखना होगा कि यह क्रम मौजूदा शिक्षा नीति से हासिल होता है या नहीं। हम जानते हैं कि इसे सुनिश्चित करना आसान नहीं है और यह भी कि इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं है। जब तक समाज का सभी वर्ग अपने क्षमता मुताबिक स्वयं को योगदानकर्ता के रूप में देखना प्रारंभ नहीं करेगा कोई भी नीति सरकारी दस्तावेज से अधिक कुछ नहीं हो सकती। इसके लिए हमें योग्य शिक्षक की आवश्यकता है जिसका वर्तमान में घोर अभाव है। मुझे अमरीका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन का एक पत्र सहज ही याद आता है जिसमें एक शिक्षक से की गई अपेक्षाओं का वर्णन है। पत्र की विषयवस्तु को हीं सचमुच किसी भी शिक्षा नीति का पावन उद्देश्य कहा जा सकता है। अब यह बात अलग है कि उसे प्राप्त करने का साधन क्या है तथा वह किस परिमाण में शासनसाध्य है या नहीं। यदि शासन कम से कम इतना भर कर दे कि शिक्षा का व्यवसायीकरण बन्द हो जाय तो यह शिक्षा की बहुत बड़ी सेवा होगी। स्वयं अभावग्रस्त रहते हुए पहले के शिक्षकों ने जो राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाई है, वह अतुलनीय है। जरूरत है ऐसे शिक्षक समुदाय के फिर से निर्माण करने का जो छात्र में मूल्य आधारित शिक्षा देने में सक्षम हो। और फिर शिक्षा की एकमात्र जिम्मेदारी सिर्फ शिक्षक पर हीं क्यों हो? मुझे स्मरण होता है एक रेलवे प्लेटफार्म पर जहां एक पुलिस अधिकारी कुछ गरीब बच्चों को वहीं ब्लैकबोर्ड पर गणित के सवाल हल करना बतला रहे थे। यदि मन में भाव उत्पन्न हो जाय तो साधन का अभाव बाधक नहीं बन पाता है। शैक्षणिक संरचना में मात्र 10+2 के बदले 5+3+3+4 सरीखा उलटफेर कर देने से या मानव संसाधन मंत्रालय का नामकरण फिर से शिक्षा मंत्रालय कर देने से या फिर शिक्षा आयोग गठित कर देने से अगर यह हो जाता हो तो ठीक है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
05.06.2019.
यह ठीक है कि भारत जैसे बहुभाषी, बहुधर्मी एवं बहुसांस्कृतिक देश में किसी एक भाषा, धर्म या संस्कृति को थोपकर राष्ट्रीयता को सुदृढ़ नहीं किया जा सकता है लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हिन्दी हीं वह भाषा है जिसमें समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने की विलक्षण योग्यता है। इसका अनुभव यथार्थ में तभी हो पायेगा जब मन को भाषायी पूर्वाग्रह से मुक्त कर व्यापक हित में चिंतन हेतु नियोजित किया जाय।हिन्दी का दक्षिण विरोध राजनीति की विषयवस्तु हो चली है। यह दक्षिण भारतीय राजनीति का नकारात्मक हिस्सा है जिसमें हिन्दी के प्रति वैमनस्य उत्पन्न करके क्षेत्रीय अस्मिता को मजबूत करने का स्वांग रचा जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पड़ोसी देश को दुश्मन बता कर राष्ट्रीय भावना को उभारा जाय। वरना दक्षिण के राज्यों का आपसी सिरफुट्टौवल किसी से छुपा हुआ नहीं है जब वे कभी नदी जल के बंटवारे को लेकर तो कभी अपने अन्य क्षेत्रीय स्वार्थ के चलते प्रायः आमने सामने रहते हैं।चाहे वह तमिलनाडु हो या कर्नाटक, आंध्र हो या तेलांगन। लेकिन जब बात हिन्दी की होगी तब वे एक हो जायेंगे;विरोध तो करना हीं है, कोई मुखरता से तो कोई उग्रता से या फिर हिंसा से।
जहां तक मैं समझता हूँ कि हिन्दीभाषी प्रदेश के निवासी के मन-मष्तिष्क में किसी अहिन्दी भाषा के प्रति कोई क्लेश नहीं रहता बल्कि उसे सीखने की हीं उत्सुकता देखी जाती है। बचपन में मुझे याद आता है कि खेल- खेल में हीं अपने बांग्लाभाषी सहपाठी से बहुत सारे हिन्दी में प्रयोग होने वाले शब्दों को बांग्ला में जानने की जिज्ञासा रहती थी। उत्तर भारतीय में भी दक्षिण की भाषाओं के प्रति प्रेम को पनपाने की आवश्यकता है। लेकिन इस दिशा में जब भी कोई प्रयास होता है तो वह राजनीतिक विरोध का शिकार हो जाता है। मैं समझता हूं कि एक दूसरे की भाषा को सीखकर हम एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव एवं अनुराग पैदा कर सकते हैं। और परस्पर अनुराग हीं तो राष्ट्रीयता है। यही अनुराग को और विस्तार देने पर राष्ट्रीयता अन्तरराष्ट्रीयता में परिवर्तित हो जाता है जिसके पक्षधर कवीन्द्र रविन्द्र थे।
मेरे विचार से शिक्षा वह शक्ति है जिसके सहारे व्यक्ति स्वयं को बदल कर पूरे समाज को बदल देने का सामर्थ्य अर्जित कर लेता है। क्या हमारी शिक्षा नीति जिसे हम लागू करना चाहते हैं, में यह क्षमता है? क्या मौजूदा प्रारूप में उन तत्वों पर उतना बल दिया गया है जितना किसी व्यक्ति को एक ईमानदार, कर्मठ और उद्योगशील बनाने हेतु आवश्यक है? क्या हमारी प्रस्तावित नीति यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक शिक्षार्थी अल्पकाल के लिए ही सही अपने जीवन में एक बार अपनी योग्यतानुसार सैन्यबल में शामिल हो कर राष्ट्र की अपनी योग्यतानुसार सेवा करेगा?
मैं समझता हूं कि शिक्षा का उद्देश्य आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ संवेदनशील होना है, समावेशी होना है। समावेशी विकास बिना वैज्ञानिक दृष्टि तथा समावेशी सोच के सम्भव नहीं है।असली शिक्षा पहले उत्पादनकर्ता बनाती है बाद में भोक्ता या फिर उपभोक्ता। हमें देखना होगा कि यह क्रम मौजूदा शिक्षा नीति से हासिल होता है या नहीं। हम जानते हैं कि इसे सुनिश्चित करना आसान नहीं है और यह भी कि इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं है। जब तक समाज का सभी वर्ग अपने क्षमता मुताबिक स्वयं को योगदानकर्ता के रूप में देखना प्रारंभ नहीं करेगा कोई भी नीति सरकारी दस्तावेज से अधिक कुछ नहीं हो सकती। इसके लिए हमें योग्य शिक्षक की आवश्यकता है जिसका वर्तमान में घोर अभाव है। मुझे अमरीका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन का एक पत्र सहज ही याद आता है जिसमें एक शिक्षक से की गई अपेक्षाओं का वर्णन है। पत्र की विषयवस्तु को हीं सचमुच किसी भी शिक्षा नीति का पावन उद्देश्य कहा जा सकता है। अब यह बात अलग है कि उसे प्राप्त करने का साधन क्या है तथा वह किस परिमाण में शासनसाध्य है या नहीं। यदि शासन कम से कम इतना भर कर दे कि शिक्षा का व्यवसायीकरण बन्द हो जाय तो यह शिक्षा की बहुत बड़ी सेवा होगी। स्वयं अभावग्रस्त रहते हुए पहले के शिक्षकों ने जो राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाई है, वह अतुलनीय है। जरूरत है ऐसे शिक्षक समुदाय के फिर से निर्माण करने का जो छात्र में मूल्य आधारित शिक्षा देने में सक्षम हो। और फिर शिक्षा की एकमात्र जिम्मेदारी सिर्फ शिक्षक पर हीं क्यों हो? मुझे स्मरण होता है एक रेलवे प्लेटफार्म पर जहां एक पुलिस अधिकारी कुछ गरीब बच्चों को वहीं ब्लैकबोर्ड पर गणित के सवाल हल करना बतला रहे थे। यदि मन में भाव उत्पन्न हो जाय तो साधन का अभाव बाधक नहीं बन पाता है। शैक्षणिक संरचना में मात्र 10+2 के बदले 5+3+3+4 सरीखा उलटफेर कर देने से या मानव संसाधन मंत्रालय का नामकरण फिर से शिक्षा मंत्रालय कर देने से या फिर शिक्षा आयोग गठित कर देने से अगर यह हो जाता हो तो ठीक है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
05.06.2019.
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