ईश्वर और उसकी सत्ता

जब भी ऐसी कोई चर्चा होती है प्रायः एक न एक कोई बड़़े जोश में यह कहते मिल हीं जाते हैं कि "मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, इस दुनिया में भगवान या भगवान् जैसा कुछ भी नहीं है", इत्यादि.वे ऐसे अनेक उदाहरण भी लगे हाथ दे देते हैं कि फलां को देखिये वे कितने महान थे, सारा देश/विश्व में उनकी कीर्ति है, प्रसिद्धि है परन्तु वे घोर नास्तिक थे.
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          ऐसे लोगों के लिए विज्ञान हीं सब कुछ है. अगर विज्ञान जीवन जीने का आधार बने तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकता है! हमारा संविधान भी तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अनुमोदन करता ही है. लेकिन यहाँ कहने की ये आवश्यकता महसूस होती है कि ये विज्ञान, ये संविधान इत्यादि सभी मनुष्य की रचना है.
और मनुष्य किसकी रचना है? क्या इसे विज्ञान की रचना कहा जाय या संविधान की या फिर प्रकृति की? और अगर इसे प्रकृति की रचना हम कहते हैं तो फिर प्रकृति जो सूरज,चांद,पृथ्वी,वृक्ष,पर्वत, नदी,समुद्र, समस्त चराचर जगत,-जड़-चेतन में व्यक्त है, किसकी रचना है? 
           वह परम रचयिता हीं तो ईश्वर है जिसकी सत्ता को नास्तिक अस्वीकार करता है. हम यदि आंख मूंद लें तो सूरज का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा?  गोल-गोल में घूम रहे बालक को यदि उसके चारों ओर के घर-मकान आदि भी घूमते नजर आये तो क्या मान लिया जाए कि वे घर मकान भी वास्तव में घूम रहे हैं? 
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            यह बात बिलकुल ठीक है कि ईश्वर को मानने या न मानने पर किसी का कोई जोर बिल्कुल नहीं होना चाहिए.इस पर बहस करना कि कोई कहे कि ईश्वर नहीं है और कोई उसे प्राणपन से सिद्ध करता रहे, बेकार और फालतू है.यह व्यर्थ का श्रम है.विचार करके देखा जाय तो दोनों हीं स्थितियों में हम उसी सत्ता से उर्जान्वित होकर दो परस्पर विरोधी मान्यताओं को सिद्ध करने में अपने श्रम का दुर्विनियोग करते हैं.उस सत्ता को आप ईश्वर कहें या स्वयं का सामर्थ्य, मर्जी अपनी/आपकी.अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार सभी स्वयं को चलने-चलाने के लिए स्वतंत्र हैं.
            देखा जाय तो ईश्वर स्वयं का हीं अंतिम एवं अनन्त विस्तार है। यह 'स्वयं' कोई भी चेतन हो सकता है मनुष्य,पशु, देवता, दैत्य इत्यादि। फिर वैसे व्यक्ति की बात हीं क्या जो आस्तिक या नास्तिक की उपाधि धारण किए हों.ये तो उस सत्ता से उत्पन्न माया है जिसकी मल और विक्षेपकारिणी शक्ति के प्रभाव से हम ऐसा सोचते हैं.
                                यहां तक कि जिसे हम जड़ कह कर खारिज कर देते हैं उसमें भी चेतना का वास है.इसका अनुभव अपने आप को उस स्तर तक विस्तारित जिन्होंने किया है, उन्हें हीं हुआ है.तभी तो पिता द्वारा पूछे जाने पर कि बता तुम्हारा भगवान् कहां है, भक्त प्रह्लाद ने दृढ़ता से कहा कि पिताजी! इस खम्भे में जिससे आपने मुझे बांध रखा है, में भी भगवान् है।
              मेरे कहने का अभिप्राय ये है कि हम जिस रूप में ईश्वर को देखना चाहते हैं या नहीं देखना चाहते हैं, वे वैसा हीं दिखते हैं या नहीं दिखते हैं.इसमें उनका(उस सत्ता का) कोई आग्रह नहीं है। उनका आग्रह भला हो भी क्या सकता है, आग्रह या दुराग्रह तो अपना हीं है.
श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों का भावपूर्वक मनन से उपरोक्त का अनुसन्धान सुगमता से सम्भव है.
ईश्वरः सर्वभूतानां ह्रद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्ररूढानि मायया।। (१८/६१)
सोच लीजिए जब वह आपके ह्रदय में बैठ कर अपनी माया से आपको हीं नचा रहा है तो जगत तो नाचता दिखेगा हीं। वेग से घूर्मित व्यक्ति को अपने चारो ओर सब कुछ घूर्मित/घूर्णित हीं प्रतीत होगा.यही तो इस जग में जीव की गति है। इसलिए अज्ञानतारूपी ज्वर से पीड़ित कोई स्वयं को आस्तिक कहेगा तो कोई नास्तिक, कोई भक्त कहेगा तो कोई योगी तो कोई ज्ञानी.मतलब कि ये सभी उपाधि जीव की है, स्वयंप्रकाश के अधिष्ठान का इससे क्या प्रयोजन! वह तो एक साथ हीं निर्गुण-निराकार तथा सगुण-साकार दोनों है.निर्भर करता है कि आपकी रूचि और स्वभाव क्या है जो आपको उसे उस रूप में देखने को प्रेरित करती है.
गोस्वामी तुलसीदासजी रचित रामचरितमानस का प्रसंग लीजिए जब सीयस्वयम्बर समारोह में चारों दिशाओं से आगत राजागण अपनी-अपनी प्रकृति और रूचि के अनुरुप दशरथनंदन श्रीराम में क्या-क्या रूपदर्शन कर रहे थे.बड़ा हीं अद्भुत वर्णन है.सज्जन को श्रीराम सुह्रृद तो कुटिल को वे साक्षात कालरूप दिखे.वीर उनमें महावीर के दर्शन कर रहे थे। राजा जनक को वे परमात्मीय कुटुम्ब लग रहे थे.रानी को स्नेह इतना कि राम को वे निरा बालक समझ इस हेतु अपने परिजन को उलाहना देने लगी कि कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं कि जब वाणासुर और रावण जैसे वीर धनुष की गुरूता को देख चुपके से खिसक लिये तो फिर ये बालक को क्यों इसमें नियोजित किया जा रहा है? क्या राजा जनक सहित सभी मेरे हित मीत की मति मारी चली गई है? अर्थात् सभी अपनी-अपनी रुचि, मति और प्रकृति के अनुरूप भगवान् का दर्शनलाभ प्राप्त कर रहे थे. राम तो जो थे वही थे.
जा के रही भावना जैसी प्रभु मुरति देखहिं तिन तैसी।
एकोऽहं बहु स्याम्।
अतः भगवान् आपके हीं प्रतिबिंब हैं।
आप भजन - कीर्तन या पूजा-अर्चना मूलतः अपने स्वार्थ के लिए हीं करते हैं.यह स्वार्थ लौकिक हितसाधन को सुगम बनाने अथवा अलौकिक कामना(मोक्ष-प्राप्ति) से प्रेरित हो सकता है.यदि भाव उच्च स्तर का है तो यह उनकी प्रसन्नतामात्र के लिए होता है.लेकिन इसमें उनका कोई प्रयोजन नहीं है सिवा इसके कि जो उनको जिसरूप में भजता है वे भी उसे उसीरूप में भजते हैं.तांस्तथैव भजाम्यहम.
समुद्र में यदि हम बाहर से लाकर एक लोटा पानी डाल दें अथवा एक लोटा पानी निकाल लें, भला प्रशान्त एवं अनन्त विस्तार वाले सागर को इससे क्या लाभ या हानि हो सकती है! ये लाभ- हानि या श्री-श्रम या उद्योग अपना ही है जो भावनानुसार हमें फलरूप में अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार मिलता है. सारे सात्विक कर्म हम अपने हीं चित्तलालन या चित्तशुद्धि के निमित्त करते हैं।
इन श्लोकों के अनुशीलन से उपरोक्त को और स्पष्ट किया जा सकता है-
समोऽहं सर्वभूतेषु न में द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम।
                                                           (९/२९)
भगवान् समानरूप से सभी जड़ चेतन में बसते हैं उनका न तो कोई द्वेष्य है न कोई प्रिय। यह हमारी भावना है जिसके फलस्वरूप वे वैसा दिखते हैं। उनका कहना मात्र इतना है कि जो उन्हें भक्तिपूर्वक भजता है वह(भक्त) उनमें है और वे भी उस(भक्त) में हैं.इससे अधिक क्या हो कि वे कहें कि मैं तुझमें हूँ.अपने पौरूष को अपने रूचि अनुसार भक्ति, ज्ञान अथवा कर्मरूपी अनासक्त साधन से पुरुषोत्तम के दर्शन किये जा सकते हैंं.
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रृणु।। (१८/४५)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। (१८/४६)
दिक्कत यह है कि हम उन्हें महसूस कम देखना ज्यादा चाहते हैं.इस चर्मचक्षु से यह सम्भव नहीं है.इसके लिए यदि उनकी कृपा हो तभी सम्भव है;जैसा कि यह अर्जुन के लिए सम्भव हो सका जब उसके चर्मचक्षु दिव्यचक्षु में बदल गये और वह चतुर्भुजरूप भगवान् के दर्शन पा सका.यह न अध्ययन से न दान से न यज्ञ से साध्य है.अगर सम्भव है तो मात्र उनके कृपाप्रसाद से.इसलिए जबतक ऐसी कृपा का योग बने तब तक उसे सभी जड़ चेतन में महसूस करना सीखें.क्या माला के सूत्र जिसमें मोती या रत्न पिरोये हुए रहते हैं आसानी से दिख जाते हैं और यदि वे नहीं दिखते हैं तो क्या धागा को हम उस माला से अनुपस्थित मान लेते हैं?
इसी अनमोल ग्रंथ का एक और श्लोक लिजिए
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। (७/७)
सर्वाधिष्ठान ईश्वर के अतिरिक्त और भी कोई आधार है? भला सोचिये!
राजीव रंजन प्रभाकर
२२.०५.२०१९.

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