कविकुलतिलक तुलसीदास

तुलसीदासजी को कौन नहीं जानता। तुलसी के कृतित्व पर कोई टीका या टिप्पणी सूर्य को दीपदर्शन कराना हीं है।
भगवान् राम के अनन्य भक्त तुलसीदास थे तो मूलतः कथावाचक जो अपनी जीविका रामकथा कहकर चलाया करते थे, किन्तु भगवान् की कृपा देखिये कि उन्हें वह सब प्राप्त हो गया जो जन्म जन्मान्तर तक की असीम साधना से भी प्राप्त नहीं होता। वे रातोंरात एक ऐसे कवि बन गये जिनकी रचना को उत्तर भारत में प्रायः घर घर में प्रतिष्ठित भगवान् के आसन का सान्निध्य प्राप्त है।
महादेव शंकर की कृपा से उनमें कवित्वशक्ति का स्फुरण हुआ और उन्होंने लोकविश्रुत एक ऐसे ग्रंथ की रचना कर डाली जिसे वेदतुल्य प्रतिष्ठा एवं श्रद्धा प्राप्त है। आशय रामचरितमानस से है जो न केवल काव्य के समस्त गुण और प्रभाव से परिपूर्ण है बल्कि तुलसी ने उसे अपने सूक्ष्मदर्शिनी तथा सारग्राहिणी बुद्धि, ज्ञान, भक्ति और नीति से कदम- कदम पर भावपूर्ण ढंग से सींच कर सजीव कर दिया गया है जो अप्रतिम है। यूं हीं नहीं विद्वानों ने तुलसीदासजी को कलिकाल का वाल्मीकि कहा है। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि वाल्मीकिरामायण के पारायण से वह भाव उदित नहीं होता है जो रामचरितमानस के पाठ मात्र से सहज ही हो जाता है। भाव की उच्चता रामचरितमानस में हीं है।
मानस के पाठ से जो भाव, भक्ति एवं ज्ञान का सहजता से उदय होता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। विशेषकर वे लोग जो विद्वतारूपी रोग से ग्रसित नहीं हैं तथा चित्तशुद्धि के लिये एक सरल, सुबोध साधन की चाहना रखते हैं, के लिये रामचरितमानस परमानन्द का स्त्रोत है।
जहां तक तुलसीदासजी के व्यक्तित्व का प्रश्न है, उनके कृतित्व से हीं उनके व्यक्तित्व का बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।
भगवान् राम के प्रति उनकी निर्भरा भक्ति एवं तत्वज्ञानसम्पन्नसंत होने का पता तो रामचरितमानस के पाठमात्र से हो जाता है किन्तु अन्य कृतियों से यह भी अनुमान होता है कि तुलसी शायद अक्खड़ प्रकृति के रहे होंगे। अपने आप को तुलसी सांसारिक बंधन से कदाचित् मुक्त कर चुके थे तभी तो वे लोकव्यवहार के प्रति निरपेक्ष हो चुके थे।
कवितावली में वे स्वयं के बारे में बताते हैं-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहूकी बेटीसों, बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको, रूचै सो कहै कछु ओऊ।
मांगि कै खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ।। (कवितावली, उत्तरकांड,106)
चाहे कोई धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे;राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से सम्पर्क रखकर उसकी जाति हीं बिगाड़ूंगा। तुलसीदास तो श्रीरामचंद्र का प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रूचे सो कहो। मुझको तो मांग के खाना और मस्जिद(देवालय) में सोना है ;न किसी से एक लेना है न दो देना है।
तुलसी आगे कहते हैं-
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको।
(कवितावली, उत्तरकांड,107)
(कोई मेरे काम का नहीं है और न मैं किसी के काम का हूँ।
ठीक हीं है जिसने वास्तव में अपना नाता श्रीरामचन्द्र से जोड़ लिया हो उसके लिये सांसारिक रिश्ता का क्या मोल? ऐसा व्यक्ति अक्खड़ हो तो क्या आश्चर्य!
राजीव रंजन प्रभाकर.
29.05.2019 

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