चित्तशुद्धि के उपाय

सबसे पहले तो यह क्षमायाचना कि उपायरूपी इन पंक्तियों को लिखने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि लिखनेवाला अपने चित्त को शुद्ध कर चुका है। यदि ऐसा नहीं है तो इसका कारण यही है कि चित्त की शुद्धि तब तक नहीं हो सकती जब तक पूर्वजन्मकृतपुण्यवशात हमारा ह्रदयाकाश  बुरे और अनावश्यक संकल्परूपी मेघ से मुक्त न हो जाय।
अंतःकरण में उत्पन्न ऐसे भाव या चिंतन जिससे दूसरे को अहित पहुंचे या पहुंचने की सम्भावना हो, को हम बुरा संकल्प कह सकते हैं।
जिसका वर्तमान से सम्बंथ न हो, जिस संकल्प को पूरा करने की योग्यता या शक्ति न हो, यदि शक्ति या योग्यता हो तो भी वर्तमान में उसे पूरा करना आवश्यक न हो या सम्भव न हो, ऐसे संकल्पों को अनावश्यक संकल्प कह सकते हैं। अनावश्यक संकल्प को मात्र कालक्षेप का हेतु समझना चाहिए। अंग्रेजी का Daydreaming इसका पर्याय है।
बुरे और अनावश्यक संकल्पों का त्याग चित्तशुद्धि का पहला उपाय है। इसकी निवृत्ति हो जाने पर चित्त में जो भले और आवश्यक संकल्प उठते हैं उसकी पूर्ति अपने आप प्रायः हो जाती है।
भले संकल्प उनको कहते हैं जिनमें किसी का हित या प्रसन्नता निहित हो।आवश्यक संकल्प उनको कहते हैं जिसके अनुसार साधक की प्रवृत्ति होती है। उदाहरणस्वरूप भूख का अनुभव होने के पश्चात भोजन के निमित्त क्रिया/उद्योग आवश्यक संकल्प से उत्पन्न है। सम्मुख खतरा देख अपने बुद्धि विवेक के अनुसार उसका निवारण या मुकाबला करना आवश्यक संकल्प है। आवश्यकता पड़ने पर किसी की मदद के लिये उपलब्ध होना भला संकल्प है। परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए मेहनत करना भला संकल्प है, बीमार तन की चिकित्सा हेतु आवश्यक प्रयत्न तथा पथ्यादि का आश्रय भला संकल्प है, इत्यादि;अस्तु।
आवश्यक और भले संकल्प की पूर्ति होने से जो सुख होता है उसमें रस न लेना बल्कि इसे ईश्वर की आज्ञा का पालन समझकर उसे करना चित्तशुद्धि का दूसरा उपाय है।
ऐसी भी परिस्थिति आती है कि मन में उदित शुभ एवं आवश्यक संकल्प की भी पूर्ति सम्यक प्रयत्न के होते हुए भी नहीं होती है। तब यदि साधक यह देख खिन्न और निराश होने की बजाय मन ही मन यह निश्चय कर ले कि भगवान् इसलिए हमारे शुभ एवं आवश्यक संकल्प की पूर्ति नहीं कर रहे हैं क्योंकि वह इसे अनावश्यक समझते हैं अथवा मुझे अपना प्रेम प्रदान करने के लिए मेरे मन की बात पूरी न करके अपने मन की बात पूरी कर रहे हैं तो उसी में मेरा कल्याण है। ऐसा सोच कर संतोष करना नहीं बल्कि आनन्दित रहना चित्तशुद्धि का अन्तिम तथा अमोघ साधन है।
किन्तु ये सभी उपाय संसारी मनुष्य के लिए अनायास तो नहीं किन्तु शनैः शनैः अभ्यास के अधीन सहज साध्य है। आवश्यकता है श्रद्धा और विश्वासपूर्वक अपने चारो तरफ की शुभाशुभ घटनाओं में उनके मंगलविधान के दर्शन की योग्यता को अर्जित करने की। और यह योग्यता नित्य/ नैमित्तिक कर्म के निरन्तर रागपूर्वक किये जाने से शीघ्रसम्भव है। कारण इसके करने से हमारे स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है।अविद्या की गांठ ढीली पड़ती जाती है। बुद्धि आत्मनिष्ठ होने लगती है। आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति पुष्ट होती है, जड़ता और चंचलता का नाश होता है। अहंकार गलित होकर चित्त स्थिर होता चला जाता है।
ये नित्य-नैमित्तिक कर्म क्या हो सकते हैं?
धर्मशास्त्रों में संध्या, स्नान, जप, देवपूजन, बलिवैश्व, आतिथ्य के संदर्भ में कहा गया है कि ये छः कार्य प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन करना आवश्यक है।
संध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम।
वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्य षट् कर्माणि दिने दिने।।
            (बृहस्पति पराशर स्मृति १/३९)
कहने का प्रयोजन ये है कि उपरोक्त छः कर्मों का रागपूर्वक सम्पादन चित्तदोषनाशक है। चित्तदोष के नाश के अनन्तर चित्त सरलता से शुद्ध हो जाता है; यह उसी तरह सम्भव है जैसे जल्द से जल्द गीले वस्त्र को उतार देने के बाद किसी व्यक्ति के शरीर का गीलापन बिना किसी विशेष प्रयास के अल्पसमय में हीं सूख जाता हो। ऐसा इस पर विश्वास के साथ प्रयोग करने वाले का मानना है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
२७.०६.२०१९.

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