दशरथनंदन श्रीराम का किशोरावस्था में हीं संसार से विमुख होना और कुलगुरू वशिष्ठ का उन्हें उपदेश(संक्षिप्त योगवाशिष्ठ)

उपोद्घात-
प्रसंग योगवाशिष्ठ से लिया गया है।बल्कि यदि कहें तो योगवाशिष्ठ में वर्णित कथाभाग को बाद करते हुए  तात्विक ज्ञान का निरूपण जो सर्वारम्भपरित्यागी श्रीराम और ब्रह्मापुत्र इक्ष्वाकुकुलगुरू श्रीवशिष्ठजी के मध्य हुआ है, का हीं संक्षेपण करने का प्रयत्न किया गया है।भाव एवं तथ्य में कहीं मानक पाठ से भ्रमकारी अंतर न हो जाय इससे बचने के लिए कहीं कहीं तो योगवाशिष्ठ जो गीताप्रेस से प्रकाशित है, में उक्त वार्ता के अंश को अविकल तथा यथावत रख दिया गया है। यह प्रयत्न अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सका है अथवा नहीं निश्चयपूर्वक कहना कठिन है किन्तु इतना जरूर निवेदन करने की इच्छा है कि इसमें यदि किन्हीं सुधी जन को पढ़ने के अनन्तर कुछ अच्छा लगे तो वह श्रीराम की कृपा है और इसमें जो भी वर्णन दोष है उसका एकमात्र हेतु मेरी अनधिकार चेष्टा है जो इस गूढ़ विषय पर मैने हाथ आजमाने की धृष्टता की है।
प्रसंग - १
दशरथनंदन श्रीराम का राजा दशरथ के समीप जाकर तीर्थयात्रा हेतु अपनी अभिलाषा को प्रकट करना
अयोध्यानरेश राजा दशरथ अपने चारो पुत्रों को हंसते, खेलते तथा इस प्रकार बढ़ते देख फूले नहीं समाते।बाल्यकाल से पौगण्डकाल की उनकी चपलता वृद्ध हो चले नरेश के लिए संजीवनी से कम नहीं थी। जीवन के आनंद की सीमा नहीं रही। विद्याध्ययन के पश्चात उनके चारो रूप, गुण, शीलसम्पन्न पुत्र को देख समस्त परिजन एवं पुरजन आह्लादित होते रहते। विशेषकर किशोरावस्था को प्राप्त राजा के ज्येष्ठपुत्र कौशल्यानन्दन कमलनयन श्रीराम का आचरण, शील एवं स्वभाव नरेश एवं उनकी प्रजा को अत्यंत आनंदित करता। 
एक दिन की बात है, राज्यहित में सतत चिंतनशील आमात्य एवं पार्षद के साथ नरेश सभा में रत्नमंडित सिंहासन पर विराजमान थे।उनके पार्श्व में हीं स्थित उच्च आसन को कुलगुरू वशिष्ठ सुशोभित कर रहे थे। उस समय नरशार्दूल दशरथ अपने दरबार में इस तरह शोभायमान हो रहे थे जैसे देवेन्द्र अमरावती में।
सभा के संदर्भ में इतना कहना पर्याप्त होगा कि पुरुषार्थ अपने समस्त विग्रहसहित मूर्तिमान होकर राजा दशरथ के दरबार की शोभा बढ़ा रहा था।
इसी समय दरबार में श्रीराम उपस्थित हुए तथा विनयपूर्वक गुरूजनों एवं पिता के चरणों में प्रणाम कर खड़े रहे। पिता राजा दशरथ ने स्नेहपूर्ण दृष्टि से उन्हें देखकर उनका मस्तक सूंघा और पुत्र को अपने पार्श्व में बैठाकर उनसे पूछा, "मेरे प्राण राम! तुम अपने भाइयों एवं इष्ट मित्र सहित सदैव प्रसन्न रहो। पुत्र! इस समय तुम्हारे सभा में आगमन का कोई विशेष प्रयोजन हो तो बताओ।"
कमलनयन श्रीराम ने कहा, "पिताजी! यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उस पिता का पुत्र हूं जिनके लिए अदेय कुछ भी नहीं है। मुझे यह भी प्रत्यक्ष अनुभव है कि कोई विशेष कारण न होते हुए भी मेरे प्रति आपका स्नेह किंचित विशेष है। पिताजी मैं जगत से साक्षात्कार करना चाहता हूं।मेरे स्वामी महाराज! मेरे मन में तीर्थों, देवमंदिरों, वनों तथा आश्रमों का दर्शन करने के लिए बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। आपके समक्ष मेरी यह पहली याचना है।"
प्रसंग-२
पिता नरेश दशरथ का पुत्र को तीर्थयात्रा की आज्ञा प्रदान करना और राजकुमार श्रीराम की यात्रा
नरेश एक क्षण के लिए मौन हो गये। फिर कुलगुरू वशिष्ठ की तरफ उन्मुख हुए। कुलगुरू ने कहा," राजन! इसमें बहुत सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं है। आपको अपने ज्येष्ठपुत्र श्रीराम की इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए। वैसे भी गुरूगृह में प्राप्त शिक्षा के अनन्तर देश एवं तीर्थ भ्रमण से मनुष्य के अनुभवरुपी सम्पदा में अभिवृद्धि होती है। फिर राम तो राजपुत्र हीं हैं, उन्हें तो इसका अनुभव होना हीं चाहिए।"
कुलगुरू से परामर्शित महाराज ने श्रीराम को सहर्ष आज्ञा दे दी।
शुभ नक्षत्र और शुभ दिन में ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया, माताओं ने आशीर्वाद दिये, पिता ने मस्तक सूंघा और इस तरह श्रीराम ने अपने इष्ट मित्र एवं शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को साथ लेकर तीर्थ दर्शन हेतु राजभवन से अपनी यात्रा आरंभ किया।
उन्होंने उज्ज्वल आभावाली गङ्गा, निर्मल कालिन्दी, सरस्वती, शतद्रू(सतलज),चन्द्रभागा(चिनाब), इरावती(रावी), वेणी, कृष्णवेणी, निर्विन्ध्या, सरयू, चर्मण्वती(चम्बल), वितस्त(झेलम), विपासा(व्यास), बाहुदा(राप्ती), प्रयाग, नैमिषारण्य, धर्मारण्य, गया, काशी, श्रीशैल, केदारनाथ, पुष्कर, मानसरोवर सहित  समस्त देश- प्रदेश, परती-प्रान्तर, मरु-गिरि-कानन, नद-नदी-सागर, पुर-तीर्थ-महातीर्थ समुदाय, कुण्ड-सरोवर का स्नान, दान, तप और ध्यानपूर्वक-आदरपूर्वक दर्शन किया।
जैसे देवता आदि से सम्मानित भगवान शंकर सम्पूर्ण दिशाओं में विहार कर के पुनः शिवलोक में लौट आते हैं, उसी प्रकार रघुनंदन श्रीराम देवता, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर आदि से सम्मानित हो अयोध्या लौट आये।
प्रसंग -
तीर्थयात्रा से प्रत्यागत होने पर रघुनंदन श्रीराम का उत्तरोत्तर अन्तरमुखी एवं शून्यचित्त होना और नरेश का यह देख चिंताकुल होना
अयोध्या लौटने के अनन्तर जो एक बात पुरवासी एवं प्रियजनों को उत्तरोत्तर स्पष्ट होती गयी वह यह कि श्रीराम क्रमशः अन्तरमुखी एवं एकान्तप्रिय होते चले गये। श्रीराम राजोचित राग-भोग एवं विनोद से विमुख होते जा रहे थे। तीर्थयात्रा पूरी करके इन दिनों अपने घर में रहते हुए श्रीराम दिनानुदिन कृश होने लगे।उनका मन बहुत उदास रहता।स्नान,अंगराग, आसन, भोजन,शय्या, सवारी, संगीत, विलासादि वस्तुओं के प्रस्तुत होने पर भी वे उनका अभिनन्दन नहीं करते।
राजा दशरथ श्रीराम की दिनचर्या में यह परिवर्तन देख अत्यंत दुःखी हो जाते। महाराज दशरथ श्रीराम से बारंबार स्नेहयुक्त मधुरवाणी में पूछते-'बेटा! तुम्हारे मन में कैसी बड़ी भारी चिंता पैदा हो गयी है?' वे उत्तर देते-'पिताजी मुझे कोई कष्ट नहीं है।' मात्र इतना कह श्रीराम मौन धारण कर लेते।
चिंताकुल नरेश एक दिन कुलगुरू वशिष्ठ से पूछ हीं बैठे-मुनिश्रेष्ठ! मुझे कौशल्यानन्दन राम की दशा देखी नहीं जा रही है। उनके चित्त में वैराग्य अपना डेरा जमाए जा रहा है, इससे मुझे बहुत घबराहट हो रही है। मुनिवर आप कुछ कीजिए।
वशिष्ठजी ने कुछ सोचकर राजा से कहा- महाराज! इसमें कुछ कारण हैं;किंतु इसके लिए आपके मन में दुःख नहीं होना चाहिये।'
प्रसंग -४
नृप के राजप्रासाद में तपोमूर्ति कुशिकनंदन विश्वामित्र का आगमन
इसी समय महर्षि विश्वामित्र अयोध्यानरेश के दरबार में उपस्थित हुए। तपोधन महामुनि का मुखमंडल नवोदित सूर्य के समान अपनी अरूणाभ लालिमा से प्रदीप्त था।
पार्षदों एवं सामन्तों से सेवित नरेश शीघ्रता से उठे और तुरंत हीं महर्षि विश्वामित्र की आगवानी कर अपने मुकुट मंडित मस्तक से उनके चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात वशिष्ठजी ने भी सभी वेदपारग ब्राह्मणों के साथ उनका स्वागत एवं अभिनंदन किया। दोनों ने बड़े हीं प्रसन्नता एवं आदर के साथ एक दूसरे का हंस कर आलिंगन किया तथा कुशलक्षेम की जानकारी ली।एक दूसरे के सम्पर्क में आने से उन सबके तेज बढ़ गये थे। दोनों के बीच पुरानी कटुता एवं वैर का स्थान बहुत पहले हीं परस्पर प्रेम और सम्मान ने ले लिया था।
मुनि को यथायोग्य आसन एवं अर्घ्य निवेदन के पश्चात राजा दशरथ बोले-'विप्रवर! यह मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे आप जैसे अद्वितीय ब्रह्मर्षि का दर्शन लाभ प्राप्त हुआ है।मुनिप्रवर! मुझे आज्ञा दीजिए इस समय आपकी क्या इच्छा है। निश्चय हीं उसे पूरा कर मुझे आत्यंतिक सुख प्राप्त होगा।
मुनि विश्वामित्र एक क्षण के लिए महाराज दशरथ के मुखारबिन्द को निहारते रहे। तदनन्तर प्रसन्नता से बोले, राजन! कोई याचक महाराज दशरथ के दरबार से कभी निराश लौटा हो यह अकल्पनीय है।आप ने जो कुछ कहा है वह रघुवंश की परम्परा और मर्यादा के अनुकूल हीं है। नृपश्रेष्ठ! इधर मैं एक यज्ञानुष्ठान कर रह हूं जिसमें मायावी राक्षस विभिन्न रुप में विघ्न डालकर मेरे यज्ञ को दूषित कर देते हैं। महाराज मेरी इच्छा है कि आप अपने ज्येष्ठपुत्र राम एवं रामानुज लक्ष्मण को कुछ काल के लिए मुझे सौंप दें ताकि निसचरों से मेरी यज्ञ की रक्षा हो सके और मैं अपना अनुष्ठान निर्विघ्न पूरा कर सकूं।
महर्षि विश्वामित्र के ये बचन सुन राजा की आंखों में अंधेरा छा गया। मुखमंडल विवर्ण हो गया, वाणी कुण्ठित हो गयी। मुनि के प्रति तुरन्त हीं मन मलीन हो चला। अप्रत्याशित याचना से रुष्ट राजा ने किंचित कुपित हो कहा - मुनिवर! आप जानते हैं कि मुझे पुत्रधन की प्राप्ति तब हुई है जब मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो रहा हूँ। मुझे मेरे प्राणप्रिय पुत्रों से अलग कर आप अपना यज्ञ पूरा करना चाहते हैं। मेरे प्राणप्रिय राम भी  इस किशोरवय में हीं न जाने क्यों राग-भोग से विमुख हो गये हैं। इसकी चिंता से मैं पहले हीं बहुत व्यथित और दीनता को प्राप्त हूं और अब मुनिवर आप मुझे कह रहे हैं कि मैं अपने इन पुत्रों को आपकी सेवा में अर्पित कर दूं जहां आपकी सेवा में मेरे वे पुत्र भीषण दैत्य और मायावी राक्षसों से लड़ अपना प्राण गंवा बैठें। याचना भी कुछ विचार कर किया जाता है। मुने! मेरे धर्मात्मा ज्येष्ठपुत्र श्रीराम को आप यहाँ से न ले जायं। यदि आपका अभीष्ट निशाचर सेना का नाश ही है तो मेरे साथ मेरी चतुरङ्गिणी सेना को ले चलिये।
नरेश के ये परुषवचन सुन तपोबल से ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त कर लेने वाले किन्तु जन्म से क्षत्रिय मुनि विश्वामित्र का मुखमंडल उसी प्रकार क्रमशः तप्त होता जा रहा था जिस प्रकार प्रातः कालीन सूर्य की उष्णता उग्र होने के पूर्व वर्धमान होती है।
मुनि ने प्रकटतः कहा-ककुत्स्थकुलोद्भव नरेश यदि तुम यही चाहते हो कि तुम्हारे पुत्र तुम्हारे हीं सेवा में लगे रह तुम्हें सुख पहुंचायें तो यही सही। मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं तुम्हें इस याचनाजन्य दुविधा से मुक्त करता हूं और मैं जहाँ से आया हूँ पुनः वहीं जा रहा हूँ। तुम्हारा कल्याण हो।
कुलगुरू वशिष्ठजी जो पार्श्व में हीं आसीन होकर राजा और मुनि विश्वामित्र के मध्य हो रहे वार्तालाप के मौन साक्षी थे, ने सहज हीं अनुमान कर लिया कि मुनि विश्वामित्र नरेश की बात से आत्यंतिक रूप से कुपित हो चुके हैं, फिर नरेश का मोहवश अपने वचनों से विमुख होना न केवल रघुवंश की परम्परा एवं मर्यादा के प्रतिकूल है अपितु यदि ऐसा हुआ तो वह धर्मविरूद्ध भी होगा। अतः उन्होंने हस्तक्षेप किया- 'राजन! मोहाविष्ट हो जो आप अभी जैसा कह चुके हैं वह आपके एवं आपकी कुल परम्परा के सर्वथा विपरीत है। मुनिवर विश्वामित्र दोएक राक्षस तो क्या सम्पूर्ण राक्षसकुल को समूल नाश करने में अनायास हीं समर्थ हैं। मुनिवर विश्वामित्र तपजन्य समस्त सिद्धि के विग्रह हैं।उनका एक शाप हीं विघ्नकर्ता यज्ञद्रोही राक्षस का नाश हेतु पर्याप्त है। और जहां तक शस्त्रास्त्र से उनके संहार का प्रश्न है तो कुशिकनंदन गाधिपुत्र के बारे में इस त्रिलोकी में कौन नहीं जानता कि वे समस्त शस्त्रविद्या एवं आयुध के आश्रय हैं। यदि मुनि की यह इच्छा है कि वे अपने मखरक्षा में रघुकुलभूषण राम-लक्ष्मण की सहायता प्राप्त करें तो निश्चय हीं यह मानना चाहिए कि इसमें परमेश्वर का कोई मंगलविधान छुपा है जो सकललोककल्याण का हेतु बनेगा। मुनिवर के साथ अपने पुत्रों को भेजकर आप उनकी रंचमात्र भी चिंता नहीं करें। इनके संरक्षण में आप अपने पुत्र को इनकी सेवा में लगाने से राजन आप कृतकृत्य हो जायेंगे; ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। इतना कह कुलगुरू वशिष्ठ ने पुनः मौनधारण कर लिया।
कुलगुरू वशिष्ठ के द्वारा समझाये जाने के बाद महाराज दशरथ की प्रज्ञा लौटी। उन्होंने अपने व्यथितभाव से कहे वचनों के लिए कौशिकमुनि से क्षमादान की याचना की। वातावरण पूर्ववत क्लेशरहित प्रसन्नता से आवृत हो गया।
तदनन्तर मुनि विश्वामित्र बोले, ' महाराज अभी आपने कहा कि आपके ज्येष्ठपुत्र श्रीराम राजसी राग भोग से विमुख होकर चित्तशून्य, संकल्परहित एवं एकान्तप्रिय हो गये हैं। इस अवस्था में उनका विषयविमुखगाम्भीर्य के संदर्भ में मैं उन्हें देख कर इसका कारण जानना चाहता हूं।'
मुनि का यह वचन सुन राजा हर्षित हुए तथा तत्काल हीं उन्होंनें मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र की प्रेरणा से अपने प्राणप्रिय श्रीराम को दरबार में बुला लाने हेतु सेवक को आज्ञा दी।
महाबाहु, महोरस्क, गूढ़जत्रु, नीलसंकाश श्रीराम सभा में उपस्थित हुए।उन्होंने पिता, गुरुजन कुलगुरू वशिष्ठ एवं मुनि विश्वामित्र के चरणों में प्रणाम कर सभी का आशीर्वाद प्राप्त किया। पिता महाराज दशरथ ने उनका मस्तक सूंघा और अपने पार्श्व में बिठाकर स्नेहपूर्वक पूछा- पुत्र राम! तुम्हें किस बात की चिंता है? तुम्हारा मन सदा शून्य में हीं क्यों स्थित रहता है? मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र स्वप्रेरणा से यहां पधारकर तुम्हें कुछ दिनों के लिए साथ लेने आये हैं।
महर्षि विश्वामित्र बोले, राजकुमार राम! हिलते हुए कमलसमूह के सदृश चंचलता जो तुम्हारे नेत्रों में दिख रही है वह तुम्हारे चित्त की व्यग्रता को सूचित करता है। पुत्र तुम्हारे जैसा बोधसम्पन्न यदि मोहित हो तो निश्चय हीं वह अकारण नहीं हो सकता है।
इसके बाद वशिष्ठजी ने कहा, निष्पाप राम! तुम बड़े शूरवीर हो। तुमने विषय भोग जो समस्त दुःख का उत्पादक है, पर विजय भी प्राप्त कर लिया है। क्या कोई जितेन्द्रीय भी व्यामोह का शिकार होता है जो तुम आत्मज्ञानशून्य अज्ञानी मनुष्य की भांति अपने क्षात्रोचित स्वभाव को त्याग निवृत्तिमूलक चेष्टा को प्राप्त हो रहे हो?
प्रसंग - ५
मुनिद्वय की प्रेरणा से श्रीरामचन्द्र का अपनी विषयविमुखता एवं चित्त की उद्विग्नता से सभा को अवगत कराना 
सुपूज्य मुनिद्वय द्वारा इस प्रकार प्रेरित होकर श्रीरामचंद्रजी कहते हैं- मुनीश्वर! मेरा जन्म सर्वैश्वर्यसम्पन्न राजप्रासाद में हुआ जहां मैं समस्त वैभव के मध्य बड़ा हुआ। यद्यपि मेरी सम्पूर्ण इच्छाओं को मेरे सर्वसमर्थ पिता महाराज दशरथ ने यत्नपूर्वक पूरा किया किन्तु समस्त देश प्रदेश एवं तीर्थ भ्रमण के अनन्तर मैने विचार कर जो देखा तो हस्तामलक सदृश यही स्पष्ट हुआ कि यह संसार असार है।
ब्रह्मन! यह जो संसार का विस्तार है, इसमें कुछ भी तो सुख नहीं है। भोग के जितने भी साधनभूत पदार्थ हैं वे सभी क्षणभङ्गुर, आपत्तियों के स्वामी तथा पापस्वरूप हैं। सभी व्यर्थ में हीं भोगरूपी भ्रमर में फंसे पड़े हैं। ये धन-वैभव मनुष्य को चिंताओं के समुद्र में डालने वाले होते हैं। ये मुझे आनन्द नहीं देते।
(धन-सम्पत्ति तथा आयु की निस्सारता एवं दुःखरूपता का वर्णन)
श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं- मुनीश्वर! यह धन सम्पत्ति मूढ़ मनुष्य के लिए ही उसके उद्योग का सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य है। धन-सम्पत्ति सुख देने के लिए नहीं दुःख देने के लिए बढ़ती है;जैसे विष की बेल सुरक्षित रखी जाय तो वह मौत ही देती है, उसी प्रकार धन-सम्पत्ति की रक्षा करने पर भी वह विनाश का हीं कारण होती हैं। यह भय और भ्रान्ति को उत्पन्न करने वाली, विषाद में अंततः वृद्धिकारक तथा वैराग्यरुपी लता के लिए ओले के समान है क्योंकि यह मनोरम भी है जिसके  कारण चित्त-वृत्ति को अपनी ओर खींच लेती है।
भगवन! इस अस्थिर आयु पर मेरा कोई भरोसा नहीं है। मूर्ख मनुष्य कष्ट उठाने के लिए हीं व्यर्थ आयु का विस्तार चाहता है। इस संसार-चक्र में जो देहरुपी लता है, यह सृष्टिरूपी समुद्र के जल का विकारभूत फेन मात्र है। अतः इसमें अधिक काल तक जीवित रहना भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यों तो वृक्ष भी जीते हैं, पशु और पक्षी भी जीवित रहते हैं, परन्तु वास्तव में उसी पुरूष का जीवन सफल है जिसका मन मनन के द्वारा जीवित न रहे अर्थात अमनीभाव को प्राप्त हो जाय। संसार में उन्हीं जीवों का जन्म लेना सफल है और जीना श्रेष्ठ है जो फिर यहां जन्म नहीं लेते। शेष प्राणी तो बूढ़े गदहों के समान हैं जो अधिक काल तक जीने पर भी उत्तम जीवन नहीं बिताते। वे इस अपवित्र देह को ही आत्मा मान विषयकीट बन विषयों में निमग्न हैं।
अविवेकी मनुष्य के लिए शास्त्रों का अध्ययन भार हीं है। विषयासक्त पुरूष के लिए तत्वज्ञान भार है। अशान्त मनुष्य के लिए मन भार है तथा जो आत्मज्ञान से शून्य हैं, उसके लिए शरीर भार है। जिसकी बुद्धि दूषित है, उस पुरुष के लिए रूप, आयु, मन, बुद्धि, अहंकार तथा चेष्टा - ये सभी उसी प्रकार दुःखदायी हैं जैसे बोझ ढोनेवाले मनुष्य के लिए उसके सिर का बोझ कष्टदायक होता है। यह आयु उसी तरह मृत्यु का ग्रास बन जाती है जिस प्रकार बिल्ली सदा चूहे की ताक में रह अवसर मिलते हीं उस पर प्रहार कर उसे अपना शिकार बना लेती है।
(अहंकार और चित्त के दोष)
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं -मुनिवर! अहंकार से हीं दुःखद मानसिक व्यथाएं उत्पन्न होती हैं। अहंकार शान्तिरूपी चन्द्रमा को निगलने के लिए राहु का मुख है, पुण्यरुपी कमलों का विनाश करने के लिए हिमरुप वज्र है। ऐसे अहंकार का मैं त्याग करता हूं। न मैं अमुक नामवाला हूँ, न विषयों में मेरी रूचि है और न मन हीं मेरा है। मैं शान्त होकर मन को जीतनेवाले महात्मा पुरुष की भांति अपने आप में हीं स्थित रहना चाहता हूँ।अहंकाररूपी बादल के फट जाने पर शान्ति का विनाश करनेवाला एवं ह्रदयाकाश में छाया हुआ महान मोहरुपी कुहासा विलीन हो जाता है।
मुने! यह अहंकार सभी अनर्थ का मूल है। यह मन की चंचलता एवं उद्वेग का हेतु है तथा चित्त को दूषित करता है। जैसे कुत्ता अपना पेट भरने के लिए व्याकुल हो गांव में दूर से दूरतक के घरों या स्थानों का चक्कर लगाया करता है, वही दशा इस चंचल मन की है। इसे कहीं भी कोई अनुकूल वस्तु प्राप्त नहीं होती। मनुष्य को धन का विशाल भंडार भी प्राप्त हो जाय तब भी उसे संतोष नहीं। जैसे बांस या बेंत की बनी हुई पिटारी कभी जल से नहीं भरती, उसी प्रकार धन से भी मनुष्य का जी नहीं भरता।
ब्रह्मन! जैसे मांसभक्षी पक्षी मांस पर टूट पड़ता है, उसी प्रकार मन भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध होनेवाले विषयों की ओर दौड़ पड़ता है। जैसे बालक पहले तो खिलौने की ओर ललकता है, उसी तरह यह मन भी प्राप्त हुए विषय से क्षण भर में ही विरत हो जाता है अर्थात नये- नये विषय की खोज करने लगता है। इसलिए भगवन! मैं तीव्र वैराग्य-सम्पत्ति से युक्त होने के जड़ और मलिन विलासवाली लक्ष्मी का अभिनन्दन नहीं करता।
(तृष्णा की निन्दा)
श्रीरामचंद्र बोले- मुनिश्वर! तृष्णा एक पागल घोड़ी है जो दूर-दूर जाकर बारम्बार लौट आती और तुरंत ही सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर काटने लगती है। वह एक काली नागिन जैसी है। इसकी गति कुटिल है एवं यह मनुष्य को दीन बनाती है।इसके ज्वर से आक्रान्त व्यक्ति को अन्य कुछ सूझता हीं नहीं। परिणामस्वरूप मनुष्य उसी की चाह में घुलता रहता है जो प्रायः उससे दूर हीं रहता है परन्तु भासता ऐसा है कि अब मिला तब मिला।
जैसे बहेलिये की पत्नी पक्षियों को फंसाने हेतु नानाविध जाल बुनती है, उसी प्रकार सदा वाह्याकर्षण से लोभायमान तृष्णा मनुष्य को फंसाने के लिए पुत्र, मित्र, कलत्रादि की परम्परा रचती है। यह सर्वथा सूनी, व्यर्थ विस्तार को प्राप्त होने वाली एवं आनन्द की विरोधिनी तो है ही अमंगलकारिणी भी है। इस संसाररुपी वन में तृष्णारुपी विषबेल सर्वत्र फैली हुई है। जरा एवं मृत्यु हीं इसके फूल हैं तथा विनिपात और उत्पात(अधःपतन और उपद्रव) इसके फल।
शरीर निन्दा
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं- मुनिश्रेष्ठ! यह मांस, मज्जा, मेद, अस्थि, रक्त, चर्म और त्वचा निर्मित शरीर जो मल-मूत्र आदि की थैलियों और नाड़ियों से भरा है, वास्तव में केवल दुःख भोगने के लिए हीं है। यह थोड़े से खान-पान
आदि के द्वारा ही आनन्दित हो उठता है और थोड़े से शीत, घाम आदि से व्याकुल हो उठता है। जीवन पर्यन्त इसे मनुष्य अपना समझ इसके लिए नाना प्रकार के कर्म, विकर्म और अपकर्म करता है किन्तु एक दिन यह शरीर भी साथ छोड़ देता है।
मुने! मैं न तो इस शरीर का कोई सम्बंधी हूँ और न शरीर हूँ। तात! जो शरीर मरने के समय जीव का अनुसरण नहीं करते-उसका साथ छोड़ देते हैं, वे कितने बड़े कृतघ्न हैं! फिर उस शरीर में किसी की आस्था हीं क्या हो सकती है? यह शरीर कुछ ही दिनों में जीर्णता को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है और जीवन की इच्छाएं अतृप्त हीं रह जाती हैं जो परवर्ती शरीर धारण का हेतु बनती हैं। इस प्रकार जीव का यह शरीर धारण और त्याग अनन्तकाल तक चलता रहता है। मुनिश्रेष्ठ! इस आवागमन चक्र जनित संसृतिक्लेश में मैं क्यों पड़ूं।
बाल्यावस्था, यौवनकाल एवं जर्जरावस्था का वर्णन
मुनिवर! मनुष्य का जीवनयात्रा गर्भधारण से प्रारम्भ होती है और बाल्यावस्था, युवावस्था एवं जरावस्था नामक शारीरिक अवस्थागत होकर अंततः मृत्यु को प्राप्त हो समाप्त हो जाती है। प्रत्येक अवस्था में यह भिन्न भिन्न प्रकार से कालदंड से पीड़ित होता है और अंत में काल का ही ग्रास बनता है।
यह चेतना सम्पन्न जीव शरीरधारण से पूर्व योनियंत्र से पीड़ित अपने जन्म जन्मान्तर के कर्मो को स्मरण करता हुआ सम्पूर्ण गर्भवासावधि में भीषण कष्ट के मध्य गर्भ से निकलने हेतु व्याकुल रहता है और गर्भवास के उपरांत माता के गर्भ से व्रणकीट की भांति भूमि पर गिरता है। शैशवावस्था में यही मनुष्य परांगमुख हो माता द्वारा पोषित होता है।वह अपनी सम्पूर्ण बाल्यावस्था  पराश्रित होकर व्यतीत करता हुआ जिस अवस्था में प्रवेश करता है वह युवावस्था भी उसके लिए कल्याणकर नहीं सिद्ध होता है।यह यौवन उपर से तो रमणीय प्रतीत होता है, किन्तु भीतर से सद्भावशून्य है। यह युवावस्था देहरुपी जंगल में कुछ दिनों के लिए प्रकाशित होनेवाली शरद-ऋतु के समान है। यह अवस्था उसके मोहपाश से बंधने की है। जीवन के इसी काल में वह स्त्रीदेह की रमणीयता के प्रति आकर्षित होता हुआ माया से दग्ध पुत्र-मित्र-कलत्र, बन्धु-बान्धव के नेह बंधनों से दिन प्रति दिन कसे जाने के अनन्तर धीरे धीरे जरावस्था को प्राप्त होता है। जरावस्था को इस प्रकार प्राप्त उसका भोगलिप्त शरीर काल क्रम में दुर्बल एवं जर्जर हो जाता है एवं वही व्यक्ति अशक्त हो पुनः पराश्रित जीवन जीने को अभिशप्त होता है। पुत्र-मित्र, स्वजन-परिजन जो उससे पुष्पित, पल्लवित एवं पोषित हुए, को वह भाररुप भासित होता है। जैसे सायंकाल की संध्या के प्रकट होते हीं अन्धकार दौड़ पड़ता है, उसी प्रकार शरीर में जरावस्था को देखते ही मृत्यु दौड़ी चली आती है। मुनिश्रेष्ठ! फिर बताइए कि इसमें दुःख के अतिरिक्त शेष क्या है!
काल के स्वरूप एवं प्रभाव का वर्णन
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं-मुनीश्वर! जैसे बड़वाग्नि उमड़े हुए समुद्र को सोखती है, उसी प्रकार यह सर्वभक्षी काल भी उत्पन्न हुए जगत को अपना ग्रास बना लेता है। भयंकर कालरूपी महेश्वर इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्च को निगल जाने के लिए सदा उद्यत रहते हैं। मुने! यह काल धूर्तों का शिरोमणि है। एक को निगलता हुआ भी दूसरे को चबा जाता है। युग, वर्ष और कल्प के रूप में काल हीं प्रकट है। इसका मुर्तिमान रुप अदृश्य है लेकिन यह मृत्यु, विनाश तथा लय के रुप में अनुभवगम्य तथा दृश्यमान है। संसार के समस्त उत्कर्ष, धन, वैभव की अंतिम गति काल के उदर दरी में समा जाना है। यह निर्दयों का राजा है। काल आरम्भ, मध्य और अंत से परे है, अतः नित्य है। मनुष्य की समस्त शुभाशुभ गति इस सर्वशक्तिसम्पन्न काल के अधीन है। यह जो कुछ भी विस्तृत जगन्मण्डल दिखायी देता है, वह उस काल की नृत्यशाला है। इसमें वह खूब जी भरकर नृत्य करता है। जैसे बालक गीली मिट्टी को लेकर नाना प्रकार के खिलौने बनाता है, उसी प्रकार काल भी बारम्बार चौदह भुवन, लोक-लोकान्तर आदि की रचना करता है।
सांसारिक वस्तुओं की निस्सारता, क्षणभंगुरता और दुःखरूपता
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं-तात! मुनीश्वर! यह वाह्य जगत उपर से अत्यंत मनोरम दिखता है किन्तु है यह सारहीन। इसका भान मनुष्य को धीरे धीरे होता है। मुनिवर! इस जगत में कोई ऐसा पदार्थ मेरी दृष्टि में नहीं आता, जिसके प्राप्त होने से चित्त को विश्राम हो। संसाररूपी समुद्र में चमड़े से मढ़ी हुई शरीररूपिणी नौका तृष्णा, क्षुधा, पिपासा आदि विविध तरङ्गों से आहत हिलती डोलती हुई इधर-उधर घूम रही है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि समस्त जागतिक पदार्थ जिसमें हमारा देह भी अग्रगण्य है को हम अपना मान बैठे हैं जब कि यह प्रतिपल नश्वरता को प्राप्त हो रहा है। समुद्र की क्षणभङ्गुर लहरों के समान यह चपल जनसमुद्र वेगपूर्वक कहीं से आती है और फिर सदा वेग से हीं चली जाती है। यह संसार वेगपूर्वक घूमनेवाले कुलालचक्र के समान है। यद्यपि यह वर्षा-ऋतु के पानी के बुलबुलों के समान क्षणभङ्गुर है, तथापि असावधान मनुष्यों की बुद्धि में यह चिरस्थायी प्रतीत होता है। इस भोग्यवर्ग में कोई भी वस्तु विकार से हीन नहीं है। सब कुछ विकाररूप होने के कारण ही असत्य है। जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी - ये पांच महाभूत हीं परस्पर मिल कर घट-पट आदि नाना पदार्थों के रूप में अविवेकी को प्रतीत होते हैं।
महात्मन! हरी-हरी लता के फल को खाने की इच्छा के वशीभूत पर्वतशिखर से जैसे कोई पशु गिरता है, उसी प्रकार स्थान या धन-वैभव आदि को हठात लेने की इच्छा रखनेवाला मनुष्य राग-लोभ आदि दोषों से दूषित हुए अपने चित्त द्वारा ही मारा जाकर पतन के गर्त में गिर जाता है।
जागतिक पदार्थों की परिवर्तनशीलता एवं अस्थिरता का वर्णन
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं- महर्षे! यह जो दृश्य जगत है, वह स्वप्न में सजे मेले से अधिक कुछ नहीं है। यह दृश्य शीघ्रलोपी है। आज जिस देह की शोभा तेल, फुलेल और अंगराग से सुवासित और वस्त्राभूषण से सुशोभित है, कल वही देह ग्राम अथवा नगर से दूर अवस्थित श्मशान में पंचभूत में विलीन हो जायेगा। जो पुरूष आज तेजस्वी है और अनेक मण्डलों पर शासन करता है, कुछ दिनों के अनन्तर राख का ढेर बन जाता है। आज जो लता-वल्लरियों से आवेष्टित भयंकर वन है, कल वही भूभि मरूस्थल में परिवर्तित हो जाती है। मुनिवर! जगत में मनुष्य क्षणभर में ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है और एक क्षण में दरिद्र हो जाता है। वह क्षण में रोगी और क्षण में नीरोग हो जाता है।
श्रीराम की प्रबल वैराग्यपूर्ण जिज्ञासा तथा तत्वज्ञान के उपदेश हेतु प्रार्थना
श्रीरामचंद्रजी कहते हैं- ब्रह्मन! विविध चिन्ताओं से परिपूर्ण भोगसमूहों एवं राज्यों की अपेक्षा चिन्तारहित महात्मा पुरूषों द्वारा स्वीकृत एकान्त-सेवन ही मुझे अच्छा लगता है। सुन्दर उद्यान मुझे आनन्द नहीं देता, स्त्रियों से मुझे सुख नहीं मिलता। मुनीश! मैं न तो मृत्यु का अभिनंदन और न जीवन का हीं स्वागत करता हूँ। मुझे राज्य से, भोगों से, धन से और नाना प्रकार की चेष्टाओं से भी क्या प्रयोजन है?
मुनिवर! आप प्राचीन और अर्वाचीन बातों को जाननेवाले महात्माओं में श्रेष्ठ हैं। जिस प्रकार मैं शोक, भय और खेद से मुक्त हो यथार्थ ज्ञान से सम्पन्न हो जाऊं, वैसा उपदेश मुझे शीघ्र प्रदान कीजिये।
मुनीश्वर! ऐसा कौन सा उपाय है, क्या गति है, कौन सा चिन्तन है, क्या आश्रय है तथा कौन सा ऐसा साधन है जिसका अवलम्बन करने से यह जीवनरूपी वन भविष्य में अमङ्गलकारी न हो? भगवन! वह कौन सा साधन है जिसका आश्रय लेने से अनेक श्रेष्ठ पुरुष दुःखरहित तथा कल्याणमय स्थिति को प्राप्त हो गये हैं?
वाल्मीकिजी अपने शिष्य भारद्वाज जी से कहते हैं, भारद्वाज! जैसे मोर महान मेघों की घटाओं के केकारव करके थक जाने के कारण चुप हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल चंद्रमा के समान मनोहर चित्त वाले श्रीरामचंद्रजी महान गुरूजनों के समक्ष उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये।
(महामुनि बाल्मीकिजी अपने शिष्य भारद्वाजजी को यह कथा कह रहे हैं और यही कथा योगवाशिष्ठ में वर्णित है कि किस प्रकार ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के उपदेश से तत्वज्ञानसम्पन्न दशरथनंदन श्रीराम का चित्त को विश्राम प्राप्त हुआ।)
प्रसंग-६
सम्पूर्ण सभा का श्रीराम का भाषण सुन आश्चर्य में डूब जाना और विश्वामित्र का वशिष्ठजी से राजकुमार श्रीराम के लिये उपदेश देने का अनुरोध
सम्पूर्ण राजसभा और मुनिसमाज तथा स्वयं महाराज दशरथ अपने किशोर पुत्र श्रीराम के तत्वज्ञान से गुम्फित वैराग्य वचन को सुनकर स्तब्ध थे। उनके आश्चर्य की सीमा न रही।श्रीरामचंद्रजी की वे बातें जिन लोगों ने सुनीं, वे निश्चलता के कारण चित्रलिखित से प्रतीत होते थे। आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी। राजकुमार श्रीराम का भाषण सुनकर अभिभूत महर्षि विश्वामित्र कुछ क्षण अपलक उन्हें निहारते रहे और तत्पश्चात प्रकटतः बोले- राजन! आप धन्य हैं जो आपको पुत्र-रत्न के रूप में सर्वप्रिय, सर्वसमर्थ एवं तत्वज्ञान सम्पन्न श्रीराम की प्राप्ति हुई है। यह निश्चय ही आपके पुराकृत पुण्य एवं तप का प्रभाव है।
तदनन्तर विश्वामित्रजी अपने सामने बैठे हुए श्रीराम से प्रेमपूर्वक कहते हैं- 'ज्ञानियों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! तुम्हारे लिये और कुछ जानना शेष नहीं है। तुम अपनी हीं सूक्ष्म बुद्धि से सब कुछ जान चुके हो। तुम सर्वस्वरुप सच्चिदानंदघन परमात्मा को तत्व से जानते हो। तुम्हारे पिता के पार्श्व में अञ्जनगिरि के समान श्याम तथा सूर्यतुल्य तेजस्वी भगवान व्यास बैठे हैं। रघुनन्दन! व्यासपुत्र शुकदेवजी को भी सम्पूर्ण तत्वों का पारदर्शी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान तो उन्हें पहले ही स्वाध्याय से प्राप्त था। उन महामना शुकदेव ने अपने विवेक से तुम्हारी तरह स्वयं ही चिरकाल तक विचार कर के जो परम मनोहर परमार्थ सत्य वस्तु है, उसे प्राप्त कर लिया था। उसे प्राप्त करके भी उनके ह्रदय में 'यही परमार्थ वस्तु(सच्चिदानंदघन परमात्मा) है' ऐसा पूर्ण विश्वास नहीं हुआ;इसलिये उस परम वस्तु के स्वतः प्राप्त हो जाने पर भी उनके मन को शांति नहीं मिली उनके चित्त को विश्राम नहीं मिल पा रहा था। तब उनके पूज्य पिता ने एक क्षण सोच यह निर्णय लिया कि अपने पुत्र शुकदेव को राजर्षि जनक के पास जाने की सलाह दी जाय और कहा, 'बेटा! भूतल पर जनक नाम से प्रसिद्ध एक राजा हैं, जो जानने योग्य तत्व (सच्चिदानंदघन परमात्मा) को यथार्थ रूप से जानते हैं। उनसे तुम्हें सम्पूर्ण तत्वज्ञान प्राप्त हो जायेगा।
तत्वज्ञानमूर्ति शुकदेवजी तदनन्तर राजा जनक के दरबार में जब पहुंचे तो विदेहराज जनक से उन्होंने वही सुना जिनका उन्हें पूर्व से हीं ज्ञान था।
राजा जनक ने कहा - मुने! इस चराचर जगत हीं नहीं अपितु अखिल ब्रह्माण्ड में एक पर पुरुष के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। इसे आप आत्मज्ञान से स्वयं जान चुके हैं और गुरूस्वरूप अपने पिता के मुख से भी सुन चुके हैं। इससे इतर कोई दूसरा निश्चय नहीं है। ब्रह्मण! जो प्राप्त करने योग्य वस्तु है, उसे पूर्ण रूप से आपने पा लिया है। आपका चित्त पूर्णकाम हो गया है। मुनिकुमार! आप इस भ्रम को त्याग दीजिए कि आपको कुछ और जानना शेष रह गया है।
महात्मा जनक से इस प्रकार उपदिष्ट शुकदेवजी अत्यंत शुद्ध परम वस्तु परमात्मा में चुपचाप स्थित हो गये और जैसे तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार प्रारब्ध क्षीण हो जाने पर परमात्मा में लीन हो गये।
महर्षि विश्वामित्र ने पुनः श्रीराम से कहा-रघुकुलभूषण राम! जिस प्रकार तत्वज्ञानसम्पन्न शुकदेवजी के चित्त को विश्राम तब हीं मिला जब राजर्षि जनक ने उन्हें प्रबोधित किया उसी प्रकार तुम्हारे भी चित्त को शांति तत्काल प्राप्त हो जाय यदि कुलगुरू वशिष्ठ तुम्हें प्रबोधित करना स्वीकार कर लें। ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हें बुद्धि से ज्ञात नहीं है। जो तुम्हें ज्ञात है वही परमार्थवस्तु है। किन्तु 'यही परमार्थवस्तु है' यह जब तुम सद्गुरु के मुख से सुन लोगे तुम्हारे चित्त को विश्राम प्राप्त हो जायेगा।
तदनन्तर गाधिनन्दन महर्षि विश्वामित्र ने पूज्यपाद श्रीवशिष्ठजी की ओर उन्मुख हो उनसे निवेदन किया, महामना! रघुवंशी हीं नहीं अपितु इक्ष्वाकुवंशियों के आप सदा से प्रभु, शिक्षक और कुलगुरू हैं। इसके अतिरिक्त आप सर्वज्ञ तथा तीनों कालों में मोह आदि से रहित निर्मल दृष्टिवाले हैं।ब्रह्मण! अपने युक्तियुक्त ज्ञान से श्रीराम के खेदखिन्न चित्त का उपचार कीजिए। इसमें आपको अधिक परिश्रम भी नहीं करना पड़ेगा क्योंकि श्रीरामचंद्रजी सर्वथा निष्पाप हैं। जैसे निर्मल दर्पण में बिना यत्न के हीं मुंह का प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगता है, उसी प्रकार श्रीराम को अनायास ही ज्ञेय वस्तु का बोध हो जायेगा।
प्रसंग-७
ब्रह्मात्मज श्रीवशिष्ठजी का कुशिकनन्दन के अनुरोध को स्वीकार करना एवं श्रीरामचंद्र को उपदेश देना
श्रीवशिष्ठजी बोले- मुने! आप जिस कार्य के लिए मुझे आज्ञा दे रहे हैं, उसका उल्लंघन तो किया ही नहीं जा सकता। संतों की आज्ञा का उल्लंघन करने में कौन समर्थ हो सकता है? पूर्वकाल में निषद पर्वत पर पूजनीय पद्मयोनि ब्रह्माजी ने संसाररूपी भ्रम को दूर करने के लिए जिस ज्ञान का उपदेश दिया था, वह सब अविकलरूप से मुझे याद है और मैं उसी ज्ञानोपदेश से रघुराजकुमार राम के व्यथाव्याप्त चित्त के उपचार का प्रयत्न करूंगा।
जगत की भ्रमरुपता एवं मिथ्यात्व का निरूपण, सदेह और विदेह मुक्ति की समानता तथा शास्त्रनियंत्रित पौरूष की महत्ता का वर्णन
श्रीवशिष्ठजी ने कहा- सौम्य श्रीराम! मैं तुम्हारी व्यथा समझ सकता हूँ। तुमने ज्ञान से यह अनुभव कर लिया है कि जगत में भोग की गति नश्वर है। किन्तु ऐसा होते हुए भी लोकसंग्रह के लिए हमें उन सारे कर्मों को उसी प्रकार करना अभीष्ट है जिनसे उन कर्मों की सार्थकता सिद्ध होती हो।
निष्पाप राम! यह जगत संकल्प से निर्मित है जो अंतिम रूप से मंथन किये जाने पर मिथ्या हीं सिद्ध होता है। मृत्युकाल में पुरूष स्वयं अपने ह्रदय में इसका अनुभव करता है। लेकिन राम! जगत मिथ्या होने पर भी चिरकाल तक अत्यंत परिचय में आने के कारण सत्य प्रतीत होता है तथा यही सत्यरूपी भ्रम जीव के ह्रदयाकाश में पुष्ट होकर इहलोक कहलाता है। फिर मरने के बाद वह अर्थात ह्रदयाकाश में परलोक की कल्पना करता है। संसार यद्यपि विश्लेषण से केले के वृक्ष की त्वचा(छिलके वा वल्कल) के समान एक के पीछे एक प्रतीत होते हैं और इस प्रकार वस्तुतः निस्सार हीं है तथापि शास्त्रज्ञ सत्पुरूषों के मार्ग से चलकर सर्वलोककल्यानार्थ मानसिक, वाचिक और कायिक चेष्टा करना पुरूषार्थ है जो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। श्रुति-स्मृति आदि शास्त्र से नियंत्रित पुरूषार्थ सम्पादन पुरूष का पौरुष(उद्योग) है जिसकी अवहेलना करना शास्त्रानुमोदित कर्तव्य से विमुख होना है और इस प्रकार मनुष्य अपकीर्ति का भागी हो जाता है। इसलिये रघुनन्दन राम! तुम्हारे लिए भी उन सभी लोकचेष्टाओं का शास्त्रानुसार आचरण  उतना ही अभीष्ट है जितना कि एक सामान्य व्यक्ति के लिये शास्त्र ने विहित किया है। शास्त्र के विपरीत किया गया आचरण अनर्थ का हेतु है। कोई पुरूष जब शास्त्रीय प्रयत्न को शिथिल कर देता है, तब स्वयं दरिद्रता, रोग और बन्धन आदि दुर्दशा को प्राप्त होता है। परन्तु शास्त्रानुसार आचरण मनुष्य को ऐसी उत्तम अवस्था की प्राप्ति कराता है जहां समुद्र, पर्वत, नगर और द्वीपों से व्याप्त विशाल भूमण्डल का साम्राज्य कुछ अधिक नहीं है अर्थात वह अनायास सुलभ हो जाता है।
श्रीराम! इस समय ब्रह्मकल्प का अवयवभूत बहत्तरवां त्रेतायुग चल रहा है। यह पहले भी अनेक बार हो चुका है और आगे भी होता रहेगा। यह वही पहलेवाला त्रेतायुग है और उससे विलक्षण भी। इसी प्रकार तुम श्रीराम भी अनेक बार त्रेतायुग में अवतार ले चुके हो और भविष्य में भी लोगे। मैं भी कितनी ही बार वशिष्ठरुप में उत्पन्न हो चुका हूँ और आगे भी होउंगा।
सौम्य श्रीराम! समुद्र की जलराशि शान्त हो या उत्ताल तरङ्गों से युक्त, दोनों दशाओं में उसकी जलरूपता समान ही है-उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। उसी प्रकार देह के रहते हुए और उसके न रहने पर भी मुक्त महात्मा मुनि की स्थिति एक सी होती है, उनमें कोई भेद नहीं होता है। सदेहमुक्ति हो या विदेहमुक्ति, उनका विषयों से कोई सम्बन्ध नहीं है। सदेह और विदेहमुक्त में थोड़ा सा भी भेद नहीं है। पवन सस्पन्द(वेगवान) हो या निष्पन्द(शान्त अथवा वेगहीन), दोनों ही दशाओं में वह है वायु ही।
शास्त्र के अनुसार सत्कर्म करने की प्रेरणा, पुरूषार्थ से भिन्न प्रारब्धवाद का खंडन तथा पौरूष की प्रधानता का प्रतिपादन
वत्स श्रीराम! समस्त पुरूषार्थों की सिद्धि में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति ही प्रधान कारण है। जो मनुष्य जैसा प्रयत्न करता है, वह वैसा ही फल भोगता है। जो यह कहते हैं कि पुरूषार्थ के अतिरिक्त फल दैव पर भी निर्भर है तो उनका यह मत ठीक नहीं है क्योंकि दैव भी कोई पूर्वजन्म का पौरूष हीं है। इसे कोई दैव की संज्ञा देना चाहे तो दे सकता है।अपना पूर्वकृत कर्म ही फल देने के लिए उन्मुख होने पर दैव कहलाता है। इसके अतिरिक्त दैव की सत्ता नहीं है। 'मैं दैव के अधीन हूं, कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हूंं' ऐसी सोचवाले दीन, पामर और मूढ़ होते हैं।
पुरूषसिंह श्रीराम! पुरूषार्थ के दो प्रकार होते हैं जिनमें एक कोटि शास्त्रानुमोदित पुरूषार्थ की है जो हमारे शुभ वासनाओं से प्रेरित पुण्य कर्म से निर्मित है। दूसरी तरफ हमारे पाप-कर्म हैं। ये शास्त्रविरूद्ध पुरूषार्थ हैं जो समस्त अनर्थ के हेतु हैं। इस तरह शास्त्रविरूद्ध पुरूषार्थ अनर्थकारी किन्तु शास्त्रानुमोदित पौरूष परमार्थवस्तु की प्राप्ति में कारण है। इसलिए रघुपुंगव राम पुरूष को शास्त्रीय प्रयत्न से तथा साधु पुरूषों के संग से ऐसा उद्योग करना चाहिए कि इस जन्म का पौरूष पूर्वजन्म के पौरूष(प्रारब्ध) को शीघ्र जीत ले। अपने उत्तम पुरूषार्थ का आश्रय लेकर दांतों से दांतों को पीसते हुए(तत्परतापूर्वक प्रयत्न में लगे हुए) पुरूष को अपने शुभ पौरूष के द्वारा विघ्न करने के लिए उद्यत पूर्वजन्म के अशुभ पौरूष को जीत लेना चाहिए।मनुष्य को जब तक पहले जन्मों का किया हुआ अशुभ कर्म समूल नष्ट न हो जाए, तब तक तत्परता से उत्साहपूर्वक साधन करते रहना चाहिए। रघुनन्दन! इन शुभ-अशुभ पुरूषार्थों के सिवा दैव या प्रारब्ध नाम की कोई वस्तु नहीं है।
पुरूषप्रवर श्रीराम! पूर्वजन्म के तथा इस जन्म के पुरूषार्थ(कर्म) दो भेंड़ों की तरह आपस में लड़ते हैं। उनमें जो भी बलवान होता है, वही दूसरे को पछाड़ देता है। इस जन्म में किया गया प्रबल पुरूषार्थ अपने बल से पूर्वजन्म के पौरूष या दैव को नष्ट कर देता है और पूर्वजन्म का प्रबल पौरूष इस जन्म के पुरूषार्थ को अपने बल से दबा देता है। इस जन्म के और पूर्वजन्म के दोनों पुरूषार्थ पुरूषरूपी वन में उत्पन्न हुए फल देने वाले वृक्ष हैं। उन दोनों में जो अधिक बलवान होता है वही विजयी होता है।
धर्माचरण और मुक्ति के विषय में इस जन्म का पुरूषार्थ बलवान है और अर्थ एवं काम के विषय में पूर्वजन्म का फलदानोन्मुख कर्म या दैव प्रबल है।
अतः शुभाशय श्रीराम! जो पुरूष उदार स्वभाव से युक्त है तथा सत्कर्म के लिए प्रयत्नशील है, वह जगत के मोहरूपी फंदे से उसी प्रकार निकल जाता है जैसे सिंह पिंजरे से।
सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति- यही मनुष्य का स्वार्थ है। उस स्वार्थ की प्राप्ति करानेवाले जो आवश्यक कर्तव्य या साधन हैं, एकमात्र उन्हीं में तत्पर रहने को ही विद्वान लोग पौरूष कहते हैं और यदि वही तत्परता शास्त्रनियंत्रित हो तो पुरूषार्थ की प्राप्ति करानेवाली होती है।
दैव की दुर्बलता और पुरूषार्थ की प्रधानता
श्रीराम! तुम्हारा इस पृथ्वी पर पदार्पण हीं पुरूषार्थ का आश्रयलेकर जगतमात्र के कल्याण हेतु हुआ है। यह तुम्हें अथवा तुम्हारे पिता को ज्ञात हो न हो किन्तु महर्षि विश्वामित्रजी सहित मुझे इसका स्पष्ट ज्ञान है।
इसलिए दैव के भरोसे स्वयं को विसर्जित न कर तुम उत्तम पुरूषार्थ का चयन कर जगत के कल्याण के लिए स्वयं को महर्षि विश्वामित्रजी को समर्पित कर दो। जो मनुष्य जैसा प्रयत्न करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस जगत में चुपचाप बैठे रहनेवाले किसी भी मनुष्य को अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती। शुभ पुरूषार्थ से शुभ फल प्राप्त होता है और अशुभ पुरूषार्थ से अशुभ। अतः मनुष्य को चाहिये कि आगे पीछे बिना सोचे मात्र अंतःकरण में उदित शुभवासना से प्रेरित होकर शास्त्रानुसार उस शुभभावना के अनुरूप तत्परतापूर्वक उद्योग में उत्साही भाव से लगे रहे। यही पुरुषार्थ है। उद्योगशून्य आलसी मनुष्य की नियति परिवार से लेकर समाज तक में अपमानित होना है जिसे प्रमादी दैव कहते हैं। निष्पाप राम! मेरा अभीष्ट तुम्हें इस सत्य को धारण कराना है कि पुरूषार्थ का आश्रय लेकर हीं संसाररुपी गड्ढ़े से मनुष्य स्वयं को बलपूर्वक बाहर निकाल सकता है न कि दैव के भरोसे स्वयं को विसर्जित करके।
श्रीवसिष्ठजी कहते हैं-राघव! तुम्हारा मन उत्तम गुणों से परिपूर्ण है। तुम हमारे योग्य शिष्य हो। परमार्थज्ञान के मूल में जीव और ब्रह्म का एकात्मबोध ही है। शास्त्रचिंतन से मनुष्य का अंतःकरण शीतल हो जाता है। जिस पुरूष को अपने अनुभव, शास्त्रवचन और गुरू के उपदेश की एकवाक्यता का निश्चय हो गया है वह भारी से भारी आपत्ति को अपने विवेकपूर्ण आचरण से पार पा जाता है। विवेकशील मनुष्य प्रिय और अप्रिय को सुनकर, स्पर्शकर, देखकर, खाकर और सूंघकर न तो हर्षित होता है और न खिन्न होता है, वह 'शान्त' कहा जाता है। 'शान्त' वही है जो लौकिक व्यवहार करता हुआ भी उनमें आसक्त नहीं होता। उसकी बुद्धि आकाश के सदृश निर्विकार रहती है और राग-द्वेष से मुक्त होती है।उसके समतापूर्वक लोकाचार एवं लोक व्यवहार से सभी प्राणी को आत्यंतिक सुख की प्राप्ति होती है। सर्वलोकप्रिय राम! इस सम्पूर्ण चराचर जगत का अभीष्ट तुम्हारे लौकिक व्यवहार से सुख प्राप्त करना है और तुम्हारे लिये वही सब कुछ करना तुम्हारा अभीष्ट होना चाहिए जिससे सर्वलोककल्याण सम्भव हो।
प्रसंग-८
कर्मों के त्याग और ग्रहण से कोई प्रयोजन न रखते हुए सत्कर्मों में हीं प्रवृत्ति का प्रतिपादन
श्रीवशिष्ठजी ने कहा-रघुनन्दन! जिसकी हेय दृष्टि और उपादेय दृष्टि अर्थात अमुक कर्म त्याज्य है और अमुक ग्राह्य है- ये दोनों दृष्टियां क्षीण हो गयी हैं, उसे कर्म का त्याग करने से क्या प्रयोजन है? अथवा कर्म का आश्रय लेने की भी क्या आवश्यकता है? इसलिए तत्वज्ञ पुरूष को न तो कर्मों के त्याग से कोई प्रयोजन है और न कर्मों के आश्रय लेने से। इसलिये वर्ण और आश्रम के अनुकूल जो कर्म जैसे होता आ रहा है, उसे वह उसी प्रकार करता रहता है।
श्रीराम! जब तक आयु है, तब तक यह शरीर निश्चित रूप से चेष्टा करता रहता है, अतः वह शान्तभाव से यथाप्राप्त चेष्टा करे। उसका त्याग अनावश्यक है। सम बुद्धि तथा समदृष्टि से सम्पादित कार्य सर्वथा निर्दोष होते हैं।
इस भूतल पर कितने हीं गृहस्थ जीवन्मुक्त हैं, जो असङ्गबुद्धि से यथाप्राप्त वर्णाश्रम धर्म का अनुसरण करते हैं। उनके सिवा दूसरे राजा जनक जैसे तत्वज्ञ राजर्षि तथा अन्य वीतराग पुरूष भी हैं जो अनासक्तचित्त और चिन्तारहित होकर तुम्हारी तरह राज्य करते हैं। कुछ महान आशयवाले महापुरुष अपने अन्तःकरण में सम्पूर्ण फलों की आसक्तियों का त्याग कर सब प्रकार के नित्य नैमित्तिक कर्म करते हुए भी अज्ञानी की भांति स्थित रहते हैं।
श्रीराम! संसारसागर से पार पाने के लिए मनुष्य का यह व्यवहारभेद युक्त आचरण उसके चित्त के अनुरूप होता है जो पूर्वजन्मकर्मकृत है। सारांश यह है कि संसार-सागर से पार होने में न तो वनवास कारण है, न अपने देश में ही रहना कारण है और न कष्टसाध्य तपस्या ही कारण है।न तो कर्म की प्रवृत्ति न हीं उसकी निवृत्ति हीं इसमें सहायक है। यह शरीररूपी नैया से भवसागर तब ही पार किया जा सकता है जब जीव अपने मनुष्य अपने स्वरूप में स्थित हो, मन आसक्तिरहित हो, शुभ कर्मों का अनुष्ठान हो और अशुभ कर्मों का त्याग उसके आचरण का मूलाधार बन जाय।
प्रसंग-९
दृश्य का परिमार्जन , यह जगत ब्रह्म का संकल्प होने से ब्रह्म हीं है, इसका विवेचन
श्रीवशिष्ठजी बोले- महाबाहो! बुद्धिमान को जब तक उसे उत्पन्न भ्रम का निवारण नहीं हो जाता तब तक उसे इस पर शुभवासना से प्रेरित होकर चर्चा एवं चिन्तन में निमग्न रहना चाहिए क्योंकि दर्पण बार बार पोंछने या परिमार्जित करने पर अधिक स्वच्छ और शोभित होता है, उसी प्रकार बारम्बार चर्चा होने से भ्रम का निवारण होता है जिससे बोध शुद्ध होकर निखर उठता है।
रूप और नाम- दो हीं प्रकार के दृश्य हैं।इनमें पहला अर्थ है दूसरा शब्द। दोनों हीं भ्रम हैं और इनका मार्जन आवश्यक है। अर्थ भ्रम को समझने के लिए संकेतमात्र है। अर्थ की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। एक वस्तु को समझने के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं, उन सबके अर्थ पृथक-पृथक होने पर भी उनसे अनेक वस्तुओं की उपलब्धि नहीं होती।इस तरह अर्थ भ्रम का परिमार्जन हुआ।
अर्थ के बिना शब्द जल के कलकल नाद की भांति निरर्थक है, अतः वह शब्दता को छोड़कर अर्थरूपता को प्राप्त होता है। इस प्रकार अर्थ और शब्द दोनों भ्रम का मार्जन होने के बाद यह सम्पूर्ण दृश्यवर्ग स्वप्न की भांति चेतन का संकल्पमात्र है। जब जाग्रत हीं मिथ्या है तो स्वप्न की क्या बात है!
राजन! मैं तुमसे स्पष्ट शब्दों में तत्वज्ञान की बात बता रहा हूँ जिससे तुम्हारे सारे संदेह निर्मूल हो जायेंगे। पहले यह समझ लो कि जगत के सारे पदार्थ सदा हीं असत् हैं और सदा हीं ये सत् भी हैं;क्योंकि इनकी स्थिति कल्पना के अनुसार है। जहां अमुक वस्तु इस रूप में ही है, ऐसी निश्चित बुद्धि होती है, वहां वह पदार्थ वैसा ही होता है, फिर वह सत् हो या असत्। इस विषय में आग्रह नहीं है। जैसे स्वप्न में स्वप्नद्रष्टा चिदात्मा हीं स्वप्नगत जगत के आकार में भाषित होता है, उसी प्रकार सृष्टि के आरंभ में समस्त कारणों का अभाव होने से चिदाकाश ही इस जाग्रत जगत के आकार में भासित होता है। इसलिए विचारने पर स्पष्ट होता है कि जाग्रत्कालिक जगत स्वप्नजगत से भिन्न नहीं है। इस प्रकार विशुद्धज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही इस जगत के रूप में भासित होता है।
लोक, वेद और महान शास्त्रों द्वारा पूर्वापर विचार करके मैंने यही अनुभव किया है और इस अनुभूति - ज्ञान को ही यहां तुम्हें उपदेश के रूप में प्रकट किया है।
राम! समस्त भूतो में नित्य चिदात्मा ही सत्तारूप से सर्वत्र परिपूर्ण हैं। यह जगत ब्रह्मसंकल्पनगर के रूप में स्थित है। संकल्पनगर में जब जिस जिस वस्तु के विषय में जैसा संकल्प किया जाता है, वह वह वस्तु उस समय वैसी ही आकृति और प्रकृति धारण करके अनुभव में आने लगती है। राजन! जैसे तुम्हारे संकल्पगृह में जो यह प्रजा है, वह तुम्हारे संकल्प के अनुसार बनी है, उसी तरह ब्रह्म के संकल्प से संपन्न हुए जगत में यह प्रजा ब्रह्मसंकल्प के अनुसार ही होती है। अपने इस संकल् नगर में जैसा तुमने चाहा है, वैसा सबकुछ यहां स्थित है और आगे जैसा संकल्प करोगे, वैसा ही सबकुछ देखोगे।
इसलिए हे रघुनन्दन! तुम समस्त दृश्य पदार्थों से मुक्त, सब ओर से प्रकाशमान, सर्वस्वरूप, निर्मल स्वभाव, आत्मनिष्ठ, निरतिशय आनन्दमय, परमशान्त चित्त, आकाश के समान मनोहर एवं तृष्णारहित हो। तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम शास्त्रानुमोदित जो धर्म है, उसका पालन करो। इसी में इस अयोध्याराज्य का तो क्या सम्पूर्ण जगत का कल्याण है।
इतना कह कर मुनिवर वशिष्ठ चुप हो गये मानो मन्द मन्द शीतल पवन का बहना सहसा बन्द हो गया हो।
प्रसंग- १०
महाराज दशरथ का पुत्रसहित स्वयं को महामुनि वशिष्ठजी के चरणों में अर्पित करना, समस्त सभासदों का मुनि के प्रति कृतार्थता- प्रकाशन तथा वशिष्ठजी की आज्ञा से महाराज दशरथ का ब्राह्मणों को दान, मान एवं सम्मान के सम्पूर्ण प्रजा को उत्सव मनाने का आदेश देना।
श्रीवाल्मीकिजी कहते हैं- मेरे शिष्यशिरोमणि परमबुद्धिमान भरद्वाज! महामुनि वशिष्ठजी जब इतना कह चुके, तब तत्काल ही मेघ के समान गम्भीर घोष के साथ देवताओं की दुन्दुभियां बज उठी। भूतल पर हिम की वर्षा के समान दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी। उस सभा में यथास्थान नीचे बैठे हुए समस्त सभासदों ने वे दिव्य पुष्प लेकर वशिष्ठजी के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित की और सबने सब प्रकार से दुःख-शोक को त्याग दिया।
महाराज दशरथ अपने सिंहासन से उठे और अपने सभी पुत्रों सहित धीरे-धीरे श्रद्धा और विनय से चलकर गुरु वशिष्ठ के चरणों में पुत्रसहित स्वयं को अर्पित कर दिया। कुशिकनन्दन विश्वामित्र अभी भी वशिष्ठजी की वाणी से निःसृत अमृतोपदेश को नयनमूंदे मानो आत्मसात कर रहे थे।
राजा दशरथ बोले- भगवन! आपके इस अमृतसदृश उपदेश से सभी को अपने अपने संकल्प के अनुसार ज्ञेय तत्व का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान हो गया तथा परमपद में उसी तरह विश्राम का सुख उठा रहे हैं, जैसे शरत्काल के उज्ज्वल मेघ हिमालय पर्वत पर विश्राम करते हैं।
मुने! आपके इस गौरवपूर्ण उपदेश के सामने यह राज्य है हीं कितना! इस तुच्छ वस्तु को अर्पित करके हम विशेष लज्जित हो रहे हैं। अतः भगवन्! आप जैसा उचित समझें वही करें।
श्रीवशिष्ठजी ने कहा- भूपाल! हम ब्राह्मणलोग प्रणाममात्र से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वह प्रणाम आपने किया हीं है। राज्य का पालन करना आप हीं जानते हैं, यह आपको हीं शोभा देता है। ब्राह्मण कहां भूमंडल के पालन का भार उठाते हैं?
श्रीरामजी बोले- मुनीश्वर! आपकी वाणी से मेरा उद्विग्न चित्त स्वस्थ होकर विश्राम को प्राप्त हो चुका है। हमें विश्राम सुख की असीम विस्तारवाली भूमि प्राप्त हो गयी है। अब मुझे न तो कोई कर्म से प्रयोजन है और न उसे न करने से ही। मैं जैसे हूँ, उसी तरह निश्चिंत हूँ। आपकी कृपा के बिना मनुष्य इस ज्ञानदृष्टि को कैसे जान सकता है!
तदनन्तर महर्षि वशिष्ठ ज्ञान से पवित्र हुई वाणी द्वारा यों बोले- राजन! रघुकुलचन्द्र! अब जो मैं कहता हूँ, उसे करो।
इतिहास-कथा सुनने के पश्चात ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये। इसलिए आज राज्य के सभी ब्राह्मणों को सभी प्रकार की मनोवांछित वस्तुएं देकर इनकी अभिलाषा पूर्ण करो। मोक्ष की उपायभूत कथा-वस्तु की समाप्ति होने पर एक तुच्छ एवं दरिद्र मनुष्य को भी अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मण का पूजन करना चाहिए। फिर आप जैसे महाराज के लिए तो कहना ही क्या है!
मुनि के ये वचन सुन राजा दशरथ ने राज्य के सभी सहस्त्रों वेदवादी ब्राह्मणों को दूत भेजकर बुलवाया तथा उनका विधिपूर्वक पूजन एवं सत्कार किया। राजा ने बड़ा भारी उत्सव के आयोजन का आदेश दिया। भूपाल ने सभी को रूचि के अनुसार भोजन कराने के पश्चात उन्हें मुक्तहस्त से दान-दक्षिणा भी दी। दीन-दुखियों तथा अन्धों को भी भोजन और दान-मान से संतुष्ट किया।
बोधरूपी सूर्य के उदय से संसाररूपी रात्रि का अंत हो चुका था।
उपसंहार:
योगवाशिष्ठ एक परम हीं गूढ़ग्रंथ है जिसकी विवेच्यवस्तु ज्ञानात्मक सूक्ष्मविचार एवं परमार्थतत्व निरूपण है। भगवान श्रीराम को ज्ञानस्वरूप महर्षि वशिष्ठ के द्वारा सुनायी गयी तत्वज्ञान की यह सर्वोत्कृष्ट रचना है। यह ग्रंथ महारामायण, वशिष्ठ-रामायण आदि नामों से भी जाना जाता है। इसे अजातवाद या केवल ब्रह्मवाद का ग्रंथ माना जाता है। इसके सिद्धान्तानुसार एकमात्र चेतनतत्व परब्रह्म के अतिरिक्त कोई सत्ता नहीं है। इस ग्रंथ के विषय में महर्षि वशिष्ठ ने स्वयं कहा है कि 'संसार-सर्प के विष से विकल तथा विषय-विषूचिका से पीड़ित प्राणियों के लिए योगवाशिष्ठ परम पवित्र अमोघ मन्त्र है।'
योगवाशिष्ठ का प्रतिपाद्य विषय परमसत्यस्वरूप परमात्मा को ज्ञान और निष्काम कर्म से जानने का उद्योग है। ऐसा उद्योग सभी को करना चाहिए जो अपने चित्त की दुर्बलता पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं।
आशा है ज्ञानीजन मेरे इस प्रयास को उसी प्रकार लेंगे जैसे कोई कमजोर छात्र किसी पाठ को याद करने के लिए उसे देख देख कर लिखने का प्रयत्न करता हो ताकि उसका कुछ अंश हीं सही वह परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये लिख सके।
शेष सबकुछ रामाधीन है।
राजीव रंजन प्रभाकर
२६.०४.२०१९.

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