मनुष्य जीवन और आत्मनिरीक्षण
प्रत्येक मनुष्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में गुणात्मक सुधार के लिए सतत प्रयत्नशील रहे। लापरवाह व्यक्ति का जीवन कभी हर्षोल्लास तो कभी दुःख-शोक से पीड़ित-क्षुभित हीं बीत जाता है। उसे यह पता हीं नहीं चलता है कि उसने किस प्रकार अपने मूल्यवान जीवन को क्रोध-आवेग, उद्विग्नता एवं तृष्णा को भेंटकर नष्ट कर दिया है।
आइए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि आत्मनिरीक्षण है क्या और इसे किस प्रकार करना हमारे लिए लाभदायक हो सकता है।
आत्मनिरीक्षण काम, क्रोध तथा लोभ की उत्ताल तरंग रुपी समुद्र में हिचकोले खाती जीवनरुपी नैया के लिए एक पतवार से कम नहीं है। यह अपने-आपको अपने- आपसे देखना है जिसका उद्देश्य निजदोषदर्शन तथा उसका निवारण है। इसका आश्रय लेकर व्यक्ति भगवद्कृपा से विषम से विषम परिस्थिति में भी अपना मार्गदर्शन स्वयं कर पाने में सफल हो जाता है।
होता यह है कि किसी व्यवस्था (system) का संचालन बिना किसी monitoring के होते रहने से कालक्रम में उसमें बहुत से दोष एवं दुर्गुण अपना डेरा जमा लेते हैं। अंततः ये दोष या दुर्गुण इतने विकराल हो जाते हैं कि वे उस तंत्र को हीं तिरोहित कर देते हैं।यह हम सभी अनुभव से जानते हैं। फिर हमारा यह जीवन तंत्र तो स्वयं में अथाह है जिसकी सम्यक समझ यदि अंतकाल तक में भी हो जाय तो इसे एक महान उपलब्धि हीं कहा जायेगा। हमारे मन मष्तिष्क में क्षण-प्रतिक्षण असंख्य सूक्ष्म भाव उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। उसमें कई तो शुभकारी, कल्याणकारी, प्रेरणादायी तथा आनन्ददायी होते हैं किन्तु कोटिशः भाव ऐसे भी उत्पन्न होते रहते हैं जो हमारे लिए अशुभ, अमंगलकारी एवं विनाशक होकर अनर्थ के हेतुरूप सिद्ध होते हैं। इन भावों की उत्पत्ति कोई अस्वाभाविक नहीं है;कारण यह सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीर है हीं त्रिगुणात्मक जहां तीनों भाव यथा सत्व, रज और तम का निवास है।
आत्मनिरीक्षण तटस्थ होकर अपने भीतर उत्पन्न एवं विलीन हो रहे इन सूक्ष्म भावों को द्रष्टा के रूप में देख कर उन्हीं भावों को आदर देना है तथा उन्हें हीं पुष्पित एवं पल्लवित करना है जो हमारे भीतर शुभ ऊर्जा का संचार करते हों, आलस्य को तिरोहित करता हो, दूसरे के अहितचिंतन से हमें रोकता हो, कर्तव्य कर्म पर आरूढ़ रहने के लिये प्रेरित करता हो तथा क्षण-प्रतिक्षण उस परमसत्ता का अनुभव कराता हो जिसके भृकुटी विलास मात्र से सम्पूर्ण जगत अनायास हीं उत्पन्न, स्थित, संचालित एवं आलोकित है।
इसमें हममे से किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि हम यदि कोई अपकर्म, विकर्म, कुकर्म या गर्हित कर्म करते हैं तो वह हमारे उसी सूक्ष्मवासना (दुर्भावना या अभावना) की स्थूल अभिव्यक्ति है जिसे हमने कामना के अधीन मोहवश या प्रमादवश इतना आदर दिया कि उसे हीं हमने अपना कर्तव्य कर्म समझ लिया। इस प्रकार हम स्वयं हीं स्वयं के शत्रु बन बैठे। इसी का निरूपण भगवान् ने गीताजी में अर्जुन को निम्नोक्तरूपेण समझाया है जब अर्जुन उनसे पूछते हैं
कि हे केशव! मनुष्य जानते हुए एवं न चाहते हुए भी पापकर्म कैसे कर बैठता है?
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरूषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
(२/३६)
भगवान् कहते हैं-
अर्जुन मनुष्य का विवेक अज्ञान से ढ़के रहने के फलस्वरूप वह यथार्थबोध से बंचित रहता है। ठीक उसी तरह जिस तरह धूम अग्नि को, धूल दर्पण को अथवा जेर गर्भ को आच्छादित किये रहता है। इसका परिणाम यह है कि वह रजोगुण से उद्भूत काम और क्रोध जो प्रकृति से हीं रजोभक्षी या पापभक्षी (बहुत ही खानेवाला-महापापी) है, के वश में अपना हीं अनिष्ट कर डालता है;अतः इसे हीं तुम अपना वैरी समझो।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।
(२/३७)
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम।।
(२/३८)
आत्मनिरीक्षण हमें उपरोक्त श्लोकों का वास्तविक बोध कराने में सहायक हो सकता है। एक तरह से यह स्वयं को स्वयं का मित्र बनाने का अमोघ साधन है। यह हमें अपनी कमजोरियों को पहचानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शर्त यह है कि हम अपना निरीक्षण अपने क्रियाकलापों का पक्षपातरहित विश्लेषण कर करें; तभी यह लाभदायक होगा अन्यथा अपने आप को यदि clean chit देने की आदत हो तब इसका कोई विशेष लाभ मेरी समझ में नहीं है। वैसी स्थिति में आत्मनिरीक्षण एक प्रलाप भर है जिसकी परिणति आत्मप्रवंचना में होती है। यह अनिष्टकारी भी हो सकता है।
दिनभर में किससे कैसा व्यवहार रहा, कब अपने रूक्ष, परूष एवं कठोर वचनों से किसे आहत किया, कब किससे छल किया, कब प्रपंच का आश्रय लिया, क्रोध के समक्ष कब स्वयं को असहाय पाया और क्रोधावेश में कब किसे क्या-क्या कह डाला, कब अपने कर्तव्यों को लोभ, प्रमाद एवं आलस्य से पराजित पाया, सामर्थ्य एवं इच्छा के होते हुए किसी जरूरतमंद की सहायता कौन से बहाने के तहत नहीं किया इत्यादि इत्यादि;ये सभी आत्मनिरीक्षण के विषयवस्तु हैं जो आत्मनिरीक्षण के समय स्पष्ट हो जाना चाहिए ताकि इसकी पुनरावृत्ति पर कम से कम नियंत्रण तो सम्भव हो हीं सके।
इसी तरह यह भी देखना चाहिए कि दिन में धर्म और परोपकार के कोई कार्य हुए भी हैं या नहीं। यदि हुए हैं तो क्या अभिमान(अहंकार)अथवा बखान के साथ? इत्यादि। प्रभुस्मरण कब कब हुआ, स्वार्थ या संकटवशात तो ये हो हीं जाता है, यह प्रेमवश हुआ या नहीं;महत्वपूर्ण यह है। यह हमारे चित्त को आह्लादित करेगा।
जिस प्रकार कोई उपर का अधिकारी किसी कार्यालय का समय-समय पर निरीक्षण इस उद्देश्य से करता है कि कार्यालय का कामकाज सही तरीके से हो रहा है या नहीं, कहीं कोई त्रुटि है तो उसमें सुधार हेतु कार्यालय प्रधान को सुझाव या हिदायत देता है।उसी तरह हम सभी को अपना आत्मनिरीक्षण भी इसी उपर के अधिकारी की भांति ही करना चाहिए और स्वयं को अपनी गलतियों एवं प्रमाद के लिए माफ नहीं करना चाहिए भले ही परमेश्वर ने हमें माफ कर दिया हो। स्वयं को माफ नहीं करने का सरलतम साधन मेरे विचार से यही है कि हम उस गलत कार्य जिसे हमने क्रोध, लोभ या लिप्सावश कर दिया उसे सदैव याद रखें। किन्तु हम इतना भी नहीं कर पाते हैं और पुनः सारे वादे-इरादे भूल फिर उसी दलदल में अपना ठिकाना ढूंढने लगते हैं और चेतते तभी हैं जब भारी नुकसान हो चुका होता है।
आत्मनिरीक्षण का अभ्यास हमारे शुभसंकल्पों को दृढ़ता प्रदान करता है। गलती की पुनरावृत्ति की सम्भावना निरंतर अभ्यास से क्षीण होती चली जाती है। जीवन संतोषमय और इस प्रकार उत्तरोत्तर सुखमय होता चला जाता है। इसकी तुलना सहस्रों स्वर्णमुद्राओं से भी नहीं की जा सकती जिससे आज या कभी का भौतिक जगत हमारे जीवन की सार्थकता को तौलता है।
अपना अपना पैमाना! क्या कहा जाए, यही कि सब सही है क्योंकि सभी के भीतर तो वही है।
एक बात कहना अंत में आवश्यक है। वह यह कि उपरोक्त विचार विन्दु जो स्वयं द्वारा लिखा गया है, का उद्देश्य स्वयं को हीं स्मारित करना है। यदि दूसरे को भी ये किंचित प्रेरित करे तो यह लेखन अपने परम उद्देश्य को प्राप्त कर लेगा। बांकि यदि यह उपदेश है तो अपने हीं लिए है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
१३.०५.२०१९
जानकी नवमी.
आइए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि आत्मनिरीक्षण है क्या और इसे किस प्रकार करना हमारे लिए लाभदायक हो सकता है।
आत्मनिरीक्षण काम, क्रोध तथा लोभ की उत्ताल तरंग रुपी समुद्र में हिचकोले खाती जीवनरुपी नैया के लिए एक पतवार से कम नहीं है। यह अपने-आपको अपने- आपसे देखना है जिसका उद्देश्य निजदोषदर्शन तथा उसका निवारण है। इसका आश्रय लेकर व्यक्ति भगवद्कृपा से विषम से विषम परिस्थिति में भी अपना मार्गदर्शन स्वयं कर पाने में सफल हो जाता है।
होता यह है कि किसी व्यवस्था (system) का संचालन बिना किसी monitoring के होते रहने से कालक्रम में उसमें बहुत से दोष एवं दुर्गुण अपना डेरा जमा लेते हैं। अंततः ये दोष या दुर्गुण इतने विकराल हो जाते हैं कि वे उस तंत्र को हीं तिरोहित कर देते हैं।यह हम सभी अनुभव से जानते हैं। फिर हमारा यह जीवन तंत्र तो स्वयं में अथाह है जिसकी सम्यक समझ यदि अंतकाल तक में भी हो जाय तो इसे एक महान उपलब्धि हीं कहा जायेगा। हमारे मन मष्तिष्क में क्षण-प्रतिक्षण असंख्य सूक्ष्म भाव उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। उसमें कई तो शुभकारी, कल्याणकारी, प्रेरणादायी तथा आनन्ददायी होते हैं किन्तु कोटिशः भाव ऐसे भी उत्पन्न होते रहते हैं जो हमारे लिए अशुभ, अमंगलकारी एवं विनाशक होकर अनर्थ के हेतुरूप सिद्ध होते हैं। इन भावों की उत्पत्ति कोई अस्वाभाविक नहीं है;कारण यह सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीर है हीं त्रिगुणात्मक जहां तीनों भाव यथा सत्व, रज और तम का निवास है।
आत्मनिरीक्षण तटस्थ होकर अपने भीतर उत्पन्न एवं विलीन हो रहे इन सूक्ष्म भावों को द्रष्टा के रूप में देख कर उन्हीं भावों को आदर देना है तथा उन्हें हीं पुष्पित एवं पल्लवित करना है जो हमारे भीतर शुभ ऊर्जा का संचार करते हों, आलस्य को तिरोहित करता हो, दूसरे के अहितचिंतन से हमें रोकता हो, कर्तव्य कर्म पर आरूढ़ रहने के लिये प्रेरित करता हो तथा क्षण-प्रतिक्षण उस परमसत्ता का अनुभव कराता हो जिसके भृकुटी विलास मात्र से सम्पूर्ण जगत अनायास हीं उत्पन्न, स्थित, संचालित एवं आलोकित है।
इसमें हममे से किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि हम यदि कोई अपकर्म, विकर्म, कुकर्म या गर्हित कर्म करते हैं तो वह हमारे उसी सूक्ष्मवासना (दुर्भावना या अभावना) की स्थूल अभिव्यक्ति है जिसे हमने कामना के अधीन मोहवश या प्रमादवश इतना आदर दिया कि उसे हीं हमने अपना कर्तव्य कर्म समझ लिया। इस प्रकार हम स्वयं हीं स्वयं के शत्रु बन बैठे। इसी का निरूपण भगवान् ने गीताजी में अर्जुन को निम्नोक्तरूपेण समझाया है जब अर्जुन उनसे पूछते हैं
कि हे केशव! मनुष्य जानते हुए एवं न चाहते हुए भी पापकर्म कैसे कर बैठता है?
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरूषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
(२/३६)
भगवान् कहते हैं-
अर्जुन मनुष्य का विवेक अज्ञान से ढ़के रहने के फलस्वरूप वह यथार्थबोध से बंचित रहता है। ठीक उसी तरह जिस तरह धूम अग्नि को, धूल दर्पण को अथवा जेर गर्भ को आच्छादित किये रहता है। इसका परिणाम यह है कि वह रजोगुण से उद्भूत काम और क्रोध जो प्रकृति से हीं रजोभक्षी या पापभक्षी (बहुत ही खानेवाला-महापापी) है, के वश में अपना हीं अनिष्ट कर डालता है;अतः इसे हीं तुम अपना वैरी समझो।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।
(२/३७)
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम।।
(२/३८)
आत्मनिरीक्षण हमें उपरोक्त श्लोकों का वास्तविक बोध कराने में सहायक हो सकता है। एक तरह से यह स्वयं को स्वयं का मित्र बनाने का अमोघ साधन है। यह हमें अपनी कमजोरियों को पहचानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शर्त यह है कि हम अपना निरीक्षण अपने क्रियाकलापों का पक्षपातरहित विश्लेषण कर करें; तभी यह लाभदायक होगा अन्यथा अपने आप को यदि clean chit देने की आदत हो तब इसका कोई विशेष लाभ मेरी समझ में नहीं है। वैसी स्थिति में आत्मनिरीक्षण एक प्रलाप भर है जिसकी परिणति आत्मप्रवंचना में होती है। यह अनिष्टकारी भी हो सकता है।
दिनभर में किससे कैसा व्यवहार रहा, कब अपने रूक्ष, परूष एवं कठोर वचनों से किसे आहत किया, कब किससे छल किया, कब प्रपंच का आश्रय लिया, क्रोध के समक्ष कब स्वयं को असहाय पाया और क्रोधावेश में कब किसे क्या-क्या कह डाला, कब अपने कर्तव्यों को लोभ, प्रमाद एवं आलस्य से पराजित पाया, सामर्थ्य एवं इच्छा के होते हुए किसी जरूरतमंद की सहायता कौन से बहाने के तहत नहीं किया इत्यादि इत्यादि;ये सभी आत्मनिरीक्षण के विषयवस्तु हैं जो आत्मनिरीक्षण के समय स्पष्ट हो जाना चाहिए ताकि इसकी पुनरावृत्ति पर कम से कम नियंत्रण तो सम्भव हो हीं सके।
इसी तरह यह भी देखना चाहिए कि दिन में धर्म और परोपकार के कोई कार्य हुए भी हैं या नहीं। यदि हुए हैं तो क्या अभिमान(अहंकार)अथवा बखान के साथ? इत्यादि। प्रभुस्मरण कब कब हुआ, स्वार्थ या संकटवशात तो ये हो हीं जाता है, यह प्रेमवश हुआ या नहीं;महत्वपूर्ण यह है। यह हमारे चित्त को आह्लादित करेगा।
जिस प्रकार कोई उपर का अधिकारी किसी कार्यालय का समय-समय पर निरीक्षण इस उद्देश्य से करता है कि कार्यालय का कामकाज सही तरीके से हो रहा है या नहीं, कहीं कोई त्रुटि है तो उसमें सुधार हेतु कार्यालय प्रधान को सुझाव या हिदायत देता है।उसी तरह हम सभी को अपना आत्मनिरीक्षण भी इसी उपर के अधिकारी की भांति ही करना चाहिए और स्वयं को अपनी गलतियों एवं प्रमाद के लिए माफ नहीं करना चाहिए भले ही परमेश्वर ने हमें माफ कर दिया हो। स्वयं को माफ नहीं करने का सरलतम साधन मेरे विचार से यही है कि हम उस गलत कार्य जिसे हमने क्रोध, लोभ या लिप्सावश कर दिया उसे सदैव याद रखें। किन्तु हम इतना भी नहीं कर पाते हैं और पुनः सारे वादे-इरादे भूल फिर उसी दलदल में अपना ठिकाना ढूंढने लगते हैं और चेतते तभी हैं जब भारी नुकसान हो चुका होता है।
आत्मनिरीक्षण का अभ्यास हमारे शुभसंकल्पों को दृढ़ता प्रदान करता है। गलती की पुनरावृत्ति की सम्भावना निरंतर अभ्यास से क्षीण होती चली जाती है। जीवन संतोषमय और इस प्रकार उत्तरोत्तर सुखमय होता चला जाता है। इसकी तुलना सहस्रों स्वर्णमुद्राओं से भी नहीं की जा सकती जिससे आज या कभी का भौतिक जगत हमारे जीवन की सार्थकता को तौलता है।
अपना अपना पैमाना! क्या कहा जाए, यही कि सब सही है क्योंकि सभी के भीतर तो वही है।
एक बात कहना अंत में आवश्यक है। वह यह कि उपरोक्त विचार विन्दु जो स्वयं द्वारा लिखा गया है, का उद्देश्य स्वयं को हीं स्मारित करना है। यदि दूसरे को भी ये किंचित प्रेरित करे तो यह लेखन अपने परम उद्देश्य को प्राप्त कर लेगा। बांकि यदि यह उपदेश है तो अपने हीं लिए है।
राजीव रंजन प्रभाकर.
१३.०५.२०१९
जानकी नवमी.
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